*‼️जय हो लड्डू गोपाल की‼️ By वनिता कासनियां पंजाब *श्री कृष्ण जन्म**अश्रुओं में डूब चुकी आंखों से पति की ओर कातर दृष्टि फिराते हुए देवकी ने पूछा, क्या इसकी भी वही दशा होगी ? वह नीच क्या इसे भी वैसे ही मार देगा जैसे हमारे उन बच्चों को मार दिया था...!* *लम्बे समय से बन्दीगृह की पीड़ा भोगते वसुदेव के झुर्रीदार चेहरे पर जाने कैसा तेज उभर आया। बोले, "इसके लिए इसके सात भाइयों ने अपनी बलि दी है देवकी! कंस क्या, स्वयं ईश्वर इसका अहित नहीं कर सकते..."!!* *किन्तु सूर्योदय होते ही उस दुष्ट को इसके जन्म का समाचार मिल जाएगा स्वामी! फिर वह...सूर्योदय में बहुत समय है देवकी! तुम इसे मुझे दो। सारे द्वार खुले हुए हैं और सारे सैनिक सो रहे हैं। बाहर भादो के मेघ तांडव कर रहे हैं। नियति स्वयं इसकी रक्षा कर रही है। मैं शीघ्र इसे किसी सुरक्षित स्थान पर पहुँचा आऊंगा। वसुदेव के अंदर अद्भुत साहस उत्पन्न हो गया था। होता क्यों न, उनके कुल में "श्री कृष्ण" जो आये थे।* *तो क्या इसे त्याग देना होगा? यह हमारी समूची तपस्या का फल है स्वामी... हमारे जीवन और इस संसार में शान्ति की एकमात्र आशा! इसे भी त्याग दूँ तो मेरी झोली में शेष क्या बचेगा?" देवकी को कुछ सूझ नहीं रहा था।**त्याग तो करना ही पड़ेगा देवकी! इस युग का भविष्य तुम्हारे त्याग पर ही टिका है। जब कोई देवकी अपने सात पुत्रों का बलिदान और आठवें का वियोग स्वीकारती है, तभी सभ्यता को उद्धारक मिलता है। शीघ्रता करो, नियति किसी को भी अधिक समय नहीं देती, किसी कार्य में हुई क्षण भर की देरी भी युगों का भविष्य बदल देती है। तुम इसे मुझे दो, मैं इसे गोकुल में नन्द के यहाँ पहुँचा कर आता हूँ। कहते कहते वसुदेव ने इधर उधर दृष्टि घुमाई, उन्हें एक खाली टोकरी दिखी। उठा लाये...**बाहर तेज बरसात हो रही है, और गोकुल के मार्ग में यमुना भी आती हैं। इस अंधेरी रात में आप इसे लेकर यमुना पार कैसे जा पाएंगे स्वामी ? देवकी एक माँ और एक पत्नी थीं, उनका वात्सल्य भय बन कर उभर रहा था।**वसुदेव पिता थे, उनका वात्सल्य उन्हें भयमुक्त हो कर पिता का कर्तव्य निभाने को प्रेरित कर रहा था। बोले, पिता हूँ देवकी! वह जगतपिता इस पिता की प्रतिष्ठा नहीं जाने देगा। प्रलय आ जाय तब भी अपने पुत्र को सुरक्षित पहुँचा दूंगा। इसकी रक्षा के लिए मुझे हजार बार अपने प्राण अर्पण करने पड़े तब भी पीछे नहीं हटूंगा।* *देवकी की गोद में उनका वह आठवां पुत्र था, जिसके सम्बन्ध में वे भी जानती थीं कि वही उनका और युग का उद्धार करेगा। उस पुत्र को अपनी गोद से दूर करने के बारे में वे सोच भी नहीं पा रही थीं। वसुदेव ने फिर कहा, कठोर होवो देवकी! अस्थिर चरित्र वाले लोग अपने साथ साथ समूची संस्कृति का अहित करते हैं। जो लोग विपत्ति के क्षणों में अपना धर्मानुकूल पथ निर्धारित नहीं कर पाते, वे सभ्यता के घाती होते हैं। यह बालक केवल तुम्हारा नहीं, हमारे समय की धरोहर है। केवल अपनी भावनाओं की मत सुनो, प्रजा की सोचो। सभ्यता पर आयी विपत्ति को भी केवल अपने सुखों की सोच कर अनदेखा कर जाने वाले लोग युग के द्रोही होते हैं देवकी! तुम्हे इस बालक का त्याग करना ही होगा, यही इस समय तुम्हारा कर्तव्य है...**देवकी ने एक बार कातर दृष्टि से देखा आपने आठवें पुत्र को, फिर चुपचाप उसे पति को दे दिया। वसुदेव बालक को ले कर निकल गए। द्वापर युग अब यही से बदलना शुरू हुआ।**जय श्रीकृष्ण !!*
*‼️जय हो लड्डू गोपाल की‼️
By वनिता कासनियां पंजाब
*श्री कृष्ण जन्म*
*अश्रुओं में डूब चुकी आंखों से पति की ओर कातर दृष्टि फिराते हुए देवकी ने पूछा, क्या इसकी भी वही दशा होगी ? वह नीच क्या इसे भी वैसे ही मार देगा जैसे हमारे उन बच्चों को मार दिया था...!*
*लम्बे समय से बन्दीगृह की पीड़ा भोगते वसुदेव के झुर्रीदार चेहरे पर जाने कैसा तेज उभर आया। बोले, "इसके लिए इसके सात भाइयों ने अपनी बलि दी है देवकी! कंस क्या, स्वयं ईश्वर इसका अहित नहीं कर सकते..."!!*
*किन्तु सूर्योदय होते ही उस दुष्ट को इसके जन्म का समाचार मिल जाएगा स्वामी! फिर वह...सूर्योदय में बहुत समय है देवकी! तुम इसे मुझे दो। सारे द्वार खुले हुए हैं और सारे सैनिक सो रहे हैं। बाहर भादो के मेघ तांडव कर रहे हैं। नियति स्वयं इसकी रक्षा कर रही है। मैं शीघ्र इसे किसी सुरक्षित स्थान पर पहुँचा आऊंगा। वसुदेव के अंदर अद्भुत साहस उत्पन्न हो गया था। होता क्यों न, उनके कुल में "श्री कृष्ण" जो आये थे।*
*तो क्या इसे त्याग देना होगा? यह हमारी समूची तपस्या का फल है स्वामी... हमारे जीवन और इस संसार में शान्ति की एकमात्र आशा! इसे भी त्याग दूँ तो मेरी झोली में शेष क्या बचेगा?" देवकी को कुछ सूझ नहीं रहा था।*
*त्याग तो करना ही पड़ेगा देवकी! इस युग का भविष्य तुम्हारे त्याग पर ही टिका है। जब कोई देवकी अपने सात पुत्रों का बलिदान और आठवें का वियोग स्वीकारती है, तभी सभ्यता को उद्धारक मिलता है। शीघ्रता करो, नियति किसी को भी अधिक समय नहीं देती, किसी कार्य में हुई क्षण भर की देरी भी युगों का भविष्य बदल देती है। तुम इसे मुझे दो, मैं इसे गोकुल में नन्द के यहाँ पहुँचा कर आता हूँ। कहते कहते वसुदेव ने इधर उधर दृष्टि घुमाई, उन्हें एक खाली टोकरी दिखी। उठा लाये...*
*बाहर तेज बरसात हो रही है, और गोकुल के मार्ग में यमुना भी आती हैं। इस अंधेरी रात में आप इसे लेकर यमुना पार कैसे जा पाएंगे स्वामी ? देवकी एक माँ और एक पत्नी थीं, उनका वात्सल्य भय बन कर उभर रहा था।*
*वसुदेव पिता थे, उनका वात्सल्य उन्हें भयमुक्त हो कर पिता का कर्तव्य निभाने को प्रेरित कर रहा था। बोले, पिता हूँ देवकी! वह जगतपिता इस पिता की प्रतिष्ठा नहीं जाने देगा। प्रलय आ जाय तब भी अपने पुत्र को सुरक्षित पहुँचा दूंगा। इसकी रक्षा के लिए मुझे हजार बार अपने प्राण अर्पण करने पड़े तब भी पीछे नहीं हटूंगा।*
*देवकी की गोद में उनका वह आठवां पुत्र था, जिसके सम्बन्ध में वे भी जानती थीं कि वही उनका और युग का उद्धार करेगा। उस पुत्र को अपनी गोद से दूर करने के बारे में वे सोच भी नहीं पा रही थीं। वसुदेव ने फिर कहा, कठोर होवो देवकी! अस्थिर चरित्र वाले लोग अपने साथ साथ समूची संस्कृति का अहित करते हैं। जो लोग विपत्ति के क्षणों में अपना धर्मानुकूल पथ निर्धारित नहीं कर पाते, वे सभ्यता के घाती होते हैं। यह बालक केवल तुम्हारा नहीं, हमारे समय की धरोहर है। केवल अपनी भावनाओं की मत सुनो, प्रजा की सोचो। सभ्यता पर आयी विपत्ति को भी केवल अपने सुखों की सोच कर अनदेखा कर जाने वाले लोग युग के द्रोही होते हैं देवकी! तुम्हे इस बालक का त्याग करना ही होगा, यही इस समय तुम्हारा कर्तव्य है...*
*देवकी ने एक बार कातर दृष्टि से देखा आपने आठवें पुत्र को, फिर चुपचाप उसे पति को दे दिया। वसुदेव बालक को ले कर निकल गए। द्वापर युग अब यही से बदलना शुरू हुआ।*
*जय श्रीकृष्ण !!*
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