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. "मीरा चरित" (पोस्ट-033)By समाजसेवी वनिता कासनियां पंजाब उदयकुँवर तो मीरा का भजन सुनकर और क्रोधित हो उठी -"अरे, राणाजी विक्रमादित्य बाव जी हुकम भोजराज नहीं हैं जो विष के घूँट भीतर ही भीतर पीकर सूख गये। एक दिन भी आपने मेरे भाई को सुख से नहीं रहने दिया। जब से आपने इस घर में पाँव रखा है हमारे घराने की लाज के झंडे फहराती रही हो। अरे, अपने माँ-बाप को ही कह देती कि किसी बाबा को ही ब्याह देते। मेरे भीम और अर्जुन जैसे वीर भाई तो निश्वास छोड़-छोड़ कर न मरते।" फिर उदयकुँवर हाथ जोड़ कर बोली - "अब तो देखने को बस, ये दो भाई रह गये हैं। आपके हाथ जोडूँ लक्ष्मी ! इन्हें दु:खी न करो, अपने ताँगड़े तम्बूरे लेकर घर में बैठो, हमें मत राँधो।" मीरा ने धैर्य से सब आरोप सुने और किसी का भी उत्तर देना आवश्यक न समझा। बल्कि स्वयं की भजन में स्थिति और भक्ति में दृढ़ रहने के संकल्प को बताते हुये मीरा ने फिर तानपुरे पर उँगली फेरी..........बरजी मैं काहू की नाहिं रहूँ।सुण री सखी तुम चेतन होय के मन की बात कहूँ॥साधु संगति कर हरि सुख दलेऊँ जग सूँ दूर रहूँ।तन मन मेरो सब ही जावौ भल मेरो सीस लहू॥मन मेरो लागो सुमिरन सेती सब का बोल सहूँ।मीरा के प्रभु हरि अविनासी सतगुरू चरण गहूँ॥ तुनक करके उदयकुँवर बाईसा चली गईं। राणाजी ने बहिन को समझाया - "गिरधर गोपाल की मूर्ति ही क्यों न चुरा ली जाये। सब अनर्थों की जड़ यही बला ही तो है।" दूसरे दिन सचमुच ही मीरा ने देखा कि ठाकुर जी का सिहांसन खाली पड़ा है तो उसका कलेजा ही बैठ गया। कहते हैं न गिलहरी की दौड़ पीपल तक ! मीरा किसको कहे और क्या ? उसने तानपुरा उठाया और रूँधे कण्ठ से वाणी फूट पड़ी ......... म्हाँरी सुध ज्यूँ जाणो त्यूँ लीजो।पल पल ऊभी पंथ निहारूँ दरसन म्हाँने दीजो।मैं तो हूँ बहु औगुणवाली औगुण सब हर लीजो॥मैं तो दासी चरणकँवल की मिल बिछड़न मत कीजो।मीरा के प्रभु गिरधर नागर हरि चरणाँ चित दीजो॥(ऊभी -अर्थात किसी की प्रतीक्षा में खड़े रहना) झर-झर आँसूओं से मीरा के वस्त्र भीग रहे थे। दासियाँ इधर-उधर खड़ी आँसू बहाती विवशता से हाथ मल रही थीं। मीरा का गान न रूका। एक के बाद एक विरह का पद मीरा गाती जा रही है - आँसूओं की तो मानों बाढ़ ही आ गई हो। तभी मिथुला ने उतावले स्वर में कहा - "बाईसा हुकम, बाईसा हुकम !" मीरा की आकुल दृष्टि मिथुला की ओर उठी तो उसने सिंहासन की ओर संकेत किया। उस ओर देखते ही हर्ष के मारे मीरा ने सिंहासन से उठाकर गिरधर के विग्रह को ह्रदय से लगा लिया। आँसुओं से गिरधर को अभिषिक्त करती हुई कहने लगी- "मेरे नाथ ! मेरे स्वामी ! मुझ दुखिया के एकमात्र आधार ! मुझे छोड़कर कहाँ चले गये थे आप ? रूँधे हुये कण्ठ से वह ठाकुर को उलाहना देते न थक रही थी......मैं तो थाँरे भजन भरोसे अविनासी।तीरथ बरत तो कुछ नहीं कीणो, बन फिरे है उदासी॥जंतर मंतर कुछ नहीं जाणूँ, वेद पढ़ी नहीं कासी॥मीरा के प्रभु गिरधर नागर, भई चरण की दासी॥ - पुस्तक- "मीरा चरित" लेखिका:- By समाजसेवी वनिता कासनियां पंजाब ~~~०~~~ "जय जय श्री राधे"************************************************* "बाल वनिता महिला आश्रम की सभी धार्मिक, आध्यात्मिक एवं धारावाहिक पोस्टों के लिये हमारे पेज से जुड़े रहें तथा अपने सभी भगवत्प्रेमी मित्रों को भी आमंत्रित करें👇https://www.facebook.com

. "मीरा चरित" (पोस्ट-033)
By समाजसेवी वनिता कासनियां पंजाब

          उदयकुँवर तो मीरा का भजन सुनकर और क्रोधित हो उठी -"अरे, राणाजी विक्रमादित्य बाव जी हुकम भोजराज नहीं हैं जो विष के घूँट भीतर ही भीतर पीकर सूख गये। एक दिन भी आपने मेरे भाई को सुख से नहीं रहने दिया। जब से आपने इस घर में पाँव रखा है हमारे घराने की लाज के झंडे फहराती रही हो। अरे, अपने माँ-बाप को ही कह देती कि किसी बाबा को ही ब्याह देते। मेरे भीम और अर्जुन जैसे वीर भाई तो निश्वास छोड़-छोड़ कर न मरते।" फिर उदयकुँवर हाथ जोड़ कर बोली - "अब तो देखने को बस, ये दो भाई रह गये हैं। आपके हाथ जोडूँ लक्ष्मी ! इन्हें दु:खी न करो, अपने ताँगड़े तम्बूरे लेकर घर में बैठो, हमें मत राँधो।"
          मीरा ने धैर्य से सब आरोप सुने और किसी का भी उत्तर देना आवश्यक न समझा। बल्कि स्वयं की भजन में स्थिति और भक्ति में दृढ़ रहने के संकल्प को बताते हुये मीरा ने फिर तानपुरे पर उँगली फेरी..........

बरजी मैं काहू की नाहिं रहूँ।
सुण री सखी तुम चेतन होय के मन की बात कहूँ॥
साधु संगति कर हरि सुख दलेऊँ जग सूँ दूर रहूँ।
तन मन मेरो सब ही जावौ भल मेरो सीस लहू॥
मन मेरो लागो सुमिरन सेती सब का बोल सहूँ।
मीरा के प्रभु हरि अविनासी सतगुरू चरण गहूँ॥

          तुनक करके उदयकुँवर बाईसा चली गईं। राणाजी ने बहिन को समझाया - "गिरधर गोपाल की मूर्ति ही क्यों न चुरा ली जाये। सब अनर्थों की जड़ यही बला ही तो है।"
          दूसरे दिन सचमुच ही मीरा ने देखा कि ठाकुर जी का सिहांसन खाली पड़ा है तो उसका कलेजा ही बैठ गया। कहते हैं न गिलहरी की दौड़ पीपल तक ! मीरा किसको कहे और क्या ? उसने तानपुरा उठाया और रूँधे कण्ठ से वाणी फूट पड़ी ......... 

म्हाँरी सुध ज्यूँ जाणो त्यूँ लीजो।
पल पल ऊभी पंथ निहारूँ दरसन म्हाँने दीजो।
मैं तो हूँ बहु औगुणवाली औगुण सब हर लीजो॥
मैं तो दासी चरणकँवल की मिल बिछड़न मत कीजो।
मीरा के प्रभु गिरधर नागर हरि चरणाँ चित दीजो॥
(ऊभी -अर्थात किसी की प्रतीक्षा में खड़े रहना)

          झर-झर आँसूओं से मीरा के वस्त्र भीग रहे थे। दासियाँ इधर-उधर खड़ी आँसू बहाती विवशता से हाथ मल रही थीं। मीरा का गान न रूका। एक के बाद एक विरह का पद मीरा गाती जा रही है - आँसूओं की तो मानों बाढ़ ही आ गई हो। तभी मिथुला ने उतावले स्वर में कहा - "बाईसा हुकम, बाईसा हुकम !"
          मीरा की आकुल दृष्टि मिथुला की ओर उठी तो उसने सिंहासन की ओर संकेत किया। उस ओर देखते ही हर्ष के मारे मीरा ने सिंहासन से उठाकर गिरधर के विग्रह को ह्रदय से लगा लिया। आँसुओं से गिरधर को अभिषिक्त करती हुई कहने लगी- "मेरे नाथ ! मेरे स्वामी ! मुझ दुखिया के एकमात्र आधार ! मुझे छोड़कर कहाँ चले गये थे आप ? रूँधे हुये कण्ठ से वह ठाकुर को उलाहना देते न थक रही थी......

मैं तो थाँरे भजन भरोसे अविनासी।
तीरथ बरत तो कुछ नहीं कीणो, बन फिरे है उदासी॥
जंतर मंतर कुछ नहीं जाणूँ, वेद पढ़ी नहीं कासी॥
मीरा के प्रभु गिरधर नागर, भई चरण की दासी॥
                                              - पुस्तक- "मीरा चरित"
              लेखिका:- By समाजसेवी वनिता कासनियां पंजाब
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                       "जय जय श्री राधे"
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