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महाभारत में सबसे महान योद्धा कौन था जो अकेले पूरे युद्ध को समाप्त कर सकता था? By वनिता कासनियां पंजाब कोई नही। अगर कर सकता तो महाभारत के युद्ध को 18 दिनों तक चलने की आवश्यकता ही नही थी।इस उत्तर को पढ़ने से पहले अनुरोध है कि अपनी व्यक्तिगत श्रद्धा को कृपया थोड़ी देर अलग रख दें। हम सभी की श्रीकृष्ण में श्रद्धा है किंतु इस युद्ध के वास्तविक कारण और महत्व को समझने के लिए कृपया कुछ देर के लिए हम श्रीकृष्ण को ईश्वर ना समझ कर एक असाधारण मनुष्य मान लेते हैं ताकि दोनो पक्षों का बल अच्छे तरह से समझ सकें। आइये अब आरम्भ करते हैं।जो लोग बर्बरीक का नाम ले रहे हैं उन्हें ये बता दूं कि बर्बरीक जैसा कोई चरित्र मूल व्यास महाभारत में है ही नही। अर्थात घटोत्कच के पुत्र के रूप में बर्बरीक, अंजनपर्व एवं मेघवर्ण का वर्णन तो है लेकिन बर्बरीक की तपस्या, सिद्धि, तीन बाण, शीश दान इत्यादि का जो वर्णन है वो मूल व्यास महाभारत में नही है। वो कथा लोककथाओं में अधिक प्रसिद्ध है। और अगर था भी तो वरदान प्राप्त योद्धाओं की महाभारत में कोई कमी नही थी। इसीलिए बर्बरीक को यही पर छोड़ देते हैं।अर्जुन के दिव्यास्त्रों की भी बड़ी चर्चा होती है किंतु ये भी याद रखें कि वो अकेला नही था जिसके पास दिव्यास्त्र थे। महाभारत का युद्ध उन योद्धाओं से भरा था जिनके पास विभिन्न प्रकार के दिव्यास्त्र थे। भीष्म, द्रोण, कर्ण, अश्वत्थामा, भगदत्त, कृपाचार्य, कृतवर्मा, जयद्रथ, सुशर्मा, बाह्लीक, सुदक्षिण, श्रीकृष्ण, सात्यिकी, द्रुपद, विराट, धृतकेतु, मलयध्वज इत्यादि ऐसे योद्धा थे जिनके पास अनेकानेक दिव्यास्त्र थे।ऐसा ना समझें कि महाभारत में दिव्यास्त्रों का प्रयोग हुआ ही नही। दोनो पक्षों के योद्धाओं द्वारा कई बार दिव्यास्त्र का प्रयोग हुआ। विशेषकर भीष्म और अर्जुन के युद्ध मे कई बार दिव्यास्त्रों का प्रयोग हुआ और अर्जुन और कर्ण के अंतिम युद्ध मे तो केवल दिव्यास्त्रों का ही प्रयोग हुआ।अगर महास्त्रों (ध्यान दें, साधारण दिव्यास्त्र नही) की बात की जाए तो ये सत्य है कि अर्जुन के पास पाशुपतास्त्र था जिससे सबका नाश तत्काल किया जा सकता था किंतु पाशुपत उस युद्ध मे कभी प्रयोग ही नही किया गया। उसका एक कारण ये भी था कि पाशुपत का प्रयोग स्वयं से निर्बल शत्रु पर नही किया जा सकता था अन्यथा वो चलाने वाले का ही नाश कर देता था। महाभारत में अर्जुन के समकक्ष योद्धा गिने चुने ही थे इस लिए भी पाशुपतास्त्र का प्रयोग नही किया गया। दूसरा महाअस्त्र नारायणास्त्र अश्वथामा के पास था और उसका प्रयोग हुआ भी किन्तु श्रीकृष्ण ने पांडवों को बचा लिया। अब अगर बात करें ब्रह्मास्त्र की तो उस युग मे भीष्म, द्रोण, कर्ण, अश्वत्थामा और अर्जुन, इन पाँच योद्धाओं के पास ब्रह्मास्त्र था। इनमें से अश्वथामा के पास ब्रह्मास्त्र का अधूरा ज्ञान ही था। कर्ण को इसका पूरा ज्ञान था किंतु वो श्रापग्रस्त था इसी कारण अर्जुन से अंतिम युद्ध मे ब्रह्मास्त्र का प्रयोग ना कर सका। इसके अतिरिक्त परशुराम के पास भी ब्रह्मास्त्र था किंतु उन्होंने युद्ध मे भाग नही लिया। कुछ लोग समझते हैं कि श्रीकृष्ण के पास भी ब्रह्मास्त्र था किंतु ऐसा नही है, उनके पास ब्रह्मास्त्र होने का कोई वर्णन महाभारत में नही है। किन्तु श्रीकृष्ण तो श्रीहरि के पूर्णावतार है इसीलिए उनके पास ब्रम्हास्त्र होने, ना होने से कोई फर्क नही पड़ता।इसके अतिरिक्त कुछ ऐसे दिव्यास्त्र भी थे जिनका प्रयोग केवल किसी एक योद्धा को ही था। जैसे प्रस्वापास्त्र केवल भीष्म के पास ही था, जिसका प्रयोग वे परशुराम के विरुद्ध युद्ध मे करने वाले थे किंतु किया नही। नारायणास्त्र का ज्ञान केवल अश्वथामा और श्रीकृष्ण को था और भार्गवास्त्र का ज्ञान केवल कर्ण के पास ही था। इसके अतिरिक्त सुदर्शन चक्र को केवल श्रीकृष्ण और परशुराम ही धारण कर सकते थे और पाशुपतास्त्र केवल अर्जुन के पास था। पता नही ये कितना प्रामाणिक है किंतु कई जगह वर्णन है कि भीष्म और द्रोण के पास ब्रह्मशिरा का ज्ञान भी था जो उन्हें परशुराम से मिला। ब्रह्मशिरा ब्रह्मास्त्र से 4 गुणा अधिक शक्तिशाली होता है। हालांकि परशुराम ने कर्ण को ये ज्ञान नही दिया और ना ही द्रोण ने अर्जुन और यहाँ तक कि अश्वत्थामा को भी इसका ज्ञान नही दिया।इतने वृहद विश्लेषण की आवश्यकता इसीलिए पड़ी कि आप ये समझ लें कि महाभारत में केवल अर्जुन के पास ही दिव्यास्त्र नही थे। हाँ, अन्य योद्धाओं की तुलना में उसके पास कुछ अधिक दिव्यास्त्र थे जो उसने इंद्र से प्राप्त किये थे। दूसरे कि जो ये समझते हैं कि महाभारत में दिव्यास्त्रों का प्रयोग नही हुआ वे भी गलत हैं। उस महायुद्ध में भयंकर मात्रा में दिव्यास्त्रों का प्रयोग हुआ था। उस युद्ध मे ऐसे कई योद्धा थे जो शीघ्रता से उस युद्ध को समाप्त कर सकते थे। जैसा कि श्रीकृष्ण स्वयं कहते हैं कि अगर केवल भीष्म नही होते तो वो युद्ध केवल 1 दिन में जीता जा सकता था।तो अब प्रश्न आता है कि जब महाभारत में इतने महान योद्धा थे तो वो युद्ध 18 दिनों तक क्यों खिंच गया? उत्तर है केवल श्रीकृष्ण के कारण।आप इस युद्ध के उद्देश्य को जानने का प्रयास कीजिये। श्रीकृष्ण का उद्देश्य इस युद्ध के द्वारा अधिक से अधिक योद्धाओं का नाश कराना था और वो भी दोनों ओर से। कहा जाता है कि उस समय पृथ्वी का भार इतना बढ़ गया था कि उसके बोझ से पृथ्वी फट जाती। पृथ्वी का बोझ कम करना अत्यंत आवश्यक था और श्रीकृष्ण का अवतरण वास्तव में इसी कारण हुआ था, ना कि कंस को मारने के कारण। अगर ये युद्ध जल्दी समाप्त हो जाता तो उनका ये उद्देश्य पूर्ण नही हो पाता। यही कारण है कि उनके ही कारण ये युद्ध इतने दिनों तक चला।वास्तव में श्रीकृष्ण उस युद्ध मे अद्भुत भूमिका निभा रहे थे। उन्हें दोनो ओर के योद्धाओं का नाश भी कराना था और इस बात का ध्यान भी रखना था कि पांडवों की पराजय ना हो। वो उस युद्ध मे कितने दवाब में होंगे इसका हम और आप अनुमान भी नही लगा सकते।यही कारण था कि उन्होंने युद्ध मे शस्त्र ना उठाने की प्रतिज्ञा कर ली और उनकी प्रेरणा से बलराम ने भी युद्ध मे भाग नही लिया ताकि वो युद्ध अधिक समय तक चल सके। इन दोनो के युद्ध मे भाग लेने पर संभव था कि युद्ध कुछ जल्दी समाप्त हो जाता और श्रीकृष्ण का उद्देश्य अधूरा रह जाता। जो लोग उनपर पक्षपाती होने का आरोप लगाते हैं वे ये जान लें कि महाभारत के 36 वर्ष पश्चात जब यादवों की संख्या और बल बहुत अधिक बढ़ गया तो स्वयं श्रीकृष्ण और बलराम ने अपने ही यादव वंश का नाश कर दिया। गांधारी का श्राप तो बस निमित्तमात्र था।अब जाते जाते श्रीकृष्ण को एक योद्धा के रूप में भी देख लेते हैं। वे श्रीहरि के पूर्ण अवतार थे और उनकी सभी 16 कलाओं के साथ जन्में थे। श्रीहरि के सभी शस्त्र उनके पास थे किंतु इसपर भी कई युद्ध मे उन्हें भी संघर्ष करना पड़ा था। हालांकि इसके पीछे भी उनका उद्देश्य वही था जो महाभारत युद्ध के पीछे था।जैसे जरासंध से वे 18 वर्ष तक युद्ध करते रहे और उसकी सेना को समाप्त करने के बाद भी मथुरा छोड़ द्वारिका में आकर बस गए। शाल्व और उनका द्वंद 26 दिनों तक चला था। सुभद्रा के वचन के कारण जब श्रीकृष्ण और अर्जुन में युद्ध हुआ था तो वो 11 दिनों तक चलता रहा जबतक दोनो ने स्वयं युद्ध नही रोका। पौंड्रक और उनका युद्ध 16 दिनों तक चला था, एकलव्य का वध उन्होंने तीन दिन के युद्ध के पश्चात किया। जाम्बवन्त और उनका युद्ध 23 दिनों तक चला। बाणासुर के साथ उनका युद्ध 1 मास तक चला जिसके बाद अंततः भगवान शंकर को बाणासुर की सहायता के लिए आना पड़ा।इसीलिए ये जान लें कि महाभारत का युद्ध इतने दिन इसी कारण चला क्योंकि श्रीकृष्ण ऐसा ही चाहते थे। और कोई ऐसा नही था जो उनकी इच्छा के विरुद्ध जाकर उस युद्ध को शीघ्रता से समाप्त कर देता।आशा है आपको उत्तर तर्कसंगत लगा होगा। अब जाते जाते आपको एक प्रश्न के साथ छोड़े जा रही हूँ।"आपमे से कितने लोगों को लगता है कि वर्तमान में पृथ्वी का भार (जनसंख्या) उतारने के लिए ऐसे ही किसी महायुद्ध की आवश्यकता है?"जय श्रीकृष्ण। 🚩

By वनिता कासनियां पंजाब

कोई नही। अगर कर सकता तो महाभारत के युद्ध को 18 दिनों तक चलने की आवश्यकता ही नही थी।

इस उत्तर को पढ़ने से पहले अनुरोध है कि अपनी व्यक्तिगत श्रद्धा को कृपया थोड़ी देर अलग रख दें। हम सभी की श्रीकृष्ण में श्रद्धा है किंतु इस युद्ध के वास्तविक कारण और महत्व को समझने के लिए कृपया कुछ देर के लिए हम श्रीकृष्ण को ईश्वर ना समझ कर एक असाधारण मनुष्य मान लेते हैं ताकि दोनो पक्षों का बल अच्छे तरह से समझ सकें। आइये अब आरम्भ करते हैं।

  • जो लोग बर्बरीक का नाम ले रहे हैं उन्हें ये बता दूं कि बर्बरीक जैसा कोई चरित्र मूल व्यास महाभारत में है ही नही। अर्थात घटोत्कच के पुत्र के रूप में बर्बरीक, अंजनपर्व एवं मेघवर्ण का वर्णन तो है लेकिन बर्बरीक की तपस्या, सिद्धि, तीन बाण, शीश दान इत्यादि का जो वर्णन है वो मूल व्यास महाभारत में नही है। वो कथा लोककथाओं में अधिक प्रसिद्ध है। और अगर था भी तो वरदान प्राप्त योद्धाओं की महाभारत में कोई कमी नही थी। इसीलिए बर्बरीक को यही पर छोड़ देते हैं।
  • अर्जुन के दिव्यास्त्रों की भी बड़ी चर्चा होती है किंतु ये भी याद रखें कि वो अकेला नही था जिसके पास दिव्यास्त्र थे। महाभारत का युद्ध उन योद्धाओं से भरा था जिनके पास विभिन्न प्रकार के दिव्यास्त्र थे। भीष्म, द्रोण, कर्ण, अश्वत्थामा, भगदत्त, कृपाचार्य, कृतवर्मा, जयद्रथ, सुशर्मा, बाह्लीक, सुदक्षिण, श्रीकृष्ण, सात्यिकी, द्रुपद, विराट, धृतकेतु, मलयध्वज इत्यादि ऐसे योद्धा थे जिनके पास अनेकानेक दिव्यास्त्र थे।
  • ऐसा ना समझें कि महाभारत में दिव्यास्त्रों का प्रयोग हुआ ही नही। दोनो पक्षों के योद्धाओं द्वारा कई बार दिव्यास्त्र का प्रयोग हुआ। विशेषकर भीष्म और अर्जुन के युद्ध मे कई बार दिव्यास्त्रों का प्रयोग हुआ और अर्जुन और कर्ण के अंतिम युद्ध मे तो केवल दिव्यास्त्रों का ही प्रयोग हुआ।
  • अगर महास्त्रों (ध्यान दें, साधारण दिव्यास्त्र नही) की बात की जाए तो ये सत्य है कि अर्जुन के पास पाशुपतास्त्र था जिससे सबका नाश तत्काल किया जा सकता था किंतु पाशुपत उस युद्ध मे कभी प्रयोग ही नही किया गया। उसका एक कारण ये भी था कि पाशुपत का प्रयोग स्वयं से निर्बल शत्रु पर नही किया जा सकता था अन्यथा वो चलाने वाले का ही नाश कर देता था। महाभारत में अर्जुन के समकक्ष योद्धा गिने चुने ही थे इस लिए भी पाशुपतास्त्र का प्रयोग नही किया गया। दूसरा महाअस्त्र नारायणास्त्र अश्वथामा के पास था और उसका प्रयोग हुआ भी किन्तु श्रीकृष्ण ने पांडवों को बचा लिया। अब अगर बात करें ब्रह्मास्त्र की तो उस युग मे भीष्म, द्रोण, कर्ण, अश्वत्थामा और अर्जुन, इन पाँच योद्धाओं के पास ब्रह्मास्त्र था। इनमें से अश्वथामा के पास ब्रह्मास्त्र का अधूरा ज्ञान ही था। कर्ण को इसका पूरा ज्ञान था किंतु वो श्रापग्रस्त था इसी कारण अर्जुन से अंतिम युद्ध मे ब्रह्मास्त्र का प्रयोग ना कर सका। इसके अतिरिक्त परशुराम के पास भी ब्रह्मास्त्र था किंतु उन्होंने युद्ध मे भाग नही लिया। कुछ लोग समझते हैं कि श्रीकृष्ण के पास भी ब्रह्मास्त्र था किंतु ऐसा नही है, उनके पास ब्रह्मास्त्र होने का कोई वर्णन महाभारत में नही है। किन्तु श्रीकृष्ण तो श्रीहरि के पूर्णावतार है इसीलिए उनके पास ब्रम्हास्त्र होने, ना होने से कोई फर्क नही पड़ता।
  • इसके अतिरिक्त कुछ ऐसे दिव्यास्त्र भी थे जिनका प्रयोग केवल किसी एक योद्धा को ही था। जैसे प्रस्वापास्त्र केवल भीष्म के पास ही था, जिसका प्रयोग वे परशुराम के विरुद्ध युद्ध मे करने वाले थे किंतु किया नही। नारायणास्त्र का ज्ञान केवल अश्वथामा और श्रीकृष्ण को था और भार्गवास्त्र का ज्ञान केवल कर्ण के पास ही था। इसके अतिरिक्त सुदर्शन चक्र को केवल श्रीकृष्ण और परशुराम ही धारण कर सकते थे और पाशुपतास्त्र केवल अर्जुन के पास था। पता नही ये कितना प्रामाणिक है किंतु कई जगह वर्णन है कि भीष्म और द्रोण के पास ब्रह्मशिरा का ज्ञान भी था जो उन्हें परशुराम से मिला। ब्रह्मशिरा ब्रह्मास्त्र से 4 गुणा अधिक शक्तिशाली होता है। हालांकि परशुराम ने कर्ण को ये ज्ञान नही दिया और ना ही द्रोण ने अर्जुन और यहाँ तक कि अश्वत्थामा को भी इसका ज्ञान नही दिया।
  • इतने वृहद विश्लेषण की आवश्यकता इसीलिए पड़ी कि आप ये समझ लें कि महाभारत में केवल अर्जुन के पास ही दिव्यास्त्र नही थे। हाँ, अन्य योद्धाओं की तुलना में उसके पास कुछ अधिक दिव्यास्त्र थे जो उसने इंद्र से प्राप्त किये थे। दूसरे कि जो ये समझते हैं कि महाभारत में दिव्यास्त्रों का प्रयोग नही हुआ वे भी गलत हैं। उस महायुद्ध में भयंकर मात्रा में दिव्यास्त्रों का प्रयोग हुआ था। उस युद्ध मे ऐसे कई योद्धा थे जो शीघ्रता से उस युद्ध को समाप्त कर सकते थे। जैसा कि श्रीकृष्ण स्वयं कहते हैं कि अगर केवल भीष्म नही होते तो वो युद्ध केवल 1 दिन में जीता जा सकता था।
तो अब प्रश्न आता है कि जब महाभारत में इतने महान योद्धा थे तो वो युद्ध 18 दिनों तक क्यों खिंच गया? उत्तर है केवल श्रीकृष्ण के कारण।

आप इस युद्ध के उद्देश्य को जानने का प्रयास कीजिये। श्रीकृष्ण का उद्देश्य इस युद्ध के द्वारा अधिक से अधिक योद्धाओं का नाश कराना था और वो भी दोनों ओर से। कहा जाता है कि उस समय पृथ्वी का भार इतना बढ़ गया था कि उसके बोझ से पृथ्वी फट जाती। पृथ्वी का बोझ कम करना अत्यंत आवश्यक था और श्रीकृष्ण का अवतरण वास्तव में इसी कारण हुआ था, ना कि कंस को मारने के कारण। अगर ये युद्ध जल्दी समाप्त हो जाता तो उनका ये उद्देश्य पूर्ण नही हो पाता। यही कारण है कि उनके ही कारण ये युद्ध इतने दिनों तक चला।

वास्तव में श्रीकृष्ण उस युद्ध मे अद्भुत भूमिका निभा रहे थे। उन्हें दोनो ओर के योद्धाओं का नाश भी कराना था और इस बात का ध्यान भी रखना था कि पांडवों की पराजय ना हो। वो उस युद्ध मे कितने दवाब में होंगे इसका हम और आप अनुमान भी नही लगा सकते।

यही कारण था कि उन्होंने युद्ध मे शस्त्र ना उठाने की प्रतिज्ञा कर ली और उनकी प्रेरणा से बलराम ने भी युद्ध मे भाग नही लिया ताकि वो युद्ध अधिक समय तक चल सके। इन दोनो के युद्ध मे भाग लेने पर संभव था कि युद्ध कुछ जल्दी समाप्त हो जाता और श्रीकृष्ण का उद्देश्य अधूरा रह जाता। जो लोग उनपर पक्षपाती होने का आरोप लगाते हैं वे ये जान लें कि महाभारत के 36 वर्ष पश्चात जब यादवों की संख्या और बल बहुत अधिक बढ़ गया तो स्वयं श्रीकृष्ण और बलराम ने अपने ही यादव वंश का नाश कर दिया। गांधारी का श्राप तो बस निमित्तमात्र था।

अब जाते जाते श्रीकृष्ण को एक योद्धा के रूप में भी देख लेते हैं। वे श्रीहरि के पूर्ण अवतार थे और उनकी सभी 16 कलाओं के साथ जन्में थे। श्रीहरि के सभी शस्त्र उनके पास थे किंतु इसपर भी कई युद्ध मे उन्हें भी संघर्ष करना पड़ा था। हालांकि इसके पीछे भी उनका उद्देश्य वही था जो महाभारत युद्ध के पीछे था।

जैसे जरासंध से वे 18 वर्ष तक युद्ध करते रहे और उसकी सेना को समाप्त करने के बाद भी मथुरा छोड़ द्वारिका में आकर बस गए। शाल्व और उनका द्वंद 26 दिनों तक चला था। सुभद्रा के वचन के कारण जब श्रीकृष्ण और अर्जुन में युद्ध हुआ था तो वो 11 दिनों तक चलता रहा जबतक दोनो ने स्वयं युद्ध नही रोका। पौंड्रक और उनका युद्ध 16 दिनों तक चला था, एकलव्य का वध उन्होंने तीन दिन के युद्ध के पश्चात किया। जाम्बवन्त और उनका युद्ध 23 दिनों तक चला। बाणासुर के साथ उनका युद्ध 1 मास तक चला जिसके बाद अंततः भगवान शंकर को बाणासुर की सहायता के लिए आना पड़ा।

इसीलिए ये जान लें कि महाभारत का युद्ध इतने दिन इसी कारण चला क्योंकि श्रीकृष्ण ऐसा ही चाहते थे। और कोई ऐसा नही था जो उनकी इच्छा के विरुद्ध जाकर उस युद्ध को शीघ्रता से समाप्त कर देता।

आशा है आपको उत्तर तर्कसंगत लगा होगा। अब जाते जाते आपको एक प्रश्न के साथ छोड़े जा रही हूँ।

"आपमे से कितने लोगों को लगता है कि वर्तमान में पृथ्वी का भार (जनसंख्या) उतारने के लिए ऐसे ही किसी महायुद्ध की आवश्यकता है?"

जय श्रीकृष्ण। 🚩

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दिन (ग्रेगोरियन कैलेंडर में अगस्त और सितंबर के साथ अधिव्यपित) की आधी रात को हुआ था।[5]कृष्ण का जन्म अराजकता के क्षेत्र में हुआ था। यह एक ऐसा समय था जब उत्पीड़न बड़े पैमाने पर था, स्वतंत्रता से वंचित किया गया था, बुराई सब ओर थी, और जब उनके मामा राजा कंस द्वारा उनके जीवन के लिए संकट था।भगवान कृष्ण की महानतासंपादित करेंकृष्ण जी भगवान विष्णु जी के अवतार हैं, जो तीन लोक के तीन गुणों सतगुण, रजगुण तथा तमोगुण में से सतगुण विभाग के प्रभारी हैं।[6] भगवान का अवतार होने की वजह से कृष्ण जी में जन्म से ही सिद्धियां मौजूद थीं। उनके माता पिता वसुदेव और देवकी जी के विवाह के समय मामा कंस जब अपनी बहन देवकी को ससुराल पहुँचाने जा रहा था तभी आकाशवाणी हुई थी जिसमें बताया गया था कि देवकी का आठवां पुत्र कंस को मारेगा। अर्थात् यह होना पहले से ही निश्चित था अतः वसुदेव और देवकी को जेल में रखने के बावजूद कंस कृष्ण जी को नहीं मार पाया।[6]मथुरा की जेल में जन्म के तुरंत बाद, उनके पिता वसुदेव अानकदुन्दुबी कृष्ण को यमुना पार ले जाते हैं, ताकि माता-पिता का गोकुल में नंद और यशोदा नाम दिया जा सके। जन्माष्टमी पर्व लोगों द्वारा उपवास रखकर, कृष्ण प्रेम के भक्ति गीत गाकर और रात में जागरण करके मनाई जाती है। हालांकि श्रीमद्भगवद्गीता के अनुसार व्रत-उपवास तथा जागरण को शास्त्र विरुद्ध साधना कहा है ।अध्याय 6 का श्लोक 16(भगवान उवाच )न, अति, अश्नतः, तु, योगः, अस्ति, न, च, एकान्तम्, अनश्नतःन, च, अति, स्वप्नशीलस्य, जाग्रतः, न, एव, च, अर्जुन।हे अर्जुन! यह योग न तो बहुत खाने वाले का, न बिलकुल न खाने वाले का, न बहुत शयन करने के स्वभाव वाले का और न सदा जागने वाले का ही सिद्ध होता है || 16 ||[6]मध्यरात्रि के जन्म के बाद, शिशु कृष्ण की मूर्तियों को धोया और पहनाया जाता है, फिर एक पालने में रखा जाता है। इसके बाद भक्त भोजन और मिठाई बांटकर अपना उपवास तोड़ते हैं। महिलाएं अपने घर के दरवाजे और रसोई के बाहर छोटे-छोटे पैरों के निशान बनाती हैं जो अपने घर की ओर चलते हुए, अपने घरों में कृष्ण के आने का प्रतीक माना जाता है।समारोहसंपादित करेंजन्माष्टमी उत्सवकुछ समुदाय कृष्ण की किंवदंतियों को मक्कन चोर (मक्खन चोर) के रूप में मनाते हैं।हिंदू जन्माष्टमी को उपवास, गायन, एक साथ प्रार्थना करने, विशेष भोजन तैयार करने और साझा करने, रात्रि जागरण और कृष्ण या विष्णु मंदिरों में जाकर मनाते हैं। प्रमुख कृष्ण मंदिर 'भागवत पुराण' और 'भगवद गीता' के पाठ का आयोजन करते हैं। कई समुदाय नृत्य-नाटक कार्यक्रम आयोजित करते हैं जिन्हें रास लीला या कृष्ण लीला कहा जाता है। रास लीला की परंपरा विशेष रूप से मथुरा क्षेत्र में, भारत के पूर्वोत्तर राज्यों जैसे मणिपुर और असम में और राजस्थान और गुजरात के कुछ हिस्सों में लोकप्रिय है। यह शौकिया कलाकारों की कई टीमों द्वारा अभिनय किया जाता है, उनके स्थानीय समुदायों द्वारा उत्साहित किया जाता है, और ये नाटक-नृत्य नाटक प्रत्येक जन्माष्टमी से कुछ दिन पहले शुरू होते हैं।[7]महाराष्ट्रसंपादित करेंदही हंडीजन्माष्टमी (महाराष्ट्र में "गोकुलाष्टमी" के रूप में लोकप्रिय) मुंबई, लातूर, नागपुर और पुणे जैसे शहरों में मनाई जाती है। दही हांडी कृष्ण जन्माष्टमी के अगले दिन हर अगस्त/सितंबर में मनाई जाती है। यहां लोग दही हांडी को तोड़ते हैं जो इस त्योहार का एक हिस्सा है। दही हांडी शब्द का शाब्दिक अर्थ है "दही का मिट्टी का बर्तन"। त्योहार को यह लोकप्रिय क्षेत्रीय नाम शिशु कृष्ण की कथा से मिलता है। इसके अनुसार, वह दही और मक्खन जैसे दुग्ध उत्पादों की तलाश और चोरी करते थे और लोग अपनी आपूर्ति को बच्चे की पहुंच से बाहर छिपा देते थे। कृष्ण अपनी खोज में हर तरह के रचनात्मक विचारों को आजमाते थे, जैसे कि अपने दोस्तों के साथ इन ऊँचे लटकते बर्तनों को तोड़ने के लिए मानव पिरामिड बनाना। यह कहानी भारत भर में हिंदू मंदिरों के साथ-साथ साहित्य और नृत्य-नाटक प्रदर्शनों की कई राहतों का विषय है, जो बच्चों की आनंदमय मासूमियत का प्रतीक है, कि प्रेम और जीवन का खेल ईश्वर की अभिव्यक्ति है।[8]महाराष्ट्र और भारत के अन्य पश्चिमी राज्यों में, इस कृष्ण कथा को जन्माष्टमी पर एक सामुदायिक परंपरा के रूप में निभाया जाता है, जहां दही के बर्तनों को ऊंचे डंडे से या किसी इमारत के दूसरे या तीसरे स्तर से लटकी हुई रस्सियों से ऊपर लटका दिया जाता है। वार्षिक परंपरा के अनुसार, "गोविंदा" कहे जाने वाले युवाओं और लड़कों की टीमें इन लटकते हुए बर्तनों के चारों ओर नृत्य और गायन करते हुए जाती हैं, एक दूसरे के ऊपर चढ़ती हैं और एक मानव पिरामिड बनाती हैं, फिर बर्तन को तोड़ती हैं। गिराई गई सामग्री को प्रसाद (उत्सव प्रसाद) के रूप में माना जाता है। यह एक सार्वजनिक तमाशा है, एक सामुदायिक कार्यक्रम के रूप में उत्साहित और स्वागत किया जाता है।समकालीन समय में, कई भारतीय शहर इस वार्षिक हिंदू अनुष्ठान को मनाते हैं। युवा समूह गोविंदा पाठक बनाते हैं, जो विशेष रूप से जन्माष्टमी पर पुरस्कार राशि के लिए एक-दूसरे के साथ प्रतिस्पर्धा करते हैं। इन समूहों को मंडल या हांडी कहा जाता है और वे स्थानीय क्षेत्रों में घूमते हैं, हर अगस्त में अधिक से अधिक बर्तन तोड़ने का प्रयास करते हैं। सामाजिक हस्तियां और मीडिया उत्सव में भाग लेते हैं, जबकि निगम कार्यक्रम के कुछ हिस्सों को प्रायोजित करते हैं। गोविंदा टीमों के लिए नकद और उपहार की पेशकश की जाती है, और टाइम्स ऑफ इंडिया के अनुसार, 2014 में अकेले मुंबई में 4,000 से अधिक हांडी पुरस्कारों से लबरेज थे, और गोविंदा की कई टीमों ने भाग लिया था।[9]गुजरात और राजस्थानसंपादित करेंगुजरात के द्वारका में लोग - जहां माना जाता है कि कृष्ण ने अपना राज्य स्थापित किया था - दही हांडी के समान एक परंपरा के साथ त्योहार मनाते हैं, जिसे माखन हांडी (ताजा मथने वाले मक्खन के साथ बर्तन) कहा जाता है। अन्य लोग मंदिरों में लोक नृत्य करते हैं, भजन गाते हैं, कृष्ण मंदिरों जैसे द्वारकाधीश मंदिर या नाथद्वारा जाते हैं। कच्छ जिले के क्षेत्र में, किसान अपनी बैलगाड़ियों को सजाते हैं और सामूहिक गायन और नृत्य के साथ कृष्ण जुलूस निकालते हैं।वैष्णववाद के पुष्टिमार्ग के विद्वान दयाराम की कार्निवल-शैली और चंचल कविता और रचनाएँ, गुजरात और राजस्थान में जन्माष्टमी के दौरान विशेष रूप से लोकप्रिय हैं।[10]उत्तरी भारतसंपादित करेंजनमाष्टमी उत्सव के अवसर पर रूप धारण किया हुआ बालकजन्माष्टमी उत्तर भारत के ब्रज क्षेत्र में सबसे बड़ा त्योहार है, मथुरा जैसे शहरों में जहां हिंदू परंपरा कहती है कि कृष्ण का जन्म हुआ था, और वृंदावन में जहां वे बड़े हुए थे। उत्तर प्रदेश के इन शहरों में वैष्णव समुदाय, साथ ही अन्य राज्य राजस्थान, दिल्ली, हरियाणा, उत्तराखंड और हिमालयी उत्तर के स्थानों में जन्माष्टमी मनाते हैं। कृष्ण मंदिरों को सजाया जाता है और रोशनी की जाती है, वे दिन में कई आगंतुकों को आकर्षित करते हैं, जबकि कृष्ण भक्त भक्ति कार्यक्रम आयोजित करते हैं और रात्रि जागरण करते हैं।[11]भक्तजन मिठाई बांटते हैं।[12]त्योहार आम तौर पर वर्षा ऋतु में पड़ता है। फसलों से लदे खेतों और ग्रामीण समुदायों के पास खेलने का समय है। उत्तरी राज्यों में, जन्माष्टमी को रासलीला परंपरा के साथ मनाया जाता है, जिसका शाब्दिक अर्थ है "खुशी का खेल (लीला), सार (रस)"। इसे जन्माष्टमी पर एकल या समूह नृत्य और नाटक कार्यक्रमों के रूप में व्यक्त किया जाता है, जिसमें कृष्ण से संबंधित रचनाएं गाई जाती हैं। कृष्ण के बचपन की शरारतें और राधा-कृष्ण के प्रेम प्रसंग विशेष रूप से लोकप्रिय हैं। क्रिश्चियन रॉय और अन्य विद्वानों के अनुसार, ये राधा-कृष्ण प्रेम कहानियां दैवीय सिद्धांत और वास्तविकता के लिए मानव आत्मा की लालसा और प्रेम के लिए हिंदू प्रतीक हैं।[11]जम्मू में, छतों से पतंग उड़ाना कृष्ण जन्माष्टमी पर उत्सव का एक हिस्सा है।पूर्वी और पूर्वोत्तर भारतसंपादित करेंजन्माष्टमी व्यापक रूप से पूर्वी और पूर्वोत्तर भारत के हिंदू वैष्णव समुदायों द्वारा मनाई जाती है। इन क्षेत्रों में कृष्ण जन्माष्टमी को मनाने की व्यापक परंपरा का श्रेय १५वीं और १६वीं शताब्दी के शंकरदेव और चैतन्य महाप्रभु के प्रयासों और शिक्षाओं को जाता है। उन्होंने दार्शनिक विचारों के साथ-साथ हिंदू भगवान कृष्ण को मनाने के लिए प्रदर्शन कला के नए रूप विकसित किए जैसे कि बोर्गेट, अंकिया नाट, सत्त्रिया और भक्ति योग अब पश्चिम बंगाल और असम में लोकप्रिय हैं। आगे पूर्व में, मणिपुर के लोगों ने मणिपुरी नृत्य रूप विकसित किया, एक शास्त्रीय नृत्य रूप जो अपने हिंदू वैष्णववाद विषयों के लिए जाना जाता है, और जिसमें सत्त्रिया की तरह रासलीला नामक राधा-कृष्ण की प्रेम-प्रेरित नृत्य नाटक कला शामिल है। ये नृत्य नाट्य कलाएं इन क्षेत्रों में जन्माष्टमी परंपरा का एक हिस्सा हैं, और सभी शास्त्रीय भारतीय नृत्यों के साथ, प्राचीन हिंदू संस्कृत पाठ नाट्य शास्त्र में प्रासंगिक जड़ें हैं, लेकिन भारत और दक्षिण पूर्व एशिया के बीच संस्कृति संलयन से प्रभावित हैं।[13]जन्माष्टमी पर, माता-पिता अपने बच्चों को कृष्ण की किंवदंतियों, जैसे कि गोपियों और कृष्ण के पात्रों के रूप में तैयार करते हैं। मंदिरों और सामुदायिक केंद्रों को क्षेत्रीय फूलों और पत्तियों से सजाया जाता है, जबकि समूह भागवत पुराण और भगवत गीता के दसवें अध्याय का पाठ करते या सुनते हैं।जन्माष्टमी मणिपुर में उपवास, सतर्कता, शास्त्रों के पाठ और कृष्ण प्रार्थना के साथ मनाया जाने वाला एक प्रमुख त्योहार है। मथुरा और वृंदावन में जन्माष्टमी के दौरान रासलीला करने वाले नर्तक एक उल्लेखनीय वार्षिक परंपरा है। मीतेई वैष्णव समुदाय में बच्चे लिकोल सन्नाबागेम खेलते हैं।[13]ओड़िशा और पश्चिम बंगालसंपादित करेंपूर्वी राज्य ओड़िशा में, विशेष रूप से पुरी के आसपास के क्षेत्र और पश्चिम बंगाल के नबद्वीप में, त्योहार को श्री कृष्ण जयंती या बस श्री जयंती के रूप में भी जाना जाता है। लोग आधी रात तक उपवास और पूजा कर जन्माष्टमी मनाते हैं। भागवत पुराण कृष्ण के जीवन को समर्पित एक खंड, १०वें अध्याय से पढ़ा जाता है। अगले दिन को "नंदा उत्सव" या कृष्ण के पालक माता-पिता नंदा और यशोदा का खुशी का उत्सव कहा जाता है। जन्माष्टमी के पूरे दिन भक्त उपवास रखते हैं। वे अपने अभिषेक समारोह के दौरान गंगा स्नान राधा माधव से पानी लाते हैं। आधी रात को छोटे राधा माधव देवताओं के लिए एक भव्य अभिषेक किया जाता है, जबकि 400 से अधिक वस्तुओं का भोजन (भोग) भक्ति के साथ उनके प्रभु को अर्पित किया जाता है।[14]दक्षिण भारतसंपादित करेंगोकुला अष्टमी (जन्माष्टमी या श्री कृष्ण जयंती) कृष्ण का जन्मदिन मनाती है। गोकुलाष्टमी दक्षिण भारत में बहुत उत्साह के साथ मनाई जाती है। [३९] केरल में, लोग मलयालम कैलेंडर के अनुसार सितंबर को मनाते हैं। तमिलनाडु में, लोग फर्श को कोलम (चावल के घोल से तैयार सजावटी पैटर्न) से सजाते हैं। गीता गोविंदम और ऐसे ही अन्य भक्ति गीत कृष्ण की स्तुति में गाए जाते हैं। फिर वे घर की दहलीज से पूजा कक्ष तक कृष्ण के पैरों के निशान खींचते हैं, जो घर में कृष्ण के आगमन को दर्शाता है। भगवद्गीता का पाठ भी एक लोकप्रिय प्रथा है। कृष्ण को चढ़ाए जाने वाले प्रसाद में फल, पान और मक्खन शामिल हैं। कृष्ण की पसंदीदा मानी जाने वाली सेवइयां बड़ी सावधानी से तैयार की जाती हैं। उनमें से सबसे महत्वपूर्ण हैं सीदाई, मीठी सीदाई, वेरकादलाई उरुंडई। यह त्योहार शाम को मनाया जाता है क्योंकि कृष्ण का जन्म मध्यरात्रि में हुआ था। ज्यादातर लोग इस दिन सख्त उपवास रखते हैं और आधी रात की पूजा के बाद ही भोजन करते हैं।आंध्र प्रदेश में, श्लोकों और भक्ति गीतों का पाठ इस त्योहार की विशेषता है। इस त्यौहार की एक और अनूठी विशेषता यह है कि युवा लड़के कृष्ण के रूप में तैयार होते हैं और वे पड़ोसियों और दोस्तों से मिलते हैं। विभिन्न प्रकार के फल और मिठाइयाँ सबसे पहले कृष्ण को अर्पित की जाती हैं और पूजा के बाद इन मिठाइयों को आगंतुकों के बीच वितरित किया जाता है। आंध्र प्रदेश के लोग भी उपवास रखते हैं। इस दिन गोकुलनंदन चढ़ाने के लिए तरह-तरह की मिठाइयां बनाई जाती हैं। कृष्ण को प्रसाद बनाने के लिए दूध और दही के साथ खाने की चीजें तैयार की जाती हैं। राज्य के कुछ मंदिरों में कृष्ण के नाम का आनंदपूर्वक जप होता है। कृष्ण को समर्पित मंदिरों की संख्या कम है। इसका कारण यह है कि लोगों ने मूर्तियों के बजाय चित्रों के माध्यम से उनकी पूजा की जाती है।कृष्ण को समर्पित लोकप्रिय दक्षिण भारतीय मंदिर हैं, तिरुवरुर जिले के मन्नारगुडी में राजगोपालस्वामी मंदिर, कांचीपुरम में पांडवधूथर मंदिर, उडुपी में श्री कृष्ण मंदिर और गुरुवायुर में कृष्ण मंदिर विष्णु के कृष्ण अवतार की स्मृति को समर्पित हैं। किंवदंती कहती है कि गुरुवायुर में स्थापित श्री कृष्ण की मूर्ति द्वारका की है, जिसके बारे में माना जाता है कि यह समुद्र में डूबी हुई थी।[14]भारत के बाहरसंपादित करेंनेपालसंपादित करेंनेपाल की लगभग अस्सी प्रतिशत आबादी खुद को हिंदू के रूप में पहचानती है और कृष्ण जन्माष्टमी मनाती है। वे आधी रात तक उपवास करके जन्माष्टमी मनाते हैं। भक्त भगवद गीता का पाठ करते हैं और भजन और कीर्तन करते हैं। कृष्ण के मंदिरों को सजाया जाता है। दुकानों, पोस्टरों और घरों में कृष्ण के रूपांकन हैं।[15]बांग्लादेशसंपादित करेंजन्माष्टमी बांग्लादेश में एक राष्ट्रीय अवकाश है। जन्माष्टमी पर, बांग्लादेश के राष्ट्रीय मंदिर, ढाकेश्वरी मंदिर ढाका से एक जुलूस शुरू होता है, और फिर पुराने ढाका की सड़कों से आगे बढ़ता है। जुलूस 1902 का है, लेकिन 1948 में रोक दिया गया था। जुलूस 1989 में फिर से शुरू किया गया था।[16]फ़िजीसंपादित करेंफिजी में कम से कम एक चौथाई आबादी हिंदू धर्म का पालन करती है, और यह अवकाश फिजी में तब से मनाया जाता है जब से पहले भारतीय गिरमिटिया मजदूर वहां पहुंचे थे। फिजी में जन्माष्टमी को "कृष्णा अष्टमी" के रूप में जाना जाता है। फ़िजी में अधिकांश हिंदुओं के पूर्वज उत्तर प्रदेश, बिहार और तमिलनाडु से उत्पन्न हुए हैं, जिससे यह उनके लिए विशेष रूप से महत्वपूर्ण त्योहार है। फिजी का जन्माष्टमी उत्सव इस मायने में अनोखा है कि वे आठ दिनों तक चलते हैं, जो आठवें दिन तक चलता है, जिस दिन कृष्ण का जन्म हुआ था। इन आठ दिनों के दौरान, हिंदू घरों और मंदिरों में अपनी 'मंडलियों' या भक्ति समूहों के साथ शाम और रात में इकट्ठा होते हैं, और भागवत पुराण का पाठ करते हैं, कृष्ण के लिए भक्ति गीत गाते हैं, और प्रसाद वितरित करते हैं।[17]रीयूनियनफ्रांसीसी द्वीप रीयूनियन के मालबारों में, कैथोलिक और हिंदू धर्म का एक समन्वय विकसित हो सकता है। जन्माष्टमी को ईसा मसीह की जन्म तिथि माना जाता है।[17]अन्यएरिज़ोना, संयुक्त राज्य अमेरिका में, गवर्नर जेनेट नेपोलिटानो इस्कॉन को स्वीकार करते हुए जन्माष्टमी पर संदेश देने वाले पहले अमेरिकी नेता थे। यह त्योहार कैरिबियन में गुयाना, त्रिनिदाद और टोबैगो, जमैका और पूर्व ब्रिटिश उपनिवेश फिजी के साथ-साथ सूरीनाम के पूर्व डच उपनिवेश में हिंदुओं द्वारा व्यापक रूप से मनाया जाता है। इन देशों में बहुत से हिंदू तमिलनाडु, उत्तर प्रदेश और बिहार से आते हैं; तमिलनाडु, उत्तर प्रदेश, बिहार, बंगाल और उड़ीसा के गिरमिटिया प्रवासियों

जन्माष्टमी जन्माष्टमी जय श्री कृष्ण जी jaमुख्य मेनू खोलें खोजें जन्माष्टमी By वनिता कासनियां पंजाब वार्षिक हिंदू त्योहार जो भगवान कृष्ण के जन्म का जश्न मनाता है भाषा PDF डाउनलोड करें ध्यान रखें संपादित करें कृष्ण जन्माष्टमी ,  जिसे  जन्माष्टमी  वा  गोकुलाष्टमी  के रूप में भी जाना जाता है, एक वार्षिक हिंदू त्योहार है जो  विष्णुजी  के दशावतारों में से आठवें और चौबीस अवतारों में से बाईसवें अवतार श्रीकृष्ण के जन्म के आनन्दोत्सव के लिये मनाया जाता है। [1]  यह हिंदू चंद्रमण वर्षपद के अनुसार, कृष्ण पक्ष (अंधेरे पखवाड़े) के आठवें दिन (अष्टमी) को  भाद्रपद  में मनाया जाता है ।  [2]  जो  ग्रेगोरियन कैलेंडर  के अगस्त व सितंबर के साथ अधिव्यापित होता है। [3] जन्माष्टमी भगवान कृष्ण आधिकारिक नाम श्रीकृष्ण जन्माष्टमी अनुयायी हिन्दू , नेपाली ,  भारतीय , नेपाली और भारतीय प्रवासी प्रकार हिन्दू धार्मिक उद्देश्य भगवान कृष्ण के आदर्शों को स्मरण करना और ध्यान में लाना उत्सव प्रसाद बाँटना, भजन गाना इत्यादि अनुष्ठान श्रीकृष्ण ...