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एक ज्ञानवर्धक एवं अनुसरण करने योग्य प्रस्तुति!!!!!!!!बाल वनिता महिला वृद्ध आश्रम की अध्यक्ष श्रीमती वनिता कासनियां पंजाब संगरिया राजस्थान प्रथम जीव ब्रह्माजी से लेकर त्रिलोकी और अनन्त ब्रह्माण्डों में तथा उनमें पाई जाने वाली कोई भी वस्तु या प्राणी ऐसा नहीं है जो कि प्रकृति से उत्पन्न, इन तीन गुणों से रहित हो, मुक्ति के इक्षुक को प्रकृति और उसके तीनों गुणों से सम्बन्ध विच्छेद करना पड़ता है, प्रकृति से सम्बन्ध जुड़ते ही अहंकार उत्पन्न होने लगता है, अहँकार से पराधीनता आसक्ति, कामना, मोह पैदा होते हैं, प्रकृतिजन्य इन गुणों में से रजो गुण और तमो गुण की वृद्धि करने वाले लक्षणों का त्याग करके सतोगुण को प्रसन्नता, विवेक, ज्ञान के माध्यम से बढ़ाया जा सकता है।सात्विक ज्ञान, कर्म, कर्ता, बुद्धि, घृति और सुख को सावधानी पूर्वक बढ़ाना है, ध्यान भगवान् के श्री चरणों में केन्द्रित करके सत को बढ़ाना और असत का त्याग करना है, इस संसार में किसी को सदा के लिए नहीं रहना, जीवन की एक नियत अवधि गुजारने के बाद सबको यहां से चले जाना है, सचमुच यह संसार हमारा स्थायी निवास नहीं है, जिस प्रकार किसी मेले में बहुत सारे लोग इकट्ठे हो जाते हैं और मेला खत्म होते ही सभी लोग अपने-अपने घर चले जाते हैं, उसी प्रकार इस संसार में रिश्ते-नातें, दोस्ती-दुश्मनी के बहाने लोग एकत्र होते हैं और नियत समय पर एक दूसरे से बिछुड़ते जाते हैं, किसी संत ने ठीक ही कहा है।रे मन ये दो दिन का मेला रहेगा।कायम न जग का झमेला रहेगा।।यह मेरा है, यह मेरा है, रटते हुये न जाने कितने राजा-महाराजा इस संसार से विदा हो गये, किन्तु यह वसुधा किसी की नहीं हुई, यह राज्य मेरा है, यह घर मेरा है, यह मेरी दौलत है, यह मेरा पुत्र है, यह मेरी पत्नी है कहते हुये लोग न जाने कब से मिथ्या भ्रम के शिकार होते आ रहे हैं, यह जानते हुये भी कि कोई इस संसार में स्थायी रूप से रहता नहीं, एक न एक दिन सबको इस संसार से विदा हो जाना है, फिर भी लोग संसार के क्षणभंगुर सुखों के पीछे आपस में लड़ते रहते हैं। लड़ते-झगड़ते इस संसार से विदा होने की वेला कब आ जाये? इसका किसी को पता ही नहीं चलता, मरने के बाद रिश्तेदार श्मशान तक ले जाते हैं, मृत शरीर को जलाने, जल में प्रवाहित करने या कब्र में दफनाने की रस्म अदा करने के बाद अपने रोजमर्रा के काम में लग जाते हैं, यह प्रक्रिया आज से नहीं, सनातन काल से जारी है, किसी ने ठीक ही कहा है-गुल चढ़ायेंगे लहद पर जिनसे यह उम्मीद थी।वो भी पत्थर रख गये सीने पे दफनाने के बाद।।इस संसार की प्रीति झूठी है, संसार में मिलने वाला आदर-सत्कार व सम्मान क्षणभंगुर है, संसार में मिलने वाला कोई भी सुख शाश्वत नहीं होता और जीव चाहता है शाश्वत आनन्द, क्योंकि मूल रूप से वह परमानंद स्वरूप परमात्मा का ही अंश है जो उनसे बिछुड़ गया है, इसलिये उसकी चाहत में अब तक छटपटा रहा है, उसी आनंद को वह सांसारिक पदार्थों में ढुँढ़ा करता है, किन्तु क्षणभंगुर संसार में वह शाश्वत परम आनन्द तो मिल ही नहीं पाता, किन्तु क्षणभंगुर विषयानंद में ही लगकर जीव अपना परम लक्ष्य भुला देता है।इस प्रकार बार-बार जन्मने व मरने के चक्र में फंसकर जीव दुखी होता रहता है, लेकिन सामान्य तौर पर जीव ऐसा सोचता है कि यदि परमानंद न मिले तो सांसारिक आनंद तो मिले, लेना आनन्द ही है क्योंकि यह आनंद से बिछड़ा हुआ उस परम आनंद को ढूंढता फिरता हैं, आनन्द पाने के लिये तो आज सारी दुनिया दौड़ रही है, खाने-पीने व मौज-मस्ती में लोग आनंद पाने के लिये ही संलग्न होते हैं, किंतु संसार के सभी सुखों का अंत दुख के रूप में ही होता है, अंत में मनुष्य को खाली हाथ ही इस दुनियाँ से कूच करना पड़ता है।संसार के आनंद तो एक अवधि के बाद निश्चित रूप से समाप्त हो जाते हैं और जीव दुखी हो हाथ मलता रह जाता है, जीव मन की कल्पनाओं में खोया-खोया संसारिक सुखों को ही शाश्वत समझ उसी में लीन हो जाता है, और एक दिन ऐसा आता है कि संसार का सारा ऐश्वर्य छोडक़र उसे सदा के लिए इस संसार से विदा हो जाना पड़ता है, लेकिन उल्टे-सीधे विचारों में खोकर मनुष्य परम सत्य सिद्घांत को भूल जाता है, और सांसारिकता की बेड़ी में जकड़ा रहता है, इस बात को इस दृष्टांत से समझा जा सकता है।एक समय की बात है कि सांसारिकता में पूरी तरह से डूबे एक सेठ को देखकर एक महात्मा को दया आ गयी, वे सेठ के पास परलोक सुधारने का उपदेश देने के लिये पहुँचे, काफी दिनों तक वे सेठ को नाना प्रकार के दृष्टांत देते हुए यह समझाने का प्रयत्न करते रहे कि यह संसार सपने की तरह है, इसका मोह त्याग कर भगवान् की भक्ति करने में ही भलाई है, महात्मा के उपदेश को सेठ ढंग से समझ नहीं पाया और सोचा कि ये तो खुद विरक्त संन्यासी हैं और चाहते हैं कि मैं भी घर-बार त्याग दूँ।उसने महात्मा से प्रार्थना की महाराज! आप की बात पूरी तरह सही है, मैं भी चाहता हूँ कि भगवान् की भक्ति करूँ, किन्तु बच्चे अभी अबोध हैं, बड़े होने पर जब उनकी शादी कर लूँगा तब परलोक सुधारने का यत्न करूँगा, तब महात्मा बोले- ये सांसारिक काम तो तेरे न रहने पर भी होते रहेंगे, यह तो तुम्हें अपने घर की चौकीदारी मिली है भगवान् द्वारा, लेकिन तुम खुद मालिक बन बैठ गये, ठीक है, तुम अभी अपनी घर-गृहस्थी संभालो, बाद में भगवान् की भक्ति कर लेना, लेकिन याद रहे, भवसागर से मुक्ति तो भगवान की भक्ति करने से ही मिलेगी।समय का चक्र चलता रहा और सेठ के सभी बच्चे बड़े हुये और शादी होने के बाद अलग हो गये, फिर वह महात्मा सेठ के पास आये और बोले- सेठजी! अब ईश्वर की कृपा से सब कार्य सिद्घ हो गये हैं, कुछ समय निकाल कर भगवान का भजन-सुमिरन करो, बेड़ा पार हो जायगा, सेठ बोला- महाराज! अभी तो पोते भी नहीं हुये, पोतों का मुंह तो देख लेने दीजिये, तब महात्मा बोले- मैं तुझे त्यागी बनने के लिये नहीं कहता, तू मूर्खतावश मेरे भाव को नहीं समझ पा रहा है। मेरे कहने का भाव तो यह है कि संसार के मोह और अज्ञानता के चंगुल से मन को हटाकर प्रभु की भक्ति में लगाओ, तब सेठ बोला- यदि मन प्रभु की भक्ति में लग गया तो संसार के धंधे कौन करेगा? वह मन कहां से लाऊंगा? बिना मन लगाये दुनिया के काम-धंधे और सांसारिक कर्तव्य पूरे नहीं हो पाते,महात्मा बोले- मैं तुम्हारे ही उद्घार के लिए कह रहा हूँ कि बिना भगवान् की भक्ति किये कल्याण नहीं होगा, सेठ बोला- पहले संसार के काम-धंधों से मुक्त तो हो लेने दो, परिवार का कल्याण पहले कर लूँ, फिर आपकी सुनूँगा।इस प्रकार समय गुजरता गया और एक दिन सेठ का स्वर्गवास हो गया, प्रारब्धवश वह सेठ कुत्ते का छोटा पिल्ला के रूप में पैदा होकर पुन: उसी घर में आ गया, तब उसके पोते ने रसोई में उसे घुसा देखकर जोर से डंडा मारा, डंडा लगते ही वह मर गया और फिर सांप का जन्म लेकर उसी घर में रहने लगा, एक दिन घर वाले सांप देखकर डरे और उसे मार दिया, फिर मोहपाश में बंधकर पुन: उसी घर की गंदी नाली में एक मोटे कीड़े के रूप में पैदा हुआ, उस कीड़े को देखकर सब घर वाले बड़े चकित हो गये। उन्हीं दिनों वे महात्मा भी घर में पधारे हुये थे, सबने महात्माजी को वह मोटा कीड़ा दिखाया, तब अंर्तदृष्टि से उस महात्मा ने देखा तो पाया कि यह तो वही सेठ है, उसकी ऐसी दुर्गति देखकर उस महात्मा ने अपने जूते से उस पर प्रहार किया जिससे वह कीड़ा वहीं मर गया और सदगति पाकर अगला जन्म मानव शरीर पाया और फिर उसी महात्मा का सेवक बना जो समय के सदगुरू भी थे, दोस्तों! यह दृष्टांत कोई ऐसी कथा नहीं जिसके सत्य होने का दावा किया जाय, किन्तु इसे असत्य भी नहीं कहा जा सकता। इस दृष्टांत के माध्यम से लोगों को जीवन के वास्तविक उद्देश्य को पाने की प्रेरणा है जिससे मनुष्य क्षणभंगुर संसार के मोहपाश में न फँसे और अविनाशी सत्य से जुडऩे की चेष्टा आज और अभी से प्रारम्भ कर दें, अंतत: मनुष्य को परमात्मा की भक्ति करके ही अपना जीवन कृतार्थ करना चाहिये, इसी वजह से सभी महापुरुषों ने मानव शरीर का सदुपयोग भगवान् की भक्ति करने में ही बताया है, भगवान् के नाम का भजन सुमिरण करने में ही जीवन का अधिकांश समय बिताना चाहिये, ऐसा करने से ही भवसागर से जीव का उद्घार होता है।#Vnitaजय श्री हरि।

एक ज्ञानवर्धक एवं अनुसरण करने योग्य प्रस्तुति!!!!!!!!


प्रथम जीव ब्रह्माजी से लेकर त्रिलोकी और अनन्त ब्रह्माण्डों में तथा उनमें पाई जाने वाली कोई भी वस्तु या प्राणी ऐसा नहीं है जो कि प्रकृति से उत्पन्न, इन तीन गुणों से रहित हो, मुक्ति के इक्षुक को प्रकृति और उसके तीनों गुणों से सम्बन्ध विच्छेद करना पड़ता है, प्रकृति से सम्बन्ध जुड़ते ही अहंकार उत्पन्न होने लगता है, अहँकार से पराधीनता आसक्ति, कामना, मोह पैदा होते हैं, प्रकृतिजन्य इन गुणों में से रजो गुण और तमो गुण की वृद्धि करने वाले लक्षणों का त्याग करके सतोगुण को प्रसन्नता, विवेक, ज्ञान के माध्यम से बढ़ाया जा सकता है।

सात्विक ज्ञान, कर्म, कर्ता, बुद्धि, घृति और सुख को सावधानी पूर्वक बढ़ाना है, ध्यान भगवान् के श्री चरणों में केन्द्रित करके सत को बढ़ाना और असत का त्याग करना है, इस संसार में किसी को सदा के लिए नहीं रहना, जीवन की एक नियत अवधि गुजारने के बाद सबको यहां से चले जाना है, सचमुच यह संसार हमारा स्थायी निवास नहीं है, जिस प्रकार किसी मेले में बहुत सारे लोग इकट्ठे हो जाते हैं और मेला खत्म होते ही सभी लोग अपने-अपने घर चले जाते हैं, उसी प्रकार इस संसार में रिश्ते-नातें, दोस्ती-दुश्मनी के बहाने लोग एकत्र होते हैं और नियत समय पर एक दूसरे से बिछुड़ते जाते हैं, किसी संत ने ठीक ही कहा है।

रे मन ये दो दिन का मेला रहेगा।
कायम न जग का झमेला रहेगा।।

यह मेरा है, यह मेरा है, रटते हुये न जाने कितने राजा-महाराजा इस संसार से विदा हो गये, किन्तु यह वसुधा किसी की नहीं हुई, यह राज्य मेरा है, यह घर मेरा है, यह मेरी दौलत है, यह मेरा पुत्र है, यह मेरी पत्नी है कहते हुये लोग न जाने कब से मिथ्या भ्रम के शिकार होते आ रहे हैं, यह जानते हुये भी कि कोई इस संसार में स्थायी रूप से रहता नहीं, एक न एक दिन सबको इस संसार से विदा हो जाना है, फिर भी लोग संसार के क्षणभंगुर सुखों के पीछे आपस में लड़ते रहते हैं। 

लड़ते-झगड़ते इस संसार से विदा होने की वेला कब आ जाये? इसका किसी को पता ही नहीं चलता, मरने के बाद  रिश्तेदार श्मशान तक ले जाते हैं, मृत शरीर को जलाने, जल में प्रवाहित करने या कब्र में दफनाने की रस्म अदा करने के बाद अपने रोजमर्रा के काम में लग जाते हैं, यह प्रक्रिया आज से नहीं, सनातन काल से जारी है, किसी ने ठीक ही कहा है-
गुल चढ़ायेंगे लहद पर जिनसे यह उम्मीद थी।
वो भी पत्थर रख गये सीने पे दफनाने के बाद।।

इस संसार की प्रीति झूठी है, संसार में मिलने वाला आदर-सत्कार व सम्मान क्षणभंगुर है, संसार में मिलने वाला कोई भी सुख शाश्वत नहीं होता और जीव चाहता है शाश्वत आनन्द, क्योंकि  मूल रूप से वह परमानंद स्वरूप परमात्मा का ही अंश है जो उनसे बिछुड़ गया है, इसलिये उसकी चाहत में अब तक छटपटा रहा है, उसी आनंद को वह सांसारिक पदार्थों में ढुँढ़ा करता है, किन्तु क्षणभंगुर संसार में वह शाश्वत परम आनन्द तो मिल ही नहीं पाता, किन्तु क्षणभंगुर विषयानंद में ही लगकर जीव अपना परम लक्ष्य भुला देता है।

इस प्रकार बार-बार जन्मने व मरने के चक्र में फंसकर जीव दुखी होता रहता है, लेकिन सामान्य तौर पर जीव ऐसा सोचता है कि यदि परमानंद न मिले तो सांसारिक आनंद तो मिले, लेना आनन्द ही है क्योंकि यह आनंद से बिछड़ा हुआ उस परम आनंद को ढूंढता फिरता हैं, आनन्द पाने के लिये तो आज सारी दुनिया दौड़ रही है, खाने-पीने व मौज-मस्ती में लोग आनंद पाने के लिये ही संलग्न होते हैं, किंतु संसार के सभी सुखों का अंत दुख के रूप में ही होता है, अंत में मनुष्य को खाली हाथ ही इस दुनियाँ से कूच करना पड़ता है।

संसार के आनंद तो एक अवधि के बाद निश्चित रूप से समाप्त हो जाते हैं और जीव दुखी हो हाथ मलता रह जाता है, जीव मन की कल्पनाओं में खोया-खोया संसारिक सुखों को ही शाश्वत समझ उसी में लीन हो जाता है, और एक दिन ऐसा आता है कि संसार का सारा ऐश्वर्य छोडक़र उसे सदा के लिए इस संसार से विदा हो जाना पड़ता है, लेकिन उल्टे-सीधे विचारों में खोकर मनुष्य परम सत्य सिद्घांत को भूल जाता है, और सांसारिकता की बेड़ी में जकड़ा रहता है, इस बात को इस दृष्टांत से समझा जा सकता है।

एक समय की बात है कि सांसारिकता में पूरी तरह से डूबे एक सेठ को देखकर एक महात्मा को दया आ गयी, वे सेठ के पास परलोक सुधारने का उपदेश देने के लिये पहुँचे, काफी दिनों तक वे सेठ को नाना प्रकार के दृष्टांत देते हुए यह समझाने का प्रयत्न करते रहे कि यह संसार सपने की तरह है, इसका मोह त्याग कर भगवान् की भक्ति करने में ही भलाई है, महात्मा के उपदेश को सेठ ढंग से समझ नहीं पाया और सोचा कि ये तो खुद विरक्त संन्यासी हैं और चाहते हैं कि मैं भी घर-बार त्याग दूँ।

उसने महात्मा से प्रार्थना की महाराज! आप की बात पूरी तरह सही है, मैं भी चाहता हूँ कि भगवान् की भक्ति करूँ, किन्तु बच्चे अभी अबोध हैं, बड़े होने पर जब उनकी शादी कर लूँगा तब परलोक सुधारने का यत्न करूँगा, तब महात्मा बोले- ये सांसारिक काम तो तेरे न रहने पर भी होते रहेंगे, यह तो तुम्हें अपने घर की  चौकीदारी मिली है भगवान् द्वारा, लेकिन तुम खुद मालिक बन बैठ गये, ठीक है, तुम अभी अपनी घर-गृहस्थी संभालो, बाद में भगवान् की भक्ति कर लेना, लेकिन याद रहे, भवसागर से मुक्ति तो भगवान की भक्ति करने से ही मिलेगी।

समय का चक्र चलता रहा और सेठ के सभी बच्चे बड़े हुये और शादी होने के बाद अलग हो गये, फिर वह महात्मा सेठ के पास आये और बोले- सेठजी! अब ईश्वर की कृपा से सब कार्य सिद्घ हो गये हैं, कुछ समय निकाल कर भगवान का भजन-सुमिरन करो, बेड़ा पार हो जायगा, सेठ बोला- महाराज! अभी तो पोते भी नहीं हुये, पोतों का मुंह तो देख लेने दीजिये, तब महात्मा बोले- मैं तुझे त्यागी बनने के लिये नहीं कहता, तू मूर्खतावश मेरे भाव को नहीं समझ पा रहा है। 

मेरे कहने का भाव तो यह है कि संसार के मोह और अज्ञानता के चंगुल से मन को हटाकर प्रभु की भक्ति में लगाओ, तब सेठ बोला- यदि मन प्रभु की भक्ति में लग गया तो संसार के धंधे कौन करेगा? वह मन कहां से लाऊंगा? बिना मन लगाये दुनिया के काम-धंधे और सांसारिक कर्तव्य पूरे नहीं हो पाते,महात्मा बोले- मैं तुम्हारे ही उद्घार के लिए कह रहा हूँ कि बिना भगवान् की भक्ति किये कल्याण नहीं होगा, सेठ बोला- पहले संसार के काम-धंधों से मुक्त तो हो लेने दो, परिवार का कल्याण पहले कर लूँ, फिर आपकी सुनूँगा।

इस प्रकार समय गुजरता गया और एक दिन सेठ का स्वर्गवास हो गया, प्रारब्धवश वह सेठ कुत्ते का छोटा पिल्ला के रूप में पैदा होकर पुन: उसी घर में आ गया, तब उसके पोते ने रसोई में उसे घुसा देखकर जोर से डंडा मारा, डंडा लगते ही वह मर गया और फिर सांप का जन्म लेकर उसी घर में रहने लगा, एक दिन घर वाले सांप देखकर डरे और उसे मार दिया, फिर मोहपाश में बंधकर पुन: उसी घर की गंदी नाली में एक मोटे कीड़े के रूप में पैदा हुआ, उस कीड़े को देखकर सब घर वाले बड़े चकित हो गये। 

उन्हीं दिनों वे महात्मा भी घर में पधारे हुये थे, सबने महात्माजी को वह मोटा कीड़ा दिखाया, तब अंर्तदृष्टि से उस महात्मा ने देखा तो पाया कि यह तो वही सेठ है, उसकी ऐसी दुर्गति देखकर उस महात्मा ने अपने जूते से उस पर प्रहार किया जिससे वह कीड़ा वहीं मर गया और सदगति पाकर अगला जन्म मानव शरीर पाया और फिर उसी महात्मा का सेवक बना जो समय के सदगुरू भी थे, दोस्तों! यह दृष्टांत कोई ऐसी कथा नहीं जिसके सत्य होने का दावा किया जाय, किन्तु इसे असत्य भी नहीं कहा जा सकता। 

 इस दृष्टांत के माध्यम से लोगों को जीवन के वास्तविक उद्देश्य को पाने की प्रेरणा है जिससे मनुष्य क्षणभंगुर संसार के मोहपाश में न फँसे और अविनाशी सत्य से जुडऩे की चेष्टा आज और अभी से प्रारम्भ कर दें, अंतत: मनुष्य को परमात्मा की भक्ति करके ही अपना जीवन कृतार्थ करना चाहिये, इसी वजह से सभी महापुरुषों ने मानव शरीर का सदुपयोग भगवान् की भक्ति करने में ही बताया है, भगवान् के नाम का भजन सुमिरण करने में ही जीवन का अधिकांश समय बिताना चाहिये, ऐसा करने से ही भवसागर से जीव का उद्घार होता है।
#Vnita
जय श्री हरि।

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कैसे बन गए भगवान कृष्ण लड्डू गोपाल? जानिए इसके पीछे का रहस्य By समाजसेवी वनिता कासनियां पंजाब पौराणिक कथा के अनुसार भगवान श्रीकृष्ण के परम भक्त कुंभनदास थे। उनका एक बेटा था रघुनंदन। कुंभनदास के पास भगवान श्रीकृष्ण का एक चित्र था जिसमें वह बांसुरी बजा रहे थे। कुंभनदास हमेशा उनकी पूजा में ही लीन रहते थे। वह अपने प्रभु को कभी भी कहीं छोड़कर नहीं जाते थे।एक बार कुंभनदास के लिए वृंदावन से भागवत कथा के लिए बुलावा आया। पहले तो कुंभनदास ने उस भागवत में जाने से मना कर दिया। परंतु लोगों के आग्रह करने पर वे जाने के लिए तैयार हो गए। उन्होंने सोचा कि पहले वे भगवान श्रीकृष्ण की पूजा करेंगे। इसके बाद वह भागवत कथा करके अपने घर वापस लौट आएंगे। इस तरह उनकी पूजा का नियम नहीं टूटेगा। कुंभनदास ने अपने पुत्र को समझा दिया कि मैंने भगवान श्रीकृष्ण के लिए भोग तैयार कर दिया है। तुम बस ठाकुर जी को भोग लगा देना और इतना कहकर वह चले गए।कुंभनदास के बेटे ने भोग की थाली ठाकुर जी के सामने रख दी और उनसे विनती की कि वह आएं और भोग लगाएं। रघुनंदन मन ही मन ये सोच रहा था कि ठाकुरजी आएंगे और अपने हाथों से खाएंगे जैसे सभी मनुष्य खाते हैं। कुंभनदास के बेटे ने कई बार भगवान श्रीकृष्ण से आकर खाने के लिए कहा, लेकिन भोजन को उसी प्रकार से देखर वह निराश हो गया और रोने लगा। उसने रोते-रोते भगवान श्रीकृष्ण से कहा कि भगवान आकर भोग लगाइए। उसकी पुकार सुनकर ठाकुर जी ने एक बालक का रूप रखा और भोजन करने के लिए बैठ गए। जिसके बाद रघुनंदन के चेहरे पर मुस्कुराहट आ गई। वृंदावन से भागवत करके जब कुंभनदास घर लौटा तो उसने अपने बेटे से प्रसाद के बारे में पूछा। रघुनंदन ने अपने पिता से कहा ठाकुरजी ने सारा भोजन खा लिया है। कुंभनदास ने सोचा कि अभी रघुनंदन नादान है। उसने सारा प्रसाद खा लिया होगा और डांट की वजह से झूठ बोल रहा है। अब रोज कुंभनदास भागवत के लिए जाते और शाम तक सारा प्रसाद खत्म हो जाता था।कुंभनदास को लगा कि अब उनका पुत्र कुछ ज्यादा ही झूठ बोलने लगा है, लेकिन उनका पुत्र ऐसा क्यों कर रहा है? यह देखने के लिए कुंभनदास ने एक दिन लड्डू बनाकर थाली में रख दिए और दूर से छिपकर देखने लगे। रघुनंदन ने रोज की तरह ठाकुर जी को आवाज दी और ठाकुर जी एक बालक के रूप में कुंभनदास के बेटे के सामने प्रकट हुए। रघुनंदन ने ठाकुरजी से फिर से खाने के लिए आग्रह किया। जिसके बाद ठाकुर जी लड्डू खाने लगे। बाल वनिता महिला आश्रमकुंभनदास जो दूर से इस घटना को देख रहे थे, वह तुरंत ही आकर ठाकुर जी के चरणों में गिर गए। ठाकुर जी के एक हाथ में लड्डू और दूसरे हाथ का लड्डू मुख में जाने वाला ही था, लेकिन ठाकुर जी उस समय वहीं पर स्थिर हो गए।. तभी से लड्डू गोपाल के इस रूप की पूजा की जाने लगी और वे ‘लड्डू गोपाल’ कहलाए जाने लगे.

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