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ॐ श्री परमात्मने नम: श्री गणेशाय नम: राधे कृष्ण ।। अथ दशमोऽध्याय: ।।By समाजसेवी वनिता कासनियां पंजाब गत अध्याय में योगेश्वर श्रीकृष्ण ने गुप्त राजविद्या का विस्तार से वर्णन किया, जो निश्चित ही कल्याण करती है। इस अध्याय में उनका कथन है- महाबाहु अर्जुन! मेरे परम रहस्य युक्त वचन को फिर सुन। यहाॅं उसी को दूसरी बार कहने की आवश्यकता क्या है? वस्तुत: साधक को पूर्तिपर्यन्त खतरा है। ज्यों-ज्यों वह रूप में ढलता जाता है, प्रकृति के आवरण सूक्ष्म होते जाते हैं, नये-नये दृष्य आते हैं। उसकी जानकारी महापुरुष ही देते रहते हैं, एक श्रेणी तक पहुॅंचने से पहले साधक नहीं जानता अथवा समझता। यदि वे मार्गदर्शन करना बन्द कर दें तो साधक स्वरूप की उपलब्धि से वंचित रह जाएगा। जब तक वह स्वरूप से दूर है, तब तक सिद्ध है कि प्रकृति का कोई न कोई आवरण बना है। फिसलने-लड़खड़ाने की सम्भावना बनी रहती है। अर्जुन शरणागत शिष्य है। उसने कहा 'शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम्।'- भगवन् मैं आपका शिष्य हूॅं, आपके शरणागत हूॅं, मुझे सॅंभालिये। अतः उसके हित की कामना से योगेश्वर श्रीकृष्ण पुनः बोले-( भगवान की विभूति और योगशक्ति का कथन तथा उनके जानने का फल) श्रीभगवानुवाचभूय एव महाबाहो श्रृणु मे परमं वचः।यत्तेऽहं प्रीयमाणाय वक्ष्यामि हितकाम्यया॥न मे विदुः सुरगणाः प्रभवं न महर्षयः।अहमादिर्हि देवानां महर्षीणां च सर्वशः॥. ( श्रीमद्भागवत गीता अ० १०/१,२)हिन्दी अनुवाद:- श्री भगवान्‌ बोले- हे महाबाहो! फिर भी मेरे परम रहस्य और प्रभावयुक्त वचन को सुन, जिसे मैं तुझे अतिशय प्रेम रखने वाले के लिए हित की इच्छा से कहूँगा। मेरी उत्पत्ति को अर्थात्‌ लीला से प्रकट होने को न देवता लोग जानते हैं और न महर्षिजन ही जानते हैं, क्योंकि मैं सब प्रकार से देवताओं का और महर्षियों का भी आदिकारण हूँ।व्याख्या:- महाबाहु अर्जुन! मेरे परम प्रभावयुक्त वचन को पुनः सुन, जो मैं तुझ अतिशय प्रेम रखने वाले के हित की इच्छा से कहूॅंगा। अर्जुन! मेरी उत्पत्ति को न देवता लोग जानते हैं और न महर्षिगण ही जानते हैं। श्रीकृष्ण ने कहा था, 'जन्म कर्म च मे दिव्यम्'- मेरा वह जन्म और कर्म अलौकिक है, इन चर्मचक्षुओं से नहीं देखा जा सकता। इसलिये मेरे उस प्रकट होने को देव स्तर तक पहुॅंचे हुए लोग भी नहीं जानते। मैं सब प्रकार से देवताओं और महर्षियों का आदि कारण हूॅं। शेष अगले सत्र में अगले श्लोक के साथ मित्रों-हरि ॐ तत्सत हरि:ॐ गुं गुरुवे नम:राधे राधे राधे, बरसाने वाली राधे, तेरी सदा हि जय हो माते |शुभ हों दिन रात सभी के |

. ॐ श्री परमात्मने नम:

                        श्री गणेशाय नम:

                            राधे कृष्ण

                   ।। अथ दशमोऽध्याय: ।।

                     गत अध्याय में योगेश्वर श्रीकृष्ण ने गुप्त राजविद्या का विस्तार से वर्णन किया, जो निश्चित ही कल्याण करती है। इस अध्याय में उनका कथन है- महाबाहु अर्जुन! मेरे परम रहस्य युक्त वचन को फिर सुन। यहाॅं उसी को दूसरी बार कहने की आवश्यकता क्या है? वस्तुत: साधक को पूर्तिपर्यन्त खतरा है। ज्यों-ज्यों वह रूप में ढलता जाता है, प्रकृति के आवरण सूक्ष्म होते जाते हैं, नये-नये दृष्य आते हैं। उसकी जानकारी महापुरुष ही देते रहते हैं, एक श्रेणी तक पहुॅंचने से पहले साधक नहीं जानता अथवा समझता। यदि वे मार्गदर्शन करना बन्द कर दें तो साधक स्वरूप की उपलब्धि से वंचित रह जाएगा। जब तक वह स्वरूप से दूर है, तब तक सिद्ध है कि प्रकृति का कोई न कोई आवरण बना है। फिसलने-लड़खड़ाने की सम्भावना बनी रहती है। अर्जुन शरणागत शिष्य है। उसने कहा 'शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम्।'- भगवन् मैं आपका शिष्य हूॅं, आपके शरणागत हूॅं, मुझे सॅंभालिये। अतः उसके हित की कामना से योगेश्वर श्रीकृष्ण पुनः बोले-

( भगवान की विभूति और योगशक्ति का कथन तथा उनके जानने का फल)

                         श्रीभगवानुवाच

भूय एव महाबाहो श्रृणु मे परमं वचः।
यत्तेऽहं प्रीयमाणाय वक्ष्यामि हितकाम्यया॥

न मे विदुः सुरगणाः प्रभवं न महर्षयः।
अहमादिर्हि देवानां महर्षीणां च सर्वशः॥
. ( श्रीमद्भागवत गीता अ० १०/१,२)

हिन्दी अनुवाद:-
                       श्री भगवान्‌ बोले- हे महाबाहो! फिर भी मेरे परम रहस्य और प्रभावयुक्त वचन को सुन, जिसे मैं तुझे अतिशय प्रेम रखने वाले के लिए हित की इच्छा से कहूँगा।

                      मेरी उत्पत्ति को अर्थात्‌ लीला से प्रकट होने को न देवता लोग जानते हैं और न महर्षिजन ही जानते हैं, क्योंकि मैं सब प्रकार से देवताओं का और महर्षियों का भी आदिकारण हूँ।

व्याख्या:-
              महाबाहु अर्जुन! मेरे परम प्रभावयुक्त वचन को पुनः सुन, जो मैं तुझ अतिशय प्रेम रखने वाले के हित की इच्छा से कहूॅंगा।

              अर्जुन! मेरी उत्पत्ति को न देवता लोग जानते हैं और न महर्षिगण ही जानते हैं। श्रीकृष्ण ने कहा था, 'जन्म कर्म च मे दिव्यम्'- मेरा वह जन्म और कर्म अलौकिक है, इन चर्मचक्षुओं से नहीं देखा जा सकता। इसलिये मेरे उस प्रकट होने को देव स्तर तक पहुॅंचे हुए लोग भी नहीं जानते। मैं सब प्रकार से देवताओं और महर्षियों का आदि कारण हूॅं।

                     शेष अगले सत्र में अगले श्लोक के साथ मित्रों-

हरि ॐ तत्सत हरि:

ॐ गुं गुरुवे नम:

राधे राधे राधे, बरसाने वाली राधे, तेरी सदा हि जय हो माते |

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