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श्रीराधाजी किनकी अवतार हैं?By समाजसेवी वनिता कासनियां पंजाबसबसे पहले जवाब दिया गया: राधा जी किसकी अवतार थीं?प्रश्नकर्ता जी, “त्वन्मुखे घृतशर्करा:” (आपके मुख मे घी-शक्कर)धन्यवाद उत्तम प्रश्न अनुरोध हेतु।“परमानन्दकन्द लीलापुरूषोत्तम श्रीकृष्ण ने एक बार देखा कि श्रीवृषभानुनन्दिनी श्रीराधिकारानी के हाथ मे एक ताज़ी चोट है , पूछने लगे- “यह चोट कब लगी?” कैसे लगी? कहॉं लगी?श्रीराधा ने हँसकर कहा:-“यह तो महीनों से है!”श्रीकृष्ण ने कहा :-“ यह तो ताज़ी है?”श्रीराधा ने कहा:- “इस पर आने वाली पपड़ी निकाल देती हुँ , इस प्रकार इसे ताज़ी रखती हुँ ।”श्रीकृष्ण ने कहा:- क्यों?श्रीराधा ने कहा:- “यह घाव बड़ा सुखद है, यह तुम्हारे नख लगने से हुआ है,तुम्हारा स्मरण दिलाया करता है ,इसलिये मै कभी इसे सुखने नही देती !”“ प्रियतम का दिया दु:ख भी सुखदायक होता है,इसीलिये कोई कष्ट,अभाव,चिन्तित नही करती, क्योंकि वह उसे प्रियतम का दिया दिखता है।”“एक बार श्यामसुन्दर, श्रीराधा के साथ बैठे थे, और वंशी बजा रहे थे , उनके मन मे इच्छा हुई कि प्रिया जी का वंशी वादन सुनना चाहिये ,पर यह बात कहें कैसे? एक उपाय सोच लिया , जान-बूझकर एक तान बजाने मे भूल कर दी , प्रियाजी से नही रहा गया,और उन्होंने उन्हें स्वयं बजाकर बतला दिया। इस प्रकार श्रीकृष्ण को अपने संगीत से अधिक आनन्द श्रीराधिकारानी के संगीत मे आता है।”“एक बार गोलोक में बडे़- बडे़ देवता , श्रीकृष्ण का दर्शन करने आये।श्रीकृष्ण सो रहे थे , और उनके रोम रोम से “राधा-राधा” निकल रहा था,श्रीराधा ने यह देखा तो सोचा- इतना अपार प्रेम है इनका मुझसे!वे “कृष्ण -कृष्ण” कहती हुई प्रेमावेश मे मूर्छित हो गयीं। श्रीकृष्ण जागे , और उन्होंने देखा कि प्रियाजी के रोम -रोम से कृष्ण नाम निकल रहा है तो उन्हें अङ्क मे ले लिया और “राधे -राधे” बोलते मूर्छित हो गये , प्रेम मे।यह क्रम देर तक चलता रहा, एक चैतन्य हो,और दूसरे का प्रेम देखे तो मूर्छित हो जाये, दूसरा चैतन्य हो तो उसकी भी वही दशा हो।जब बहुत देर हुई तो श्रीराधिकारानी की परमसखी ललिता जी निकुञ्ज मे आयी ,उन्होंने यह अवस्था देखी तो चकित रह गयीं -“अङ्कस्थितेऽपि दयिते किमपि प्रलापम्।”संयोग मे वियोग का यह अद्भुत संवेदन!तात्पर्य है कि जिसे प्रेम प्राप्त होता है , उसे एकाङ्गी, अथवा वियोगात्मक-संयोगात्मक प्रेम नही मिलता। प्रेम का सामरस्य, सामञ्जस्य,ऐकरस्य, प्रेमी-प्रियतम दोनो के एक हुये बिना नही होता।ये प्रश्न क्या पूछा है ,ये उत्तर क्या लिख रहा है यही सोच रहे होंगें आप !अरे भई ! श्रीराधा जी से संबंधित प्रश्न हो और मै उनके प्रियतम और उनके प्रेम का कुछ भी वर्णन ना करूँ ? चलिये अब-मूल प्रश्न :- श्रीराधा जी किनकी अवतार है?पहले ये जान लेते है श्रीकृष्ण कौन है?कृष्ण:-“कृष्” भूवाचक है, भू माने सत्ता है, सत्ता माने भाव है , भाव माने स्थायी भाव है। और वह सत्ता महासत्तारूप है, जिसके बिना सब असत् है, उसी स्वप्रकाश सत् से सबकी सत्ता है, वही “कृष्ण “है। इसमें “ ण” कारनिर्वृति या आनन्द का द्योतक है वही श्री राधा है“आराधनं राधा” आराधना ही राधा है, श्री शब्द परमतत्त्व श्रीकृष्ण हेतु है।अवतार:-अव+तृ+ घञ्= अवतार।अवतार का अर्थ अवरोह अथवा उदय है।दार्शनिक धरातल पर निर्गुण का सगुण होना ,निराकार का साकार होना,अप्रमेय का प्रमाणगोचर होना, इन्द्रियातीत का इन्द्रियगोचर होना, “अवतार” है।उदाहरणार्थ:- जय -विजय द्वारा सनकादि ऋषियों को जानबूझकर क्रोधित कर उनसे शाप लेना।भगवान के संकल्प मात्र से अधर्मियों का नाश हो जाता है , फिर भगवान अवतार क्यों लेते है?ऐसे दुष्कृती ,जिन्होंने भगवान् के लिये ही दुष्कृत किया जानबूझकर ,ऐसे कौन? जय-विजय!उनके लिये तो अवतार की ही आवश्यकता थी।जय-विजय ,भगवान के भक्त थे, उन्होंने ताड़ लिया कि “भगवान के मन मे युद्ध चिकीर्षा (युद्ध करने की इच्छा ) है! परन्तु इनसे लडे़गा कौन ?यह माया तो उनकी ऑंखों के सामने ठहरती ही नही ,विलज्जित होकर, दूर से ही भाग जाती है, फिर भी अज्ञजन उस माया से ही विमोहित होकर ,“यह मै हुँ , यह मेरा है!” इस प्रकार अनर्गल प्रलाप करते रहते है!)माया तो प्रभु के सामने खड़ी होने मे शर्माती है , वो इनसे लडे़गी कैसे?और जितने भी दैत्य -दानव है वे तो इसी माया के बच्चे है , जब माया ही इनके सामने नही खड़ी हो सकती तो माया के बच्चे क्या लड़ेंगे ?प्रभु की युद्ध चिकीर्षा हमारे बिना और कौन पूरा कर सकता है?लेकिन ये तो हमारे नाथ- स्वामी है!इनके साथ कैसे युद्ध करेंगें?असुर बनकर ही युद्ध कर सकेंगें।सनकादि योगीश्वर दर्शन करने जा रहे थे, उन्होंने रोक दिया ,कहा:- बाबाजी खड़े रहिये (बाबाजी कहने का कारण :- इनकी उम्र बहुत अधिक है ,दिखते बस बालस्वरूप है)बाबाजी ने डाँटते हुये कहा:- भगवान् विष्णु सर्वान्तरआत्मा है, उनका दर्शन नही करने देता। हमें जाने से रोकता है, उन्हें छिपाता है।जाओ असुर हो जाओ।इस प्रकार जय-विजय ने “आ-बैल मुझे मार”की लोकोक्ति को चरितार्थ करते हुये जानबूझकर शाप ले लिया , क्योंकि बाबाजी को रोकने का पाप, भगवान की युद्ध चिकीर्षाको पूर्ण करने की भावना से ही किया था।इस प्रकार स्वयं सुकृती होते हुये भी , भगवान के लीला-परिकर होते हुये भी केवल भगवान की लीला को साङ्गोपाङ्ग बनाने के लिये दुष्कृत करते है,उन दुष्कृतों के उद्धार के लिये भगवान का अवतार होता है।१.साधु परित्राण २. धर्मसंस्थापन ३. और दुष्कृतियों का विनाश ।यह तीनों कार्य भगवान अवतार लेकर करते है।और जब भी भगवान विष्णु(नारायण) अवतार लेते है, तो उनके सङ्ग उनकी नारायणी (लक्ष्मीजी) भी अवतार लेती है।तो अंतत:प्रश्नकर्ता जी आपका उत्तर यह रहा।“श्रीराधाजी ,भगवन् नारायण की नारायणी- श्रीलक्ष्मीजी का अवतार है।”एक उत्तर पर इनबॉक्स मे एक महिला ने (बहिन/दीदी इसलिये नही कहा क्योंकि मैंने महिला को दीदी,बहिन कहना त्याग दिया है, क्योंकि यदि कहो तो समय आने पर भाई होने का दायित्व निभाना पड़ेगा जो मै नही कर सकता , + उनके मन मे आपके चरित्र की छवि क्या है? वो आपको किस सम्बन्ध की दृष्टि से देखती है ये तो नारायण जाने)साथ ही आप यह भी नही जान सकते कि वो अकाउण्ट कोई वास्तविक महिला उपयोग कर रही है? या कोई पुरूष?हॉं तो उन्होने पूछा था कि प्रेम और काम मे क्या अन्तर है? उसका उत्तर यहॉं बता रहा हुंप्रेम और काम सदैव निकट निकट रहते है, इनकी पहचान करना संसारी व्यक्ति के लिये बहुत कठिन है,एक परमविद्वान कहते थे कि “प्रेम और काम मे बाल बराबर अन्तर है!”प्रेम का मार्ग है :- प्रियतम को सुख पहुँचाना औरकाम का मार्ग है:- स्वयं सुख का उपभोग करना।क्रिया दोनो मे एक समान ही होती है। इतनी सार बात है यही समझ लीजिये।और हॉं एक प्रश्न और पूछा था कि सौपाधिक प्रेम क्या है?“कामवासना की पूर्ति तक ही रहने वाले प्रेम को सौपाधिक प्रेम कहते है।”उन महिला से अनुरोध है कृपया मुझे इनबॉक्स न करे। मुझे ऑउट ऑफ़ द बॉक्स ही रहने दे।धन्यवाद , अन्त तक समय देकर पढ़ने हेतु ।😊🙏🏻प्रणाम

प्रश्नकर्ता जी, “त्वन्मुखे घृतशर्करा:” (आपके मुख मे घी-शक्कर)

धन्यवाद उत्तम प्रश्न अनुरोध हेतु।

“परमानन्दकन्द लीलापुरूषोत्तम श्रीकृष्ण ने एक बार देखा कि श्रीवृषभानुनन्दिनी श्रीराधिकारानी के हाथ मे एक ताज़ी चोट है , पूछने लगे- “यह चोट कब लगी?” कैसे लगी? कहॉं लगी?

श्रीराधा ने हँसकर कहा:-“यह तो महीनों से है!”

श्रीकृष्ण ने कहा :-“ यह तो ताज़ी है?”

श्रीराधा ने कहा:- “इस पर आने वाली पपड़ी निकाल देती हुँ , इस प्रकार इसे ताज़ी रखती हुँ ।”

श्रीकृष्ण ने कहा:- क्यों?

श्रीराधा ने कहा:- “यह घाव बड़ा सुखद है, यह तुम्हारे नख लगने से हुआ है,तुम्हारा स्मरण दिलाया करता है ,इसलिये मै कभी इसे सुखने नही देती !”

“ प्रियतम का दिया दु:ख भी सुखदायक होता है,इसीलिये कोई कष्ट,अभाव,चिन्तित नही करती, क्योंकि वह उसे प्रियतम का दिया दिखता है।”

“एक बार श्यामसुन्दर, श्रीराधा के साथ बैठे थे, और वंशी बजा रहे थे , उनके मन मे इच्छा हुई कि प्रिया जी का वंशी वादन सुनना चाहिये ,पर यह बात कहें कैसे? एक उपाय सोच लिया , जान-बूझकर एक तान बजाने मे भूल कर दी , प्रियाजी से नही रहा गया,और उन्होंने उन्हें स्वयं बजाकर बतला दिया। इस प्रकार श्रीकृष्ण को अपने संगीत से अधिक आनन्द श्रीराधिकारानी के संगीत मे आता है।”

“एक बार गोलोक में बडे़- बडे़ देवता , श्रीकृष्ण का दर्शन करने आये।

श्रीकृष्ण सो रहे थे , और उनके रोम रोम से “राधा-राधा” निकल रहा था,

श्रीराधा ने यह देखा तो सोचा- इतना अपार प्रेम है इनका मुझसे!

वे “कृष्ण -कृष्ण” कहती हुई प्रेमावेश मे मूर्छित हो गयीं। श्रीकृष्ण जागे , और उन्होंने देखा कि प्रियाजी के रोम -रोम से कृष्ण नाम निकल रहा है तो उन्हें अङ्क मे ले लिया और “राधे -राधे” बोलते मूर्छित हो गये , प्रेम मे।

यह क्रम देर तक चलता रहा, एक चैतन्य हो,और दूसरे का प्रेम देखे तो मूर्छित हो जाये, दूसरा चैतन्य हो तो उसकी भी वही दशा हो।

जब बहुत देर हुई तो श्रीराधिकारानी की परमसखी ललिता जी निकुञ्ज मे आयी ,उन्होंने यह अवस्था देखी तो चकित रह गयीं -

“अङ्कस्थितेऽपि दयिते किमपि प्रलापम्।”

संयोग मे वियोग का यह अद्भुत संवेदन!

तात्पर्य है कि जिसे प्रेम प्राप्त होता है , उसे एकाङ्गी, अथवा वियोगात्मक-संयोगात्मक प्रेम नही मिलता। प्रेम का सामरस्य, सामञ्जस्य,ऐकरस्य, प्रेमी-प्रियतम दोनो के एक हुये बिना नही होता।

ये प्रश्न क्या पूछा है ,ये उत्तर क्या लिख रहा है यही सोच रहे होंगें आप !

अरे भई ! श्रीराधा जी से संबंधित प्रश्न हो और मै उनके प्रियतम और उनके प्रेम का कुछ भी वर्णन ना करूँ ? चलिये अब-

मूल प्रश्न :- श्रीराधा जी किनकी अवतार है?

पहले ये जान लेते है श्रीकृष्ण कौन है?

कृष्ण:-

“कृष्” भूवाचक है, भू माने सत्ता है, सत्ता माने भाव है , भाव माने स्थायी भाव है। और वह सत्ता महासत्तारूप है, जिसके बिना सब असत् है, उसी स्वप्रकाश सत् से सबकी सत्ता है, वही “कृष्ण “है। इसमें “ ण” कार

निर्वृति या आनन्द का द्योतक है वही श्री राधा है

“आराधनं राधा” आराधना ही राधा है, श्री शब्द परमतत्त्व श्रीकृष्ण हेतु है।

अवतार:-

अव+तृ+ घञ्= अवतार।

अवतार का अर्थ अवरोह अथवा उदय है।

दार्शनिक धरातल पर निर्गुण का सगुण होना ,निराकार का साकार होना,

अप्रमेय का प्रमाणगोचर होना, इन्द्रियातीत का इन्द्रियगोचर होना, “अवतार” है।

उदाहरणार्थ:- जय -विजय द्वारा सनकादि ऋषियों को जानबूझकर क्रोधित कर उनसे शाप लेना।

भगवान के संकल्प मात्र से अधर्मियों का नाश हो जाता है , फिर भगवान अवतार क्यों लेते है?

ऐसे दुष्कृती ,जिन्होंने भगवान् के लिये ही दुष्कृत किया जानबूझकर ,

ऐसे कौन? जय-विजय!

उनके लिये तो अवतार की ही आवश्यकता थी।

जय-विजय ,भगवान के भक्त थे, उन्होंने ताड़ लिया कि “भगवान के मन मे युद्ध चिकीर्षा (युद्ध करने की इच्छा ) है! परन्तु इनसे लडे़गा कौन ?

यह माया तो उनकी ऑंखों के सामने ठहरती ही नही ,विलज्जित होकर, दूर से ही भाग जाती है, फिर भी अज्ञजन उस माया से ही विमोहित होकर ,

“यह मै हुँ , यह मेरा है!” इस प्रकार अनर्गल प्रलाप करते रहते है!)

माया तो प्रभु के सामने खड़ी होने मे शर्माती है , वो इनसे लडे़गी कैसे?

और जितने भी दैत्य -दानव है वे तो इसी माया के बच्चे है , जब माया ही इनके सामने नही खड़ी हो सकती तो माया के बच्चे क्या लड़ेंगे ?

प्रभु की युद्ध चिकीर्षा हमारे बिना और कौन पूरा कर सकता है?

लेकिन ये तो हमारे नाथ- स्वामी है!इनके साथ कैसे युद्ध करेंगें?

असुर बनकर ही युद्ध कर सकेंगें।

सनकादि योगीश्वर दर्शन करने जा रहे थे, उन्होंने रोक दिया ,

कहा:- बाबाजी खड़े रहिये (बाबाजी कहने का कारण :- इनकी उम्र बहुत अधिक है ,दिखते बस बालस्वरूप है)

बाबाजी ने डाँटते हुये कहा:- भगवान् विष्णु सर्वान्तरआत्मा है, उनका दर्शन नही करने देता। हमें जाने से रोकता है, उन्हें छिपाता है।

जाओ असुर हो जाओ।

इस प्रकार जय-विजय ने “आ-बैल मुझे मार”की लोकोक्ति को चरितार्थ करते हुये जानबूझकर शाप ले लिया , क्योंकि बाबाजी को रोकने का पाप, भगवान की युद्ध चिकीर्षाको पूर्ण करने की भावना से ही किया था।

इस प्रकार स्वयं सुकृती होते हुये भी , भगवान के लीला-परिकर होते हुये भी केवल भगवान की लीला को साङ्गोपाङ्ग बनाने के लिये दुष्कृत करते है,

उन दुष्कृतों के उद्धार के लिये भगवान का अवतार होता है।

१.साधु परित्राण २. धर्मसंस्थापन ३. और दुष्कृतियों का विनाश ।

यह तीनों कार्य भगवान अवतार लेकर करते है।

और जब भी भगवान विष्णु(नारायण) अवतार लेते है, तो उनके सङ्ग उनकी नारायणी (लक्ष्मीजी) भी अवतार लेती है।

तो अंतत:

प्रश्नकर्ता जी आपका उत्तर यह रहा।

“श्रीराधाजी ,भगवन् नारायण की नारायणी- श्रीलक्ष्मीजी का अवतार है।”

एक उत्तर पर इनबॉक्स मे एक महिला ने (बहिन/दीदी इसलिये नही कहा क्योंकि मैंने महिला को दीदी,बहिन कहना त्याग दिया है, क्योंकि यदि कहो तो समय आने पर भाई होने का दायित्व निभाना पड़ेगा जो मै नही कर सकता , + उनके मन मे आपके चरित्र की छवि क्या है? वो आपको किस सम्बन्ध की दृष्टि से देखती है ये तो नारायण जाने)साथ ही आप यह भी नही जान सकते कि वो अकाउण्ट कोई वास्तविक महिला उपयोग कर रही है? या कोई पुरूष?

हॉं तो उन्होने पूछा था कि प्रेम और काम मे क्या अन्तर है? उसका उत्तर यहॉं बता रहा हुं

प्रेम और काम सदैव निकट निकट रहते है, इनकी पहचान करना संसारी व्यक्ति के लिये बहुत कठिन है,एक परमविद्वान कहते थे कि “प्रेम और काम मे बाल बराबर अन्तर है!”

प्रेम का मार्ग है :- प्रियतम को सुख पहुँचाना और

काम का मार्ग है:- स्वयं सुख का उपभोग करना।

क्रिया दोनो मे एक समान ही होती है। इतनी सार बात है यही समझ लीजिये।

और हॉं एक प्रश्न और पूछा था कि सौपाधिक प्रेम क्या है?

“कामवासना की पूर्ति तक ही रहने वाले प्रेम को सौपाधिक प्रेम कहते है।”

उन महिला से अनुरोध है कृपया मुझे इनबॉक्स न करे। मुझे ऑउट ऑफ़ द बॉक्स ही रहने दे।

धन्यवाद , अन्त तक समय देकर पढ़ने हेतु ।

😊🙏🏻प्रणाम

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