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, श्रीधामवृन्दावन धाम की महिमा!!!!!!धन्य वृन्दावन धाम है धन्य वृन्दावन नाम। By समाजसेवी वनिता कासनियां पंजाब धन्य वृन्दावन रसिक जो सुमिरे श्यामाश्याम।।श्रीधाम वृन्दावन भगवान श्रीराधाकृष्ण की रसमयी लीलाभूमि है। पुराणों में इसे व्रजमण्डलरूपी कमल की अत्यन्त सुन्दर कर्णिका कहा गया है। अत: कमल-कर्णिका के समान ही यह सुन्दरता, blसुकुमारता एवं मधुरता का कोष है। यह सहस्त्रदल-कमल का केन्द्रस्थान है। वृन्दावन के मध्यभाग में एक सुन्दर भवन के भीतर योगपीठ है। उसके ऊपर माणिक्य का बना हुआ सुन्दर सिंहासन है, जिसके ऊपर अष्टदल कमल है, जिसकी कर्णिका अर्थात् मध्यभाग में सुकोमल आसन लगा है; वही भगवान श्रीकृष्ण का स्थान है जहां वे विराजमान होते हैं। कलिन्द-कन्या यमुना उस कमल-कर्णिका की प्रदक्षिणा किया करती हैं। भूमण्डल में वृन्दावन गुह्यतम, रमणीय, अविनाशी तथा परमानन्द से पूर्ण स्थान है। यह गोविन्द का अक्षयधाम है।श्रीगर्ग संहिता में बहिषत् से ईशानकोण, यदुपुर से दक्षिण और शोणपुर से पश्चिम की साढ़े बीस योजन विस्तृत भूमि को ‘दिव्य माथुर मण्डल’या ‘व्रज’ बतलाया है। इस व्रज में सबसे श्रेष्ठ ‘वृन्दावन’ नामक वन है जो भगवान के भी मन को हरने वाला लीला-क्रीडास्थल है। यह वृन्दावन वैकुण्ठ से भी परम उत्कृष्ट है। यहां ‘गोवर्धन’ नाम से प्रसिद्ध गिरिराज, कालिन्दी (यमुना) का पावन तट, बृहत्सानु (बरसाना) पर्वत व नन्दीश्वर गिरि शोभायमान है। यह विस्तृत भूभाग विशाल काननों (वनों) से घिरा है; जो पशुओं के लिए हितकर, गोप-गोपी और गौओं के लिए सेवन करने योग्य है, उस मनोहर वन को ‘वृन्दावन’ के नाम से जाना जाता है। यह वृन्दावन अपने सम्पूर्ण वैभव के साथ मथुरा मण्डल में अवस्थित है।भगवान श्रीकृष्ण का निजधाम–श्रीवृन्दावन!!!!ब्रज चौरासी कोस में, चारगाम निजधाम।वृन्दावन अरू मधुपुरी, बरसानो नन्दगाम।।श्रीवृन्दावन, मथुरा और द्वारका भगवान के नित्य लीलाधाम हैं। परन्तु पद्मपुराण के अनुसार वृन्दावन ही भगवान का सबसे प्रिय धाम है। भगवान श्रीकृष्ण ही वृन्दावन के अधीश्वर हैं। वे व्रज के राजा हैं और व्रजवासियों के प्राणवल्लभ हैं। उनकी चरण-रज का स्पर्श होने के कारण वृन्दावन पृथ्वी पर नित्यधाम के नाम से प्रसिद्ध है।मोहन वृन्दावन के राजा, राधा महारानी सुकुमार।बीस कोस वृन्दावन गायौ,बरसानो गहवर तक छायौ,गोवर्धन हूं बन में आयौ,ठौर-ठौर पर रस की लीला करी जुगल सरकार।।योजन पांच वन्यौ वृन्दावन,मुख्य भूमि तट यमुनाकंकन,रास बिहार होय जहां कुंजन,विधि हरि हर दुर्लभ रजधानी नित बरसै रसधार।।सृष्टिचक्र में यह वन नाहीं,माया की गति नहिं अवगाहीं,काल शक्ति वन में नहि जाहीं,महा प्रलय ब्रजधूरिन नासै जगमग ज्योति अपार।।(डॉ. वसन्त यामदग्नि)सनत्कुमार संहिता में गोविन्द की अतिशय प्रिय भूमि वृन्दावन का विस्तार पंचयोजन बताया गया है और पंचयोजन विस्तृत वृन्दावन स्वयं श्रीकृष्ण का देहरूप माना गया है। भगवान की इच्छा से इसमें संकुचन और विस्तार हुआ करता है। छोटे से वृन्दावन में जितनी गोपियों, ग्वालों और गौओं के होने का वर्णन आता है, वह स्थूल दृष्टि से देखने से सम्भव प्रतीत नहीं होता; फिर भी भगवान की महिमा से वह सब सत्य ही है। वृन्दावन की एक झाड़ी में ही ब्रह्माजी को सहस्त्र-सहस्त्र ब्रह्माण्ड और उनके निवासी दीख गये थे। यहां के नग, खग, मृग, कुंज, लता आदि काल और प्रकृति के प्रभाव से अतीत दिव्य स्वरूप हैं। यहां के रजकणों के समान तो वैकुण्ठ भी नहीं माना गया, क्योंकि यहां कि भूमि का चप्पा-चप्पा श्रीप्रिया-प्रियतम के चरणचिह्नों से महिमामण्डित है। सांसारिक दृष्टि से यह वृन्दावन कदापि दर्शनीय नहीं है, पर यदि श्रीराधाकृष्ण की कृपा हो जाये तो वृन्दावन के इस रूप का दर्शन भी साधकों को हो जाता है।नित्य छबीली राधिका, नित छविमय ब्रजचंद।विहरत वृंदाबिपिन दोउ लीला-रत स्वच्छन्द।।श्रीमद्भागवत के अनुसार अत्याचारी कंस के उत्पातों से दु:खी होकर नन्द-उपनन्द आदि गोपों की सभा में अपने तत्कालीन निवास बृहद्वन को छोड़कर सुरक्षा के लिए जिस वृन्दावन में बसने का प्रस्ताव स्वीकृत हुआ था, वह वृन्दावन अपने स्वरूप में छोटे-छोटे अनेक वनों का समूह था। इस क्षेत्र में पुण्य पर्वत गिरिराज था, स्वच्छ सलिला श्रीयमुना थीं और यह सम्पूर्ण क्षेत्र अपनी वनश्री की शोभा से समृद्ध होने के कारण गोप-गोपी और गायों की सुख-सुविधा से युक्त था–वनं वृन्दावनं नाम पशव्यं नवकाननम्।गोपगोपीगवां सेव्यं पुण्याद्रितृणवीरुधम्।। (श्रीमद्भागवत १०।११।२८)इसी बृहद् वृन्दावन में गोप-गोपी एवं गोपाल की अनेक लीलाएं हुईं। वृन्दावन के इसी क्षेत्र में श्रीकृष्ण द्वारा वत्सासुर, वकासुर एवं अघासुर का वध हुआ। इसी क्षेत्र में यमुना-पुलिन पर ग्वालबालों की मण्डली में जूठन खाते श्रीकृष्ण को देखकर ब्रह्माजी मोहग्रसित हुए। वृन्दावन के इसी बृहद् क्षेत्र में श्रीकृष्ण द्वारा कालियनाग को नाथे जाने पर यमुना प्रदूषण से मुक्त हुई थी। यहीं मुज्जावटी क्षेत्र में श्रीकृष्ण द्वारा दावानल का पान किया गया। भाण्डीर वन में ही प्रलम्बासुर नामक दैत्य ग्वालबालों व श्रीकृष्ण की क्रीड़ा में ग्वाल के वेष में सम्मिलित हुआ था। यमुनातट पर व्रजांगनाओं के चीरहरण का साक्षी वह कदम्ब का वृक्ष आधुनिक स्यारह गांव के पास स्थित था। वृन्दावन के गिरिराज क्षेत्र में ही इन्द्र का मानमर्दन हुआ। वरुणदेव ने नन्दबाबा का हरण आधुनिक भयगांव नाम से प्रसिद्ध स्थान पर किया था। राधाकुण्ड का भूभाग अरिष्टासुर के उद्धार से सम्बन्धित है–राधाकुण्डे श्यामकुण्डे गिरि गोवर्धन।मधुर मधुर वंशी बाजे, ऐई तो वृन्दावन।।श्रीगर्ग संहिता के उल्लेख के आधार पर श्रीराधाकृष्ण के रास का क्षेत्र वृन्दावन के सैकत पुलिन से शुरु होकर गिरिगोवर्धन, चन्द्रसरोवर, तालवन, मधुवन, कामवन, बरसाना, नन्दगांव, कोकिलावन एवं रासौली तक विस्तृत माना जाता है। इस प्रकार बृहद् वृन्दावन की सीमा दक्षिण-पश्चिम में गोवर्धन तक तथा उत्तर में वर्तमान छाता तहसील के दक्षिणी भाग तक मानी जाती है।वृन्दावन को भगवान का स्वरूप ही मानना चाहिए। यहां कि धूलि का स्पर्श होने मात्र से ही मोक्ष हो जाता है। बड़े-बड़े देवेश्वर भी उसकी पूजा करते हैं। ब्रह्मा आदि भी उसमें रहने की इच्छा करते हैं। यहां देवता और सिद्धों का निवास है। यहां की भूमि चिन्तामणि है और जल रस से भरा हुआ अमृत है। वहां के पेड़ कल्पवृक्ष हैं और गायें कामधेनु हैं।धनि यह बृंदाबन की रेनु।नंद-किसोर चरावत गैयाँ, मुखहिं बजावत बेनु।मन-मोहन कौ ध्यान धरैं जिय, अति सुख पावत चैनु।चलत कहाँ मन और पुरी तन, जहाँ कछु लैन न दैनु।इहाँ रहहु जहँ जूठनि पावहु, ब्रजवासिनि कैं ऐनु।सूरदास ह्याँ की सरबरि नहि, कल्पबृच्छ सुर-धैनु।।अन्तर तो केवल इतना ही है कि कल्पवृक्ष अथवा चिन्तामणि जहां सिर्फ भौतिक सुख-सुविधाओं से सम्बन्धित कामनाओं की पूर्ति करते हैं, वहां वृन्दावन साधक की समस्त कामनाओं की पूर्ति करने में समर्थ है। भुक्ति-मुक्ति और भक्ति–यह तीनों ही प्रदान करता है। पर जो सबसे बड़ी चीज यह प्रदान करता है, वह है अद्भुत माधुर्ययुक्त प्रेम जिसके कारण श्रीकृष्ण प्रेमी-साधक के पीछे-पीछे घूमते रहते हैं।वृन्दावन के इस अनूठे रूप का दर्शन व्यक्ति अपनी ज्ञानेन्द्रियों से नहीं बल्कि अपनी आत्मा से ही कर सकता है। इसके लिए सिर्फ और सिर्फ एक ऐसे मन की आवश्यकता होती है जहां श्रीकृष्ण के लिए विशुद्ध प्रेम (अनुराग) हो। ऐसा उज्जवल प्रेम जिसमें न पुण्य का भय है, पाप की आशंका, न नरक की विभीषिका का डर है, न स्वर्ग का लालच, न सुख की कामना है, न दु:ख का दर्द। जहां अधीरता नहीं, धैर्य है; शर्त नहीं, समर्पण है; आशा नहीं, पूर्ण विश्वास है। जिसमें साधक अपने सुख के बारे में रत्ती भर भी न सोचकर केवल प्रेमास्पद (श्रीकृष्ण) के सुख की चिन्ता में ही लगा रहता है। भगवान को प्रेम और केवल प्रेम ही प्रिय है। वृन्दावन इसी रस की खान हैं। वृन्दावन में सदा श्याम तेज विराजमान रहता है। श्रीकृष्ण नित्य वृन्दावन की वीथियों (गलियों) में, यहां के कुंज-निकुंजों में, यमुनातट पर वेणु बजाते रहते है और गायें चराते अपने रसिक भक्तों को कृतार्थ करते रहते हैं।यह वृन्दावन पूर्ण ब्रह्मानन्द में निमग्न रहता है। यहां प्रतिदिन पूर्ण चन्द्रमा का उदय होता है और सूर्य अपनी रश्मियों के द्वारा इस वन की सेवा करते हैं। वृन्दावन में जाते ही सारे दु:खों का नाश हो जाता है। यह वृन्दावनधाम अमृतरस से भरा अखण्ड प्रेम का समुद्र है। यह सम्पूर्ण भूमि रसमयी है। क्यों न हो, यहां सदा-सर्वदा सृष्टि का पूर्णतम माधुर्य (श्रीराधाकृष्ण) क्रीड़ारत जो रहता है। श्रीवृन्दावन केवल धाम ही नहीं है, अपितु यह श्रीराधामाधव के रास-विलास से युक्त प्रेममयी क्रीडाओं की दिव्यभूमि है। व्रजरसिकों का विश्वास है कि श्रीवृन्दावन प्रेम की वह भावभूमि है, जहां अनादिकाल से प्रेम की रसधारा अनवरत रूप से बहती चली आ रही है।प्रेममयी श्रीराधिका, प्रेम सिन्धु गोपाल।प्रेमभूमि वृन्दाविपिन, प्रेम रूप ब्रज बाल।।वृन्दावन में सर्वत्र श्रीराधिका का ही पूर्ण राज्य है। वह वृन्दावनेश्वरीकहलाती हैं। भुक्ति-मुक्ति की यहां तनिक भी नहीं चलती। धर्म-कर्म भी यहां ‘जेवरी बंटते’ अस्तित्वहीन नजर आते हैं। यहां के मनुष्य ही नहीं; वृक्षों के डाल-डाल और पात-पात पर भी सदा ‘राधे-राधे’ का शब्द गुंजायमान रहता है।वृन्दावन के वृक्ष को मरम न जाने कोय।डाल-डाल और पात-पात पर राधे ही राधे होय।।इस वृन्दावनधाम में संतों व वैष्णवों की स्थिति के सम्बन्ध में क्या कहा जा सकता है? ऐसे वैष्णवजन ही इस धाम का आश्रय लेते हैं जिनका अंतकरण शुद्ध है और जो प्रेमरस से परिपूर्ण हैं। मीराबाई अपने सच्चे पति श्रीकृष्ण के दर्शन करना चाहती थीं। अत: उन्होंने दृढ़ निश्चय किया कि मेरा प्रीतम के देश वृन्दावन जाना ही उचित है–’मैं गिरधर के घर जाऊं।’ वह जानतीं थीं कि उनकी प्रेम-साधना वृन्दावन में ही फूले-फलेगी। मीराबाई ने वृन्दावन की महिमा का वर्णन करते हुए एक सुन्दर भजन गाया है–आली री ! मौहे लागे वृन्दावन नीको।घर-घर तुलसी ठाकुर पूजा दर्शन गोविन्दजी को।।निरमल नीर बहत यमुना में भोजन दूध दही को।रत्न सिंहासन आप विराजै मुकुट धरयौ तुलसी को।।कुँजन कुँजन फिरत राधिका शब्द सुनत मुरली को।मीरा के प्रभु गिरधर नागर भजन बिना नर फीको।।सत्ययुग में राजा केदार सातों द्वीपों के अधिपति थे। उनका सारा नित्य व नैमित्तिक कर्म श्रीकृष्ण की प्रीति के लिए ही होता था। भगवान का सुदर्शन चक्र राजा की रक्षा के लिए सदा उन्हीं के साथ रहता था। वे चिरकाल तक तपस्या करके अंत में गोलोक चले गए। उनके नाम से केदार तीर्थ प्रसिद्ध हुआ। उनकी पुत्री का नाम वृन्दा था, जो लक्ष्मीजी का अंश थी। उसने साठ हजार वर्षों तक निर्जन वन में तपस्या की। भगवान श्रीकृष्ण ने प्रकट होकर कोई वर मांगने को कहा। तब वृन्दा ने कहा–’तुम मेरे पति हो जाओ।’ भगवान ने उसकी प्रार्थना स्वीकार कर ली और वह भगवान श्रीकृष्ण के साथ गोलोक चली गई। वृन्दा ने जहां तप किया था, उस स्थान का नाम ‘वृन्दावन’ हुआ।एक अन्य कथा के अनुसार राजा कुशध्वज के दो कन्याएं थीं–तुलसी और वेदवती। वेदवती ने तपस्या करके परम पुरुष नारायण को प्राप्त किया। वह जनकपुत्री सीता के नाम से जानी जाती हैं। तुलसी ने तपस्या करके श्रीहरि को पति रूप में प्राप्त करने की इच्छा की, किन्तु दुर्वासा के शाप से उसने शंखचूड़ को प्राप्त किया। फिर भगवान नारायण उसे पतिरूप में प्राप्त हुए। भगवान श्रीहरि के वर से तुलसी वृक्षरूप में प्रकट हुईं और तुलसी के शाप से श्रीहरि शालग्राम शिला हो गये। उस तुलसी की तपस्या का एक यह भी स्थान है; इसलिए इसे ‘वृन्दावन’ कहते हैं।श्रीराधा के सोलह नामों में एक वृन्दा नाम भी है। पूर्वकाल में श्रीकृष्ण ने श्रीराधा की प्रीति के लिए गोलोक में वृन्दावन का निर्माण किया था। फिर पृथ्वी पर उनकी क्रीडालीला के लिए प्रकट हुआ वह वन उस प्राचीन नाम से ही ‘वृन्दावन’ कहलाने लगा।श्रीराधाकृष्णगणोद्देशदीपिका के अनुसार श्रीराधा की एक प्रिय सखी का नाम भी ‘वृन्दा’ बताया गया है। यह वृन्दा सदैव वृन्दावन में निवास करती है और प्रतिदिन श्रीराधा और श्रीकृष्ण के मिलन की योजना बनाना ही इनकी परमप्रिय सेवा है। अत: यह कहा जा सकता है कि महाभावस्वरूपा श्रीराधा एवं उनकी प्रिय सखी वृन्दा के नामानुसार ही यह स्थल ‘श्रीवृन्दावन’ नाम से प्रसिद्ध हुआ।वृन्दावन सदा वासा नाना केलि रसोत्सुका।उभयोर्मिलनाकांक्षी तयो: प्रेमपरिप्लुता।।श्रीवृन्दावन के नामकरण के विषय में स्कन्दपुराण में इसे वन्यवृन्दा (तुलसी) से भी जोड़ा जाता है। वृन्दा (तुलसी) का यह वन कभी ऋषि-मुनियों के आश्रमों से भरा-बसा था। इस वन में श्रीहरि सदा निवास करते हैं।मध्यकालीन भक्ति आन्दोलन के प्रमुख भक्तों में श्रीचैतन्य महाप्रभु का योगदान वृन्दावन की खोज, उसके स्वरूप व गौरव को फिर से प्रतिष्ठित करने में प्रमुख रहा है। श्रीचैतन्य महाप्रभु जब वृन्दावन आए तो यहां एक निर्जन सघन वन था। उन्होंने यहां यमुना किनारे इमली के पेड़ के नीचे विश्राम किया था, वह स्थान इमलीतला के नाम से जाना जाता है। इमलीतला के बारे में कहा जाता है कि एक दिन श्रीकृष्ण यमुना किनारे राधाजी के साथ रास रचा रहे थे। तभी वहां गोपियां आ गईं। इससे श्रीकृष्ण रुष्ट होकर इमलीतला घाट पर जाकर विरह में ‘राधा-राधा’ पुकारने लगे। यह इमलीतला एक सिद्धस्थान है। यहां सच्ची साधना की जाए तो मनोरथपूर्ति के साथ ही सिद्धि भी प्राप्त हो जाती है।अपनी तीर्थयात्रा के बाद जैसे ही श्रीचैतन्य महाप्रभु नवद्वीप लौटे तो उन्होंने अपने छह विद्वान अनुयायियों को भगवान श्रीकृष्ण की विभिन्न लीलास्थलियों की खोज व पुनरुद्धार के लिए वृन्दावन भेजा। ये छह गोस्वामी थे–श्रील रूप गोस्वामी, श्रील सनातन गोस्वामी, श्रील रघुनाथभट्ट गोस्वामी, श्रील जीव गोस्वामी, श्रील गोपालभट्ट गोस्वामी और श्रील रघुनाथदास गोस्वामी। श्रीमहाप्रभु और इन्हीं छह गोस्वामियों की प्रेरणा से ही यहां भव्य मन्दिरों का निर्माण हुआ और श्रीविग्रहों की प्रतिष्ठा हुई। अत: यह कहना गलत न होगा कि इन्हीं के प्रयासों से आज वृन्दावन एक वैष्णव तीर्थ के रूप में विख्यात है। श्रील रूप गोस्वामी ने श्रीराधागोविन्ददेव मन्दिर, श्रील सनातन गोस्वामी ने श्रीराधामदनमोहन मन्दिर, श्रील जीव गोस्वामी ने श्रीराधादामोदर मन्दिर, श्रील गोपालभट्ट गोस्वामी ने श्रीराधारमण मन्दिर, श्रीमधु पंडित गोस्वामी ने श्रीराधागोपीनाथजी मन्दिर, श्रीश्यामानंद पंडित गोस्वामी ने श्रीराधाश्यामसुंदर मन्दिर, श्रीलोकनाथ गोस्वामी ने श्रीराधागोकुलनंदजी मन्दिर का निर्माण करवाया। श्रीराधादामोदर मन्दिर में श्रीगिरिराज महाराज की वह शिला भी विराजमान है जिस पर श्रीकृष्णचरण अंकित हैं। भगवान श्रीकृष्ण ने श्रील सनातन गोस्वामी को यह शिला गोवर्धन (चकलेश्वर) में उस समय दी थी जब वे वृद्धावस्था के कारण नित्य गोवर्धन की परिक्रमा नहीं लगा पाते थे। भगवान श्रीकृष्ण ने स्वयं श्रील सनातन गोस्वामी से कहा था कि इस शिला की चार परिक्रमा कर लेने मात्र से उन्हें गोवर्धन की सप्तकोसी परिक्रमा का पुण्य फल प्राप्त होगा। यद्यपि इन गोस्वामियों ने भव्य मन्दिरों का निर्माण कराया, परन्तु वे स्वयं छोटी कुटिया में ही रहकर भजन व लेखन करते थे।वृन्दावन में संतों द्वारा स्थापित भगवान श्रीकृष्ण के विग्रहों में सात ऐसे प्रमुख विग्रह हैं, जो स्वयं प्रकट हैं–श्रीगोविन्ददेवजी, श्रीमदनमोहनजी, श्रीगोपीनाथजी, श्रीजुगलकिशोरजी, श्रीराधारमणजी, श्रीराधाबल्लभजी, और श्रीबांकेबिहारीजी।इनके अतिरिक्त वृन्दावन के प्रमुख मन्दिरों में श्रीप्रभुपाद स्वामी भक्तिवेदान्त सरस्वतीजी द्वारा स्थापित श्रीकृष्णबलराम मन्दिर (इस्कॉन), रंगजी का मन्दिर, श्रीगौरांग महाप्रभु मन्दिर, श्रीजमाईठाकुर मन्दिर, जयपुरिया मन्दिर, पागलबाबा का मन्दिर, लालाबाबू मन्दिर, ब्रह्मचारीजी का मन्दिर, जगन्नाथ मन्दिर, शाहजी का मन्दिर, बनखण्डी महादेव, रसिकबिहारी मन्दिर, श्रीयुगलकिशोरजी का मन्दिर, अष्टसखी मन्दिर, आनन्दीबाई का मन्दिर, भट्टजी का मन्दिर, कलाधारी का मन्दिर, सत्यनारायन मन्दिर व शाहजहांपुर वाला मन्दिर आदि प्रमुख हैं। श्रीकृष्ण के प्रपौत्र ब्रजनाभजी ने इसी वृन्दावन में गोविन्ददेव प्रतिष्ठित किए थे। कहा जाता है कि श्रृंगारवट नामक स्थान पर ग्वालबाल गोचारण के समय विश्राम करते थे। इसी स्थान पर अपनी व्रजयात्रा के समय श्रीनित्यानन्द महाप्रभु पधारे थे।महारास के दर्शन के लिए गोपीवेश में पधारे भगवान शंकर गोपेश्वर महादेव मन्दिर में वंशीवट पर विराजित हैं। ये मन्दिर 5500 वर्ष से भी अधिक पुराना है। ऐसा माना जाता है कि आज भी वृन्दावन में श्रीगोपीश्वर महादेव महारास देख रहे हैं।एक बार शरदपूर्णिमा के दिन यमुना किनारे वंशीवट पर जब महारास में श्रीकृष्ण ने वेणुनाद किया तो कैलास पर्वत पर भगवान शंकर का मन भी श्रीराधाकृष्ण व गोपियों की दिव्यलीला देखने के लिए मचल उठा और वे वृन्दावन की ओर चल पड़े। पार्वतीजी ने बहुत समझाया पर वे नहीं माने और अपने परिवार के साथ वृन्दावन के वंशीवट पर आ गये। पार्वतीजी तो महारास में प्रवेश कर गईं पर गोपियों ने शंकरजी को रोक दिया और कहा–’श्रीकृष्ण के अतिरिक्त अन्य कोई पुरुष महारास में प्रवेश नहीं कर सकता।’ शंकरजी ने गोपियों को कोई उपाय बताने के लिए कहा। तब ललिता सखी ने कहा–’यदि आप महारास देखना चाहते हैं तो गोपी बन जाइए।’ यह सुनकर भगवान शंकर अर्धनारीश्वर से पूरे नारी बन गये। नारी बने शंकरजी ने यमुनाजी से कहा–’पार्वतीजी तो महारास में चली गयीं हैं। हम केवल भस्म लगाना जानते हैं, आप हमारा सोलह श्रृंगार कर दीजिए।’ यमुनाजी ने शंकरजी का श्रृंगार कर दिया और गोपी बने शंकरजी महारास में प्रवेश कर गये और नृत्य करने लगे। नाचते-नाचते शंकरजी का घूंघट हट गया और उनकी जटाएं बिखर गयीं। श्रीकृष्ण ने गोपी बने शंकरजी का हाथ पकड़कर आलिंगन करते हुए कहा–’व्रजभूमि में आपका स्वागत है, महाराज गोपीश्वर !’ भगवान शंकर ने श्रीराधाकृष्ण से वर मांगा कि–’मैं सदैव वृन्दावन में आप दोनों के चरणों में वास करूं।’ यही एक ऐसा मन्दिर है जहां भगवान शिव लहंगा, ओढ़नी, ब्लाउज, नथ, बिन्दी, टीका, कर्णफूल पहने हुए गोपी के रूप में विराजित हैं।ज्ञान गुदड़ी वह स्थान है, जहां जब उद्धवजी श्रीकृष्ण का संदेश लेकर आए तो उद्धवजी का सारा ज्ञान गोपियों की पवित्र प्रेमधारा के सामने बौना बनकर गुदड़ी के रूप में बदल गया। इनके अतिरिक्त अक्रूरधाम, श्रीतुलसी राम दर्शनस्थल, देवरहा बाबा का समाधिस्थल, ब्रह्मकुंड आदि भी महत्वपूर्ण स्थल हैं। वृन्दावन में यमुना के निकट राधाबाग में प्राचीन सिद्धपीठ के रूप में मां कात्यायनी का मन्दिर है। ये व्रज की अधिष्ठात्री देवी हैं। भगवान श्रीकृष्ण को पति रूप में प्राप्त करने के लिए व्रज की गोपियों ने इन्हीं की पूजा यमुनातट पर की थी। भतरोड़बिहारी मन्दिर यज्ञ पत्नियों द्वारा कृष्ण-बलराम को कराये गये भोजन (भात) का स्मृतिचिह्न है।वृन्दावन के सभी स्थलों से श्रीराधा-कृष्ण की कोई-न-कोई लीला जुड़ी हुई है। ऐसी ही एक मधुरलीला श्रीगोरे दाऊजी मन्दिर (श्रीअटलबिहारी मन्दिर) के सम्बन्ध में कही जाती है–अटल वन में भगवान श्रीकृष्ण बलदाऊजी व सखाओं के साथ गाय चराने जाते थे और वहां कदम्ब के वृक्ष के नीचे बैठकर विश्राम करते थे। एक दिन बलदेवजी गाय चराने नहीं आये और सखा भी गाय चराते हुए दूर निकल गये। कदम्ब के वृक्ष के नीचे श्रीकृष्ण अकेले हैं, यह बात श्रीराधाजी की सखियों को पता चल गई। ललिता सखी के कहने पर श्रीराधा ने गोरे बलदाऊजी का भेष धारण किया और श्रीकृष्ण से मिलने पहुंच गयीं। श्रीराधा ने भेष तो बदल लिया पर नाक की नथ उतारना भूल गयीं। जब दाऊजी के भेष में श्रीराधा ने श्रीकृष्ण से कहा–’मेरा इंतजार किये बगैर मुझे छोड़कर वन में आ गये।’ तब श्रीकृष्ण तो श्रीराधा को पहचान गये और उन्होंने गोरे दाऊजी (श्रीराधा) का हाथ पकड़कर कहा–’भैया, कुछ देर तो मेरे पास बैठो।’ पोल खुल जाने के डर से जब किशोरीजी जाने लगीं, तब श्रीकृष्ण ने कहा–’मेरी प्रिया, तुम कहां जाती हो, अब तो इस वन में ही स्थापित हो जाओ और मुझे रोजाना दर्शन देती रहना।’ इस पर राधाजी ने कहा–’आपके बिना इस वन में मैं कैसे रहूंगी, आपको भी यहीं अटल आसन लगाना होगा।’ इस प्रकार इसका अटलबिहारी व गोरे दाऊजी मन्दिर नाम पड़ा।वृन्दावन में जगद्गुरु कृपालुजी महाराज द्वारा स्थापित प्रेम मन्दिरश्रीमद्भागवत का मूर्तिमान स्वरूप है। इसके अतिरिक्त इस्कॉन वृन्दावन में दुनिया के सबसे ऊंचे चन्द्रोदय मंदिर का निर्माण करा रहा है।सघन लता-कुंजों से आच्छादित वृन्दावन का सेवाकुंज/निकुंजवनश्रीहितहरिवंशजी गोस्वामी की साधनाभूमि है। यह वृन्दावन की प्राचीनतम सेवा-स्थलियों में से है। कहा जाता है रात्रि में यहां प्रिया-प्रियतम रासक्रीडा करते हैं। यहां श्रीकृष्ण करुणामयी श्रीराधा की चरण-सेवा करते हुए विराजित हैं। कहा जाता है कि एक रात्रि में रास रचाते-रचाते जब श्रीराधाजी थक गईं, तो श्रीकृष्ण ने श्रीराधा के चरण सेवाकुंज में ही दबाए थे। कहते हैं कि आज भी हर रात्रि श्रीकृष्ण व श्रीराधा की दिव्य रासलीला सेवाकुंज में होती है। रात्रि में यहां कोई मनुष्य तो क्या, पशु-पक्षी भी नहीं ठहरते हैं।ब्रह्म मैं ढूंढ़यो पुरानन गायन, बेद-रिचा सुनि चौगुने चायन।देख्यो सुन्यो कबहूं न कितै वह कैसे सरूप औ कैसे सुभायन।।टेरत हेरत हारि परयो, रसखानि बतायो न लोग-लुगायन।देख्यो, दुर्यो वह कुंज-कुटीर में बैठ्यो पलोटत राधिका-पायन।।धनि श्रीराधिका के चरन।सुभग सीतल अति सुकोमल, कमल के से वरन।।नन्द सुत मन मोदकारी, विरह सागर तरन।दास परमानन्द छिन-छिन, श्याम जिनकी सरन।।सेवाकुंज में ललिताकुंड है। कहते हैं खेल के वक्त ललिता सखी को जब प्यास लगी तो श्रीकृष्ण ने अपनी वंशी से पृथ्वी पर वार करके जल निकाला, जिसे पीकर ललिता सखी ने प्यास बुझाई। उसी जल स्त्रोत का नाम ललिताकुण्ड पड़ गया।वृन्दावन मे निधिवन का अपना ही महत्व है। स्वामी हरिदासजी की अनन्य भक्ति से उनके आराध्य श्रीबांकेबिहारीजी इसी निधिवन में प्रकट हुए। भगवान श्रीकृष्ण यहां श्रीराधा के साथ रास रचाया करते थे। आज भी ऐसा माना जाता है कि श्रीराधा-कृष्ण का रात्रिशयन निधिवन में ही होता है। श्रीराधाकृष्ण के अनन्य भक्तों को रात्रि में कन्हैया की वंशी व नृत्य करती हुई गोपियों के पायल की आवाज आज भी सुनाई देती है। स्वामी हरिदासजी ललिता सखी का अवतार माने जाते हैं अत: यहां वीणावादिनी ललिताजी अपने प्यारे श्यामा-कुंजबिहारी को लाड़ लड़ाती हैं। जब स्वामी हरिदास विभोर होकर संगीत की रागिनी छेड़ते तो उनके आराध्य श्रीराधाकृष्ण उनकी गोद में आकर बैठ जाते थे।एक दिन स्वामीजी ने ऐसा गाया कि निधिवन में एक लता के नीचे से सहसा एक प्रकाशपुंज प्रकट हुआ और एक-दूसरे का हाथ थामे प्रिया-प्रियतम प्रकट हुए। श्रीराधा-कृष्ण की अद्भुत छवि को देखकर स्वामीजी ने कहा–’क्या आपके अद्भुत रूप व सौंदर्य को संसार की नजरें सहन कर पाएंगी?’ स्वामीजी ने भगवान श्रीकृष्ण से कहा–’मैं संत हूं। मैं आपको तो लंगोटी पहना दूंगा, किन्तु श्रीराधारानी को नित्य नए श्रृंगार कहां से करवाऊंगा।’ स्वामीजी की विनती पर प्रिया-प्रियतम एक-दूसरे में समाहित होकर एक रूप हो गये। अर्थात् श्यामा-कुंजबिहारी श्रीबांकेबिहारी के रूप में प्रकट हो गये। ऐसा कहा जाता है कि ठाकुर श्रीबांकेबिहारी की गद्दी पर स्वामीजी को प्रतिदिन बारह स्वर्ण मोहरें रखी हुई मिलती थीं, जिन्हें वे उसी दिन बिहारीजी के भोग लगाने में व्यय कर देते थे।माई री, सहज जोरी प्रगट भई,रंग की गौर श्याम, घन दामिनी जैसें।प्रथम हूँ हुती, अब हूँ, आगैं हूँ रहिहैं, न टरिहैं तैंसें।।एक सुन्दर परकोटे से घिरी यहां की झुकी हुई वृक्षावली मानो तपस्यारत व्रज-साधक ही हैं, जो आज भी तप कर रहे हैं। लताओं के रूप-रंग भी यहां गौर-स्याम की युगल जोड़ी के समान एक ही टहनी में श्याम-पीत रंग के हैं। मध्यभाग में स्वामीजी का समाधिस्थल है।वृन्दावन के यमुनाघाट भी श्रीकृष्ण की किसी-न-किसी लीला से सम्बन्धित हैं। गोविन्दघाट पर गोस्वामी हितहरिवंशजी द्वारा स्थापित व्रज का प्राचीन रासमण्डल है। चीरघाट का कदम्ब का वृक्ष श्रीकृष्ण की चीरहरण लीला का साक्षी है। धीरसमीर घाट श्रीकृष्ण की मधुर वंशी से, केशीघाट केशी वध से, मदनटेर गोचारण लीला से, कालीदहकालियानाग दमन से, वंशीवट श्रीकृष्ण के वेणुवादन से, जगन्नाथ घाटभगवान जगन्नाथ से जुड़ा है। और भी न जाने कितने घाट व स्थल है। कहना होगा वृन्दावन का कण-कण चिन्मय है जो किसी-न-किसी रूप में श्रीकृष्ण से जुड़ा है, अत: वन्दनीय है।सेऊँ श्रीवृन्दाविपिन विलास।जहाँ जुगल मिलि मंगल मूरति, करत निरन्तर बास।।सोलहवीं शती में अनेक संतों-आचार्यों ने इस पवित्र भूमि में रहकर न केवल अपने आराध्य को लाड़ लड़ाया अपितु भक्तिरस को जन-जन तक पहुंचाने के लिए विशाल भक्ति साहित्य की रचना की। इन संतों-आचार्यों के सेव्य विग्रह आज भी श्रीवृन्दावन की दिव्य सम्पदा हैं। श्रीवृन्दावन में आज भी अनेक शान्त एवं एकान्त स्थल हैं (कृष्णरसिक संतजनों की भजन व समाधि स्थलियां, वन-उपवन जहां युगल सरकार की चिन्मयी लीलाएं हुईं, यमुनाजी का पावन पुलिन, आदि) जहां जाकर आज भी मन किसी अलौकिक सुख में डूब जाता है।कई बार मन में ऐसा भाव उठता है, बुद्धि कहती है कि वृन्दावन अब कहां?, गोविन्द, उनका वेणुवादन, कदम्ब-तमाल-करील के सघन कुंज अब कहां? अब तो वृन्दावन कंक्रीट का जंगल है, शानदार आश्रम हैं, डूपलेक्स फ्लैट्स हैं, हर स्थान पर अधिकार की लड़ाई है, देवदूत होने की भयंकर प्रतिस्पर्धा है। अब व्रज ‘व्रज’ नहीं रहा। परन्तु दूसरी ओर व्रजवासियों का अखण्ड विश्वास है–’लाला (श्रीकृष्ण) अभी भी यहीं है, लाली (श्रीराधा) ही श्रीवृन्दावन की धरती बन गयी है, लाला इस धरती को छोड़कर जायेंगे कहां? अक्रूर के साथ जो गये थे वे विष्णु के वैभवशाली चतुर्भुजरूप थे। वह किशोर चपल बालक तो श्रीवृन्दावन में ही रह गया। वह तो वृन्दावन के कण-कण में रचा-बसा है, बस जरूरत है उन चर्मचक्षुओं की जो उन्हें ढूंढ़ सकें।’श्रीकृष्ण ने भी वृन्दावन की प्रशंसा करते हुए कहा है–’मैं गोलोक छोड़कर ब्रज-गोपियों के अनन्य प्रेम के कारण इस क्षेत्र में अवतरित हुआ हूँ। ऐसा दिव्यप्रेम संसार में अन्यत्र कहीं नहीं दिखायी देता।’ वृन्दावन को छोड़कर श्रीकृष्ण एक पग भी बाहर नहीं जाते। ‘वृन्दावनं परितज्य पादमेकं न गच्छति।’ श्रीमद्भागवत के दशम स्कन्ध में रास के प्रसंग में यह सिद्धान्त स्पष्ट है जब श्रीकृष्ण अन्तर्धान हो जाते हैं तब गोपियां असहाय होकर उन्हें पुकारती हैं तो उनके प्राणधन श्रीकृष्ण वहीं प्रकट हो गये और कहने लगे–मेरी प्रेयसी गोपियों, मैं कहीं गया नहीं था, यहीं तुम्हारे मध्य ही था। बस, अदृश्य हो गया था।’ श्रीकृष्ण आज भी वहीं हैं बस, अदृश्य हैं। रोकर अनन्यता से पुकारो तो आज भी प्रकट हैं–सोई लीला श्रीहरि करत आजहू नित्य।भागवान कोई पुरख निरख होत कृतकृत्य।।श्रीगर्ग संहिता के अनुसार पूर्वकाल में शंखासुर दैत्य नैमित्तिक प्रलय के समय सोते हुए ब्रह्मा के पास से वेदों की पोथी चुराकर समुद्र में जा घुसा तब भगवान श्रीहरि ने मत्स्य रूप धारणकर शंखासुर का वध किया। फिर देवताओं के साथ प्रयाग आकर श्रीहरि ने चारों वेद ब्रह्माजी को दिए और प्रयाग को ‘तीर्थराज’ पद पर अभिषिक्त कर दिया। जम्बूद्वीप के सारे तीर्थों ने तीर्थराज प्रयाग की पूजा की। तब नारदजी तीर्थराज प्रयाग के पास जाकर बोले–’तुम्हें सभी मुख्य-मुख्य तीर्थों ने यहां आकर भेंट दी है पर व्रज के वृन्दावनादि तीर्थ यहां नहीं आये हैं, उन्होंने तुम्हारा तिरस्कार किया है।’ तब तीर्थराज प्रयाग भगवान के पास गये और उनसे कहा कि आपने तो मुझे तीर्थराज बनाया पर व्रज के प्रमादी तीर्थों ने मेरा तिरस्कार किया है।भगवान ने कहा–’मैंने तुम्हें धरती के सब तीर्थों का राजा अवश्य बनाया है; किन्तु अपने घर का राजा भी तुम्हें बना दिया हो, ऐसी बात तो नहीं है। फिर तुम तो मेरे घर पर भी अधिकार जमाने की इच्छा रखते हो। मथुरामण्डल मेरा साक्षात् परात्पर धाम है, त्रिलोकी से परे है। उस दिव्यधाम का प्रलयकाल में भी संहार नहीं होता।’ यह सुनकर तीर्थराज प्रयाग का सारा अभिमान गल गया। उन्होंने मथुरा के व्रजमण्डल का पूजन व परिक्रमा की।वृंदावन एक पलक जो रहिये।जन्म जन्म के पाप कटत हैं कृष्ण कृष्ण मुख कहिये।।महाप्रसाद और जल यमुना को तनक तनक भर लइये।सूरदास वैकुंठ मधुपुरी भाग्य बिना कहां पइये।।

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🌹🌳जय श्री राधे कृष्णा जी 🌹by समाजसेवी वनिता कासनियां पंजाब🌳शुभ संध्या वंदना जी🌹🌳🥀🌲🥀🌲🥀#🌲🥀🙏_बिहारी_जी_का_आसन_"🙏🏻🌹.बहुत समय पहले कि बात है बिहारी जी का एक परम प्रिय भक्त था। वह नित्य प्रति बिहारी जी का भजन-कीर्तन करता था।🌳🌲🥀.उसके ह्रदय का ऐसा भाव था कि बिहारी जी नित्य उसके भजन-कीर्तन को सुनने आते थे।.एक दिन स्वप्न में बिहारी जी ने उससे शिकायत करते हुए कहा, तुम नित्य प्रति भजन-कीर्तन करते हो और मैं नित्य उसे सुनने आता भी हूं... 🌹🌳🌲.लेकिन आसन ना होने के कारण मुझे कीर्तन में खड़े रहना पड़ता है, जिस कारण मेरे पांव दुख जाते है, .अब तू ही मुझे मेरे योग्य कोई आसन दे जिस पर बैठ मैं तेरा भजन-कीर्तन सुन सकू।🌲🥀.तब भक्त ने कहा, प्रभु ! स्वर्ण सिंहासन पर मैं आपको बैठा सकूं इतना मुझमें सार्मथ्य नहीं और भूमि पर आपको बैठने के लिए कह नहीं सकता। .यदि कोई ऐसा आसन है जो आपके योग्य है तो वो है मेरे ह्रदय का आसन आप वहीं बैठा किजिये प्रभु।.बिहारी जी ने हंसते हुए कहा, वाह ! मान गया तेरी बुद्धिमत्ता को... 🌲🥀.मैं तुझे ये वचन देता हूं जो भी प्रेम भाव से मेरा भजन-कीर्तन करेगा मैं उसके ह्रदय में विराजित हो जाऊंगा।🌳🌲🥀.ये सत्य भी है और बिहारी जी का कथन भी। .वह ना बैकुंठ में रहते है ना योगियों के योग में और ना ध्यानियों के ध्यान में, वह तो प्रेम भाव से भजन-कीर्तन करने वाले के ह्रदय में रहते है।।🌳.बोलिए श्री बांके बिहारी लाल की जय....🙌🌺

*कालिदास बोले 😗 माते पानी पिला दीजिए बङा पुण्य होगा.*स्त्री बोली 😗 बेटा मैं तुम्हें जानती नहीं. अपना परिचय दो। मैं अवश्य पानी पिला दूंगी।*कालीदास ने कहा 😗 मैं पथिक हूँ, कृपया पानी पिला दें।*स्त्री बोली 😗 तुम पथिक कैसे हो सकते हो, पथिक तो केवल दो ही हैं सूर्य व चन्द्रमा, जो कभी रुकते नहीं हमेशा चलते रहते। तुम इनमें से कौन हो सत्य बताओ।*कालिदास ने कहा 😗 मैं मेहमान हूँ, कृपया पानी पिला दें।*स्त्री बोली 😗 तुम मेहमान कैसे हो सकते हो ? संसार में दो ही मेहमान हैं।पहला धन और दूसरा यौवन। इन्हें जाने में समय नहीं लगता। सत्य बताओ कौन हो तुम ?.(अब तक के सारे तर्क से पराजित हताश तो हो ही चुके थे)*कालिदास बोले 😗 मैं सहनशील हूं। अब आप पानी पिला दें।*स्त्री ने कहा 😗 नहीं, सहनशील तो दो ही हैं। पहली, धरती जो पापी-पुण्यात्मा सबका बोझ सहती है। उसकी छाती चीरकर बीज बो देने से भी अनाज के भंडार देती है, दूसरे पेड़ जिनको पत्थर मारो फिर भी मीठे फल देते हैं। तुम सहनशील नहीं। सच बताओ तुम कौन हो ? (कालिदास लगभग मूर्च्छा की स्थिति में आ गए और तर्क-वितर्क से झल्लाकर बोले)*कालिदास बोले 😗 मैं हठी हूँ ।.*स्त्री बोली 😗 फिर असत्य. हठी तो दो ही हैं- पहला नख और दूसरे केश, कितना भी काटो बार-बार निकल आते हैं। सत्य कहें ब्राह्मण कौन हैं आप ? (पूरी तरह अपमानित और पराजित हो चुके थे)*कालिदास ने कहा 😗 फिर तो मैं मूर्ख ही हूँ ।.*स्त्री ने कहा 😗 नहीं तुम मूर्ख कैसे हो सकते हो। मूर्ख दो ही हैं। पहला राजा जो बिना योग्यता के भी सब पर शासन करता है, और दूसरा दरबारी पंडित जो राजा को प्रसन्न करने के लिए ग़लत बात पर भी तर्क करके उसको सही सिद्ध करने की चेष्टा करता है।(कुछ बोल न सकने की स्थिति में कालिदास वृद्धा के पैर पर गिर पड़े और पानी की याचना में गिड़गिड़ाने लगे)*वृद्धा ने कहा 😗 उठो वत्स ! (आवाज़ सुनकर कालिदास ने ऊपर देखा तो साक्षात माता सरस्वती वहां खड़ी थी, कालिदास पुनः नतमस्तक हो गए)*माता ने कहा 😗 शिक्षा से ज्ञान आता है न कि अहंकार । तूने शिक्षा के बल पर प्राप्त मान और प्रतिष्ठा को ही अपनी उपलब्धि मान लिया और अहंकार कर बैठे इसलिए मुझे तुम्हारे चक्षु खोलने के लिए ये स्वांग करना पड़ा।.कालिदास को अपनी गलती समझ में आ गई और भरपेट पानी पीकर वे आगे चल पड़े।शिक्षा :-विद्वत्ता पर कभी घमण्ड न करें, यही घमण्ड विद्वत्ता को नष्ट कर देता है। दो चीजों को कभी *व्यर्थ* नहीं जाने देना चाहिए.... By समाजसेवी वनिता कासनियां पंजाब. *अन्न के कण को* "और"*आनंद के क्षण को* 🙏Jai Mata Di🙏

जन्माष्टमी श्री कृष्ण जी मुख्य मेनू जन्माष्टमी By वनिता कासनियां पंजाबवार्षिक हिंदू त्योहार जो भगवान कृष्ण के जन्म का जश्न मनाता है भाषा PDF डाउनलोड करेंध्यान रखेंसंपादित करेंकृष्ण जन्माष्टमी, जिसे जन्माष्टमी वा गोकुलाष्टमी के रूप में भी जाना जाता है, एक वार्षिक हिंदू त्योहार है जो विष्णुजी के दशावतारों में से आठवें और चौबीस अवतारों में से बाईसवें अवतार श्रीकृष्ण के जन्म के आनन्दोत्सव के लिये मनाया जाता है।[1] यह हिंदू चंद्रमण वर्षपद के अनुसार, कृष्ण पक्ष (अंधेरे पखवाड़े) के आठवें दिन (अष्टमी) को भाद्रपद में मनाया जाता है । [2] जो ग्रेगोरियन कैलेंडर के अगस्त व सितंबर के साथ अधिव्यापित होता है।[3]जन्माष्टमीभगवान कृष्णआधिकारिक नामश्रीकृष्ण जन्माष्टमीअनुयायीहिन्दू,नेपाली, भारतीय, नेपाली और भारतीय प्रवासीप्रकारहिन्दू धार्मिकउद्देश्यभगवान कृष्ण के आदर्शों को स्मरण करना और ध्यान में लानाउत्सवप्रसाद बाँटना, भजन गाना इत्यादिअनुष्ठानश्रीकृष्ण की झाँकी सजाना व्रत व पूजनआरम्भअति प्राचीनतिथिश्रावण, Krishna, अष्टमीविशेषतासंपादित करेंयह एक महत्वपूर्ण त्योहार है, विशेषकर हिन्दू धर्म की वैष्णव परम्परा में। भागवत पुराण (जैसे रास लीला वा कृष्ण लीला) के अनुसार कृष्ण के जीवन के नृत्य-नाटक की परम्परा, कृष्ण के जन्म के समय मध्यरात्रि में भक्ति गायन, उपवास (व्रत), रात्रि जागरण (रात्रि जागरण), और एक त्योहार (महोत्सव) अगले दिन जन्माष्टमी समारोह का एक भाग हैं। [4]यह मणिपुर, असम, बिहार, पश्चिम बंगाल, ओडिशा, मध्य प्रदेश, राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र, कर्नाटक, केरल, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश तथा भारत के अन्य सभी राज्यों में पाए जाने वाले प्रमुख वैष्णव और निर्सांप्रदायिक समुदायों के साथ विशेष रूप से मथुरा और वृंदावन में मनाया जाता है[4]। कृष्ण जन्माष्टमी के उपरान्त त्योहार नंदोत्सव होता है, जो उस अवसर को मनाता है जब नंद बाबा ने जन्म के सम्मान में समुदाय को उपहार वितरित किए।कृष्ण देवकी और वासुदेव आनकदुंदुभी के पुत्र हैं और उनके जन्मदिन को हिंदुओं द्वारा जन्माष्टमी के रूप में मनाया जाता है, विशेष रूप से गौड़ीय वैष्णववाद परम्परा के रूप में उन्हें भगवान का सर्वोच्च व्यक्तित्व माना जाता है। जन्माष्टमी हिंदू परंपरा के अनुसार तब मनाई जाती है जब माना जाता है कि कृष्ण का जन्म मथुरा में भाद्रपद महीने के आठवें दिन (ग्रेगोरियन कैलेंडर में अगस्त और सितंबर के साथ अधिव्यपित) की आधी रात को हुआ था।[5]कृष्ण का जन्म अराजकता के क्षेत्र में हुआ था। यह एक ऐसा समय था जब उत्पीड़न बड़े पैमाने पर था, स्वतंत्रता से वंचित किया गया था, बुराई सब ओर थी, और जब उनके मामा राजा कंस द्वारा उनके जीवन के लिए संकट था।भगवान कृष्ण की महानतासंपादित करेंकृष्ण जी भगवान विष्णु जी के अवतार हैं, जो तीन लोक के तीन गुणों सतगुण, रजगुण तथा तमोगुण में से सतगुण विभाग के प्रभारी हैं।[6] भगवान का अवतार होने की वजह से कृष्ण जी में जन्म से ही सिद्धियां मौजूद थीं। उनके माता पिता वसुदेव और देवकी जी के विवाह के समय मामा कंस जब अपनी बहन देवकी को ससुराल पहुँचाने जा रहा था तभी आकाशवाणी हुई थी जिसमें बताया गया था कि देवकी का आठवां पुत्र कंस को मारेगा। अर्थात् यह होना पहले से ही निश्चित था अतः वसुदेव और देवकी को जेल में रखने के बावजूद कंस कृष्ण जी को नहीं मार पाया।[6]मथुरा की जेल में जन्म के तुरंत बाद, उनके पिता वसुदेव अानकदुन्दुबी कृष्ण को यमुना पार ले जाते हैं, ताकि माता-पिता का गोकुल में नंद और यशोदा नाम दिया जा सके। जन्माष्टमी पर्व लोगों द्वारा उपवास रखकर, कृष्ण प्रेम के भक्ति गीत गाकर और रात में जागरण करके मनाई जाती है। हालांकि श्रीमद्भगवद्गीता के अनुसार व्रत-उपवास तथा जागरण को शास्त्र विरुद्ध साधना कहा है ।अध्याय 6 का श्लोक 16(भगवान उवाच )न, अति, अश्नतः, तु, योगः, अस्ति, न, च, एकान्तम्, अनश्नतःन, च, अति, स्वप्नशीलस्य, जाग्रतः, न, एव, च, अर्जुन।हे अर्जुन! यह योग न तो बहुत खाने वाले का, न बिलकुल न खाने वाले का, न बहुत शयन करने के स्वभाव वाले का और न सदा जागने वाले का ही सिद्ध होता है || 16 ||[6]मध्यरात्रि के जन्म के बाद, शिशु कृष्ण की मूर्तियों को धोया और पहनाया जाता है, फिर एक पालने में रखा जाता है। इसके बाद भक्त भोजन और मिठाई बांटकर अपना उपवास तोड़ते हैं। महिलाएं अपने घर के दरवाजे और रसोई के बाहर छोटे-छोटे पैरों के निशान बनाती हैं जो अपने घर की ओर चलते हुए, अपने घरों में कृष्ण के आने का प्रतीक माना जाता है।समारोहसंपादित करेंजन्माष्टमी उत्सवकुछ समुदाय कृष्ण की किंवदंतियों को मक्कन चोर (मक्खन चोर) के रूप में मनाते हैं।हिंदू जन्माष्टमी को उपवास, गायन, एक साथ प्रार्थना करने, विशेष भोजन तैयार करने और साझा करने, रात्रि जागरण और कृष्ण या विष्णु मंदिरों में जाकर मनाते हैं। प्रमुख कृष्ण मंदिर 'भागवत पुराण' और 'भगवद गीता' के पाठ का आयोजन करते हैं। कई समुदाय नृत्य-नाटक कार्यक्रम आयोजित करते हैं जिन्हें रास लीला या कृष्ण लीला कहा जाता है। रास लीला की परंपरा विशेष रूप से मथुरा क्षेत्र में, भारत के पूर्वोत्तर राज्यों जैसे मणिपुर और असम में और राजस्थान और गुजरात के कुछ हिस्सों में लोकप्रिय है। यह शौकिया कलाकारों की कई टीमों द्वारा अभिनय किया जाता है, उनके स्थानीय समुदायों द्वारा उत्साहित किया जाता है, और ये नाटक-नृत्य नाटक प्रत्येक जन्माष्टमी से कुछ दिन पहले शुरू होते हैं।[7]महाराष्ट्रसंपादित करेंदही हंडीजन्माष्टमी (महाराष्ट्र में "गोकुलाष्टमी" के रूप में लोकप्रिय) मुंबई, लातूर, नागपुर और पुणे जैसे शहरों में मनाई जाती है। दही हांडी कृष्ण जन्माष्टमी के अगले दिन हर अगस्त/सितंबर में मनाई जाती है। यहां लोग दही हांडी को तोड़ते हैं जो इस त्योहार का एक हिस्सा है। दही हांडी शब्द का शाब्दिक अर्थ है "दही का मिट्टी का बर्तन"। त्योहार को यह लोकप्रिय क्षेत्रीय नाम शिशु कृष्ण की कथा से मिलता है। इसके अनुसार, वह दही और मक्खन जैसे दुग्ध उत्पादों की तलाश और चोरी करते थे और लोग अपनी आपूर्ति को बच्चे की पहुंच से बाहर छिपा देते थे। कृष्ण अपनी खोज में हर तरह के रचनात्मक विचारों को आजमाते थे, जैसे कि अपने दोस्तों के साथ इन ऊँचे लटकते बर्तनों को तोड़ने के लिए मानव पिरामिड बनाना। यह कहानी भारत भर में हिंदू मंदिरों के साथ-साथ साहित्य और नृत्य-नाटक प्रदर्शनों की कई राहतों का विषय है, जो बच्चों की आनंदमय मासूमियत का प्रतीक है, कि प्रेम और जीवन का खेल ईश्वर की अभिव्यक्ति है।[8]महाराष्ट्र और भारत के अन्य पश्चिमी राज्यों में, इस कृष्ण कथा को जन्माष्टमी पर एक सामुदायिक परंपरा के रूप में निभाया जाता है, जहां दही के बर्तनों को ऊंचे डंडे से या किसी इमारत के दूसरे या तीसरे स्तर से लटकी हुई रस्सियों से ऊपर लटका दिया जाता है। वार्षिक परंपरा के अनुसार, "गोविंदा" कहे जाने वाले युवाओं और लड़कों की टीमें इन लटकते हुए बर्तनों के चारों ओर नृत्य और गायन करते हुए जाती हैं, एक दूसरे के ऊपर चढ़ती हैं और एक मानव पिरामिड बनाती हैं, फिर बर्तन को तोड़ती हैं। गिराई गई सामग्री को प्रसाद (उत्सव प्रसाद) के रूप में माना जाता है। यह एक सार्वजनिक तमाशा है, एक सामुदायिक कार्यक्रम के रूप में उत्साहित और स्वागत किया जाता है।समकालीन समय में, कई भारतीय शहर इस वार्षिक हिंदू अनुष्ठान को मनाते हैं। युवा समूह गोविंदा पाठक बनाते हैं, जो विशेष रूप से जन्माष्टमी पर पुरस्कार राशि के लिए एक-दूसरे के साथ प्रतिस्पर्धा करते हैं। इन समूहों को मंडल या हांडी कहा जाता है और वे स्थानीय क्षेत्रों में घूमते हैं, हर अगस्त में अधिक से अधिक बर्तन तोड़ने का प्रयास करते हैं। सामाजिक हस्तियां और मीडिया उत्सव में भाग लेते हैं, जबकि निगम कार्यक्रम के कुछ हिस्सों को प्रायोजित करते हैं। गोविंदा टीमों के लिए नकद और उपहार की पेशकश की जाती है, और टाइम्स ऑफ इंडिया के अनुसार, 2014 में अकेले मुंबई में 4,000 से अधिक हांडी पुरस्कारों से लबरेज थे, और गोविंदा की कई टीमों ने भाग लिया था।[9]गुजरात और राजस्थानसंपादित करेंगुजरात के द्वारका में लोग - जहां माना जाता है कि कृष्ण ने अपना राज्य स्थापित किया था - दही हांडी के समान एक परंपरा के साथ त्योहार मनाते हैं, जिसे माखन हांडी (ताजा मथने वाले मक्खन के साथ बर्तन) कहा जाता है। अन्य लोग मंदिरों में लोक नृत्य करते हैं, भजन गाते हैं, कृष्ण मंदिरों जैसे द्वारकाधीश मंदिर या नाथद्वारा जाते हैं। कच्छ जिले के क्षेत्र में, किसान अपनी बैलगाड़ियों को सजाते हैं और सामूहिक गायन और नृत्य के साथ कृष्ण जुलूस निकालते हैं।वैष्णववाद के पुष्टिमार्ग के विद्वान दयाराम की कार्निवल-शैली और चंचल कविता और रचनाएँ, गुजरात और राजस्थान में जन्माष्टमी के दौरान विशेष रूप से लोकप्रिय हैं।[10]उत्तरी भारतसंपादित करेंजनमाष्टमी उत्सव के अवसर पर रूप धारण किया हुआ बालकजन्माष्टमी उत्तर भारत के ब्रज क्षेत्र में सबसे बड़ा त्योहार है, मथुरा जैसे शहरों में जहां हिंदू परंपरा कहती है कि कृष्ण का जन्म हुआ था, और वृंदावन में जहां वे बड़े हुए थे। उत्तर प्रदेश के इन शहरों में वैष्णव समुदाय, साथ ही अन्य राज्य राजस्थान, दिल्ली, हरियाणा, उत्तराखंड और हिमालयी उत्तर के स्थानों में जन्माष्टमी मनाते हैं। कृष्ण मंदिरों को सजाया जाता है और रोशनी की जाती है, वे दिन में कई आगंतुकों को आकर्षित करते हैं, जबकि कृष्ण भक्त भक्ति कार्यक्रम आयोजित करते हैं और रात्रि जागरण करते हैं।[11]भक्तजन मिठाई बांटते हैं।[12]त्योहार आम तौर पर वर्षा ऋतु में पड़ता है। फसलों से लदे खेतों और ग्रामीण समुदायों के पास खेलने का समय है। उत्तरी राज्यों में, जन्माष्टमी को रासलीला परंपरा के साथ मनाया जाता है, जिसका शाब्दिक अर्थ है "खुशी का खेल (लीला), सार (रस)"। इसे जन्माष्टमी पर एकल या समूह नृत्य और नाटक कार्यक्रमों के रूप में व्यक्त किया जाता है, जिसमें कृष्ण से संबंधित रचनाएं गाई जाती हैं। कृष्ण के बचपन की शरारतें और राधा-कृष्ण के प्रेम प्रसंग विशेष रूप से लोकप्रिय हैं। क्रिश्चियन रॉय और अन्य विद्वानों के अनुसार, ये राधा-कृष्ण प्रेम कहानियां दैवीय सिद्धांत और वास्तविकता के लिए मानव आत्मा की लालसा और प्रेम के लिए हिंदू प्रतीक हैं।[11]जम्मू में, छतों से पतंग उड़ाना कृष्ण जन्माष्टमी पर उत्सव का एक हिस्सा है।पूर्वी और पूर्वोत्तर भारतसंपादित करेंजन्माष्टमी व्यापक रूप से पूर्वी और पूर्वोत्तर भारत के हिंदू वैष्णव समुदायों द्वारा मनाई जाती है। इन क्षेत्रों में कृष्ण जन्माष्टमी को मनाने की व्यापक परंपरा का श्रेय १५वीं और १६वीं शताब्दी के शंकरदेव और चैतन्य महाप्रभु के प्रयासों और शिक्षाओं को जाता है। उन्होंने दार्शनिक विचारों के साथ-साथ हिंदू भगवान कृष्ण को मनाने के लिए प्रदर्शन कला के नए रूप विकसित किए जैसे कि बोर्गेट, अंकिया नाट, सत्त्रिया और भक्ति योग अब पश्चिम बंगाल और असम में लोकप्रिय हैं। आगे पूर्व में, मणिपुर के लोगों ने मणिपुरी नृत्य रूप विकसित किया, एक शास्त्रीय नृत्य रूप जो अपने हिंदू वैष्णववाद विषयों के लिए जाना जाता है, और जिसमें सत्त्रिया की तरह रासलीला नामक राधा-कृष्ण की प्रेम-प्रेरित नृत्य नाटक कला शामिल है। ये नृत्य नाट्य कलाएं इन क्षेत्रों में जन्माष्टमी परंपरा का एक हिस्सा हैं, और सभी शास्त्रीय भारतीय नृत्यों के साथ, प्राचीन हिंदू संस्कृत पाठ नाट्य शास्त्र में प्रासंगिक जड़ें हैं, लेकिन भारत और दक्षिण पूर्व एशिया के बीच संस्कृति संलयन से प्रभावित हैं।[13]जन्माष्टमी पर, माता-पिता अपने बच्चों को कृष्ण की किंवदंतियों, जैसे कि गोपियों और कृष्ण के पात्रों के रूप में तैयार करते हैं। मंदिरों और सामुदायिक केंद्रों को क्षेत्रीय फूलों और पत्तियों से सजाया जाता है, जबकि समूह भागवत पुराण और भगवत गीता के दसवें अध्याय का पाठ करते या सुनते हैं।जन्माष्टमी मणिपुर में उपवास, सतर्कता, शास्त्रों के पाठ और कृष्ण प्रार्थना के साथ मनाया जाने वाला एक प्रमुख त्योहार है। मथुरा और वृंदावन में जन्माष्टमी के दौरान रासलीला करने वाले नर्तक एक उल्लेखनीय वार्षिक परंपरा है। मीतेई वैष्णव समुदाय में बच्चे लिकोल सन्नाबागेम खेलते हैं।[13]ओड़िशा और पश्चिम बंगालसंपादित करेंपूर्वी राज्य ओड़िशा में, विशेष रूप से पुरी के आसपास के क्षेत्र और पश्चिम बंगाल के नबद्वीप में, त्योहार को श्री कृष्ण जयंती या बस श्री जयंती के रूप में भी जाना जाता है। लोग आधी रात तक उपवास और पूजा कर जन्माष्टमी मनाते हैं। भागवत पुराण कृष्ण के जीवन को समर्पित एक खंड, १०वें अध्याय से पढ़ा जाता है। अगले दिन को "नंदा उत्सव" या कृष्ण के पालक माता-पिता नंदा और यशोदा का खुशी का उत्सव कहा जाता है। जन्माष्टमी के पूरे दिन भक्त उपवास रखते हैं। वे अपने अभिषेक समारोह के दौरान गंगा स्नान राधा माधव से पानी लाते हैं। आधी रात को छोटे राधा माधव देवताओं के लिए एक भव्य अभिषेक किया जाता है, जबकि 400 से अधिक वस्तुओं का भोजन (भोग) भक्ति के साथ उनके प्रभु को अर्पित किया जाता है।[14]दक्षिण भारतसंपादित करेंगोकुला अष्टमी (जन्माष्टमी या श्री कृष्ण जयंती) कृष्ण का जन्मदिन मनाती है। गोकुलाष्टमी दक्षिण भारत में बहुत उत्साह के साथ मनाई जाती है। [३९] केरल में, लोग मलयालम कैलेंडर के अनुसार सितंबर को मनाते हैं। तमिलनाडु में, लोग फर्श को कोलम (चावल के घोल से तैयार सजावटी पैटर्न) से सजाते हैं। गीता गोविंदम और ऐसे ही अन्य भक्ति गीत कृष्ण की स्तुति में गाए जाते हैं। फिर वे घर की दहलीज से पूजा कक्ष तक कृष्ण के पैरों के निशान खींचते हैं, जो घर में कृष्ण के आगमन को दर्शाता है। भगवद्गीता का पाठ भी एक लोकप्रिय प्रथा है। कृष्ण को चढ़ाए जाने वाले प्रसाद में फल, पान और मक्खन शामिल हैं। कृष्ण की पसंदीदा मानी जाने वाली सेवइयां बड़ी सावधानी से तैयार की जाती हैं। उनमें से सबसे महत्वपूर्ण हैं सीदाई, मीठी सीदाई, वेरकादलाई उरुंडई। यह त्योहार शाम को मनाया जाता है क्योंकि कृष्ण का जन्म मध्यरात्रि में हुआ था। ज्यादातर लोग इस दिन सख्त उपवास रखते हैं और आधी रात की पूजा के बाद ही भोजन करते हैं।आंध्र प्रदेश में, श्लोकों और भक्ति गीतों का पाठ इस त्योहार की विशेषता है। इस त्यौहार की एक और अनूठी विशेषता यह है कि युवा लड़के कृष्ण के रूप में तैयार होते हैं और वे पड़ोसियों और दोस्तों से मिलते हैं। विभिन्न प्रकार के फल और मिठाइयाँ सबसे पहले कृष्ण को अर्पित की जाती हैं और पूजा के बाद इन मिठाइयों को आगंतुकों के बीच वितरित किया जाता है। आंध्र प्रदेश के लोग भी उपवास रखते हैं। इस दिन गोकुलनंदन चढ़ाने के लिए तरह-तरह की मिठाइयां बनाई जाती हैं। कृष्ण को प्रसाद बनाने के लिए दूध और दही के साथ खाने की चीजें तैयार की जाती हैं। राज्य के कुछ मंदिरों में कृष्ण के नाम का आनंदपूर्वक जप होता है। कृष्ण को समर्पित मंदिरों की संख्या कम है। इसका कारण यह है कि लोगों ने मूर्तियों के बजाय चित्रों के माध्यम से उनकी पूजा की जाती है।कृष्ण को समर्पित लोकप्रिय दक्षिण भारतीय मंदिर हैं, तिरुवरुर जिले के मन्नारगुडी में राजगोपालस्वामी मंदिर, कांचीपुरम में पांडवधूथर मंदिर, उडुपी में श्री कृष्ण मंदिर और गुरुवायुर में कृष्ण मंदिर विष्णु के कृष्ण अवतार की स्मृति को समर्पित हैं। किंवदंती कहती है कि गुरुवायुर में स्थापित श्री कृष्ण की मूर्ति द्वारका की है, जिसके बारे में माना जाता है कि यह समुद्र में डूबी हुई थी।[14]भारत के बाहरसंपादित करेंनेपालसंपादित करेंनेपाल की लगभग अस्सी प्रतिशत आबादी खुद को हिंदू के रूप में पहचानती है और कृष्ण जन्माष्टमी मनाती है। वे आधी रात तक उपवास करके जन्माष्टमी मनाते हैं। भक्त भगवद गीता का पाठ करते हैं और भजन और कीर्तन करते हैं। कृष्ण के मंदिरों को सजाया जाता है। दुकानों, पोस्टरों और घरों में कृष्ण के रूपांकन हैं।[15]बांग्लादेशसंपादित करेंजन्माष्टमी बांग्लादेश में एक राष्ट्रीय अवकाश है। जन्माष्टमी पर, बांग्लादेश के राष्ट्रीय मंदिर, ढाकेश्वरी मंदिर ढाका से एक जुलूस शुरू होता है, और फिर पुराने ढाका की सड़कों से आगे बढ़ता है। जुलूस 1902 का है, लेकिन 1948 में रोक दिया गया था। जुलूस 1989 में फिर से शुरू किया गया था।[16]फ़िजीसंपादित करेंफिजी में कम से कम एक चौथाई आबादी हिंदू धर्म का पालन करती है, और यह अवकाश फिजी में तब से मनाया जाता है जब से पहले भारतीय गिरमिटिया मजदूर वहां पहुंचे थे। फिजी में जन्माष्टमी को "कृष्णा अष्टमी" के रूप में जाना जाता है। फ़िजी में अधिकांश हिंदुओं के पूर्वज उत्तर प्रदेश, बिहार और तमिलनाडु से उत्पन्न हुए हैं, जिससे यह उनके लिए विशेष रूप से महत्वपूर्ण त्योहार है। फिजी का जन्माष्टमी उत्सव इस मायने में अनोखा है कि वे आठ दिनों तक चलते हैं, जो आठवें दिन तक चलता है, जिस दिन कृष्ण का जन्म हुआ था। इन आठ दिनों के दौरान, हिंदू घरों और मंदिरों में अपनी 'मंडलियों' या भक्ति समूहों के साथ शाम और रात में इकट्ठा होते हैं, और भागवत पुराण का पाठ करते हैं, कृष्ण के लिए भक्ति गीत गाते हैं, और प्रसाद वितरित करते हैं।[17]रीयूनियनफ्रांसीसी द्वीप रीयूनियन के मालबारों में, कैथोलिक और हिंदू धर्म का एक समन्वय विकसित हो सकता है। जन्माष्टमी को ईसा मसीह की जन्म तिथि माना जाता है।[17]अन्यएरिज़ोना, संयुक्त राज्य अमेरिका में, गवर्नर जेनेट नेपोलिटानो इस्कॉन को स्वीकार करते हुए जन्माष्टमी पर संदेश देने वाले पहले अमेरिकी नेता थे। यह त्योहार कैरिबियन में गुयाना, त्रिनिदाद और टोबैगो, जमैका और पूर्व ब्रिटिश उपनिवेश फिजी के साथ-साथ सूरीनाम के पूर्व डच उपनिवेश में हिंदुओं द्वारा व्यापक रूप से मनाया जाता है। इन देशों में बहुत से हिंदू तमिलनाडु, उत्तर प्रदेश और बिहार से आते हैं; तमिलनाडु, उत्तर प्रदेश, बिहार, बंगाल और उड़ीसा के गिरमिटिया प्रवासियों

जन्माष्टमी जन्माष्टमी जय श्री कृष्ण जी jaमुख्य मेनू खोलें खोजें जन्माष्टमी By वनिता कासनियां पंजाब वार्षिक हिंदू त्योहार जो भगवान कृष्ण के जन्म का जश्न मनाता है भाषा PDF डाउनलोड करें ध्यान रखें संपादित करें कृष्ण जन्माष्टमी ,  जिसे  जन्माष्टमी  वा  गोकुलाष्टमी  के रूप में भी जाना जाता है, एक वार्षिक हिंदू त्योहार है जो  विष्णुजी  के दशावतारों में से आठवें और चौबीस अवतारों में से बाईसवें अवतार श्रीकृष्ण के जन्म के आनन्दोत्सव के लिये मनाया जाता है। [1]  यह हिंदू चंद्रमण वर्षपद के अनुसार, कृष्ण पक्ष (अंधेरे पखवाड़े) के आठवें दिन (अष्टमी) को  भाद्रपद  में मनाया जाता है ।  [2]  जो  ग्रेगोरियन कैलेंडर  के अगस्त व सितंबर के साथ अधिव्यापित होता है। [3] जन्माष्टमी भगवान कृष्ण आधिकारिक नाम श्रीकृष्ण जन्माष्टमी अनुयायी हिन्दू , नेपाली ,  भारतीय , नेपाली और भारतीय प्रवासी प्रकार हिन्दू धार्मिक उद्देश्य भगवान कृष्ण के आदर्शों को स्मरण करना और ध्यान में लाना उत्सव प्रसाद बाँटना, भजन गाना इत्यादि अनुष्ठान श्रीकृष्ण ...