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आत्मा को मुक्ति कैसे मिलती है?आत्मा तो नित्य मुक्त है.मोक्ष जीव बने आत्मा की है.पढ़े मेरा पूर्व लेख.अध्याय 24मुक्ति : By समाजसेवी वनिता कासनियां पंजाबहम आत्मा हैं, परमेश्वर का अंश हैं *। परंतु हैं माया के बंधन में। इस बंधन का कारण श्रीमद्भागवत में राजा निमि को योगेश्वर कवि ने पुरुष/आत्मा का ईश्वर से विमुख होना बताया है। पुरुष/आत्मा जब ईश्वर से विमुख होता है तब ईश्वर की माया उस पर हावी हो जाती है और वह ‘मैं मनुष्य हूँ, मैं देवता हूँ ’- ऐसा मानने लग जाता है और भ्रम में पड़ जाता है।***माया से संबंध होने पर आत्मा को जीव शब्द से जाना जाता है और यह मन प्रधान होता है। जीव वह है जो शरीर धारण करता है। जीव अनादि काल से बंधन में है, भ्रम में है। ऐसा कहना कि यह पहले बंधन में नहीं था मुक्त था और एक दिन बंधन में आ गया असत्य होगा। इसका अभिप्राय तो यही निकलेगा कि मुक्त होने के पश्चात पुनः बंधन आ जाता है ,तो फिर मुक्ति का कोई अर्थ ही नहीं रहेगा !मुक्ति क्या है? जन्म-मरण के चक्र से अवकाश को मुक्ति कहते हैं। साधारण भाषा में इसे परमसत्ता में लीन हो जाना या भगवत धाम ( ईसाई इसे हेवन, heaven कहते हैं और मुसलमान जन्नत) में हमेशा के लिए चले जाना और मृत्यु लोक में लौटकर नहीं आना समझा जाता है। सांख्य दर्शन के अनुसार पुरुष का अपने स्वरूप में स्थित हो जाना ही मोक्ष है। @ न्याय-दर्शन सुख प्राप्ति स्वीकार नहीं करता क्योंकि सुख का राग से संबंध है और राग कारण है बंधन का। दुख और सुख गुण हैं, मुक्त होने पर आत्मा सभी गुणों से मुक्ति पा जाता है। मीमांसा कहती है, दृश्य जगत के साथ आत्मा के संबंध का विनाश ही मोक्ष है। अद्वैत वेदांत के अनुसार स्वयं स्वरूप में अवस्थान को मोक्ष कहते हैं। ज्यादातर दर्शनों ने दुख-निवृत्ति पर जोर दिया है।परन्तु, भक्तगण मोक्ष को दुख-निवृत्ति व आनंद- प्राप्ति कहते हैं। आत्मा को अप्राकृत शरीर प्राप्त होता है और वह भगवान की सन्निधि का, ना समाप्त होने वाले आनंद का, सदा के लिए अनुभव करता है। भगवान के धाम में भक्तों की मुक्ति में अभेद नहीं होता, भेद रहता है। भक्त और भगवान( यानी आनंद का पर्याय) साथ-साथ अलग-अलग शरीरों में रहते हैं। भगवान का नाम ही सत्-चित्-आनंद है।आत्मा नित्यमुक्त है, फिर मुक्ति किसकी? यह आत्मा ईश्वर का अंश है और इसमें ईश्वर के सारे गुण हैं, फिर इसका बंधन कैसे? यह स्थाई है, अचल है।** फिर, आना-जाना, जन्म-मृत्यु किसका होता है?इनका उत्तर है कि वास्तव में आत्मा मुक्त है, कभी बंधन में हो ही नहीं सकती परंतु यह माया/प्रकृति से झूठा संबंध जोड़कर अपने आप को बंधन में समझता है-- शरीर और संसार को "मैं "और "मेरा " मान लेता है। इसीलिए इसका ‘जन्म-मृत्यु’ प्रतीत होता है। आत्मा शुद्ध चेतन ब्रह्म का अंश है। वह माया से संबंध स्थापित करने के कारण जीव कहलाता है। यह सब मानने पर प्रश्न उठता है कि जब आत्मा का कहीं आना-जाना होता ही नहीं है केवल प्रतीति होता है तो फिर आवागमन से छूटने का प्रयास क्यों किया जाए? जो बंधन वास्तव में है ही नहीं, उसके लिए क्या छुटकारा ? इसका समाधान है कि आत्मा तो शुद्ध है उसका आवागमन हो ही नहीं सकता। जीवात्मा के लिए ही मोक्ष के साधन बताए जाते हैं। दुख-सुख जीवात्मा को होते हैं क्योंकि, जैसा कि ऊपर बताया जा चुका है, यह माया से संबंध जोड़े हुए हैं और अपना असली स्वरूप भूले हुए है। विद्वान लोग जीव को ही भोक्ता मानते हैं। कोई-कोई कहते हैं कि मन, बुद्धि और अहंकार ही भोग भोगते हैं। उत्तर है कि ये जड़ हैं और भोक्ता नहीं हो सकते। यह सब माया के विकार हैं और उनके रहने का स्थान है अंतः करण। इसलिए माया से संबंध जोड़ने वाला आत्मा अथवा पुरुष/जीव ही दुख और सुख को भोगता है। हम आगे जो बात कर रहे हैं वह जीव की मुक्ति की है अर्थात् मोक्ष, माया/ प्रकृति और उससे संबंध जोड़नेवाले आत्मा, जो जीवात्मा कहलाता है, का ही होता है। गीता में भी यही कहा गया है कि क्रिया प्रकृति में है और दुख-सुख का भोक्ता पुरुष है। प्रकृति में स्थित पुरुष प्रकृति के गुणों का भोक्ता बनता है, और गुणों का संग करने के कारण ऊँची-नीची योनियों में जन्म लेता है।@@भागवत में विदुर जी का ज्ञानवर्धन करते हुए मैत्रेयजी बताते हैं कि जो आत्मा सबका स्वामी है और मुक्तस्वरूप है वही दीनता और बंधन को प्राप्त हो-- यह बात युक्ति के विरुद्ध है, और यही तो भगवान की माया है! सपने में हम अपना सिर कटना आदि देखते हैं और हमें यह सत्य प्रतीत होता है, परंतु यह सत्य नहीं है। उसी प्रकार जीव को, उसका बंधन ना होते हुए भी ऐसा लग रहा है कि वह बंधन में है। फिर प्रश्न उठता है कि आत्मा जो कि ईश्वर का अंश है उसे तो यह सब भास रहा है और वह माया के बंधन में भी है, ईश्वर इस बंधन में क्यों नहीं? इसका उत्तर भी यह है कि जैसे चंद्रमा में कोई कंपन नहीं है। जल में चंद्रमा की जो छायाँ पड़ रही है उसमें हमें कंपन नज़र आता है यदि जल में कंपन हो। चंद्रमा में यह कंपन नज़र नहीं आता। इसी तरह अपने को शरीर समझने वाले जीव को ही दुख और सुख की अनुभूति होती है, ईश्वर को नही।=भागवत में( दूसरे स्कंध के दूसरे अध्याय)दो प्रकार की मुक्तियों का वर्णन मिलता है। एक को सद्यो मुक्ति बोलते हैं क्योंकि सीधे ही मुक्त होना होता है, दूसरी क्रम मुक्ति है: एक लोक से ऊँचे लोक में फिर उच्चतर लोक में और फिर भगवान के धाम में या परमब्रह्म में लीन होना बताया गया है। सद्यो मुक्ति में योगी मन और इंद्रियों को छोड़कर ब्रह्मरंध्र से शरीर का त्याग करता है और ब्रह्म ज्योति में लीन होता है अथवा भगवत धाम को जाता है। ऐसा वे योगी ही कर सकते हैं जिन्होंने प्राणवायु पर पूरी तरह से विजय प्राप्त करली और जिनकी कोई भौतिक इच्छाएँ नहीं है। ब्रह्मरंध्र से प्राण त्यागने हेतु योगी बाकी के छः छेद-- दो आँख, दो कान दो नासिका और एक मुँह को बंद कर देता है ताकि यहीं (ब्रह्मरंध्र) से प्राण निकले। जो योगी ब्रह्मलोक में जाने की इच्छा रखता है वह अपने मन और इंद्रियों को साथ लेकर जाता है। पहले आकाशमार्ग से अग्निलोक में जाता है, फिर श्रीहरि के शिशुमार चक्र में पहुँचता है, वहाँ से महरलोक जाता है और महरलोक से ब्रह्मलोक। यहाँ पर निर्भय होकर सूक्ष्म शरीर को पृथ्वी से मिला देता है, फिर पृथ्वी को जल से, जल को अग्नि से, अग्नि से वह वायुरूप और आकाश आवरण में जाता है। श्री श्रीधर स्वामी के अनुसार दृश्य जगत का विस्तार चार अरब मील का है। इसके पश्चात अग्नि का आवरण आता है, फिर वायु का और उसके पश्चात आकाश का। यह सब आवरण अपने से पहले वाले आवरण से दस गुना विस्तार वाले होते हैं। भूतों के सूक्ष्म और स्थूल आवर्णों को पार करके अहंकार में प्रवेश करता है। अहंकार से महतत्व में और यहाँ से प्रकृतिरूप आवरण में चला जाता है। महाप्रलय के समय जब प्रकृति रूप आवरण का भी लय हो जाता है तब योगी अपने स्वरूप में स्थित हो जाता है अर्थात् निरावरण हो जाता है। कृष्ण ने गीता में अर्जुन को लगभग ऐसा ही ज्ञान दिया है। ==जो कैवल्य मुक्ति अथवा एकत्व मुक्ति नहीं चाहते वह क्रमशः अग्नि, ज्योति, दिन, शुक्ल-पक्ष और उत्तरायण आदि के अभिमानी देवताओं के स्वरुप को प्राप्त होते हुए अमानव पुरुष के द्वारा दिव्य अप्राकृतिक शरीर से भगवान के परमधाम को ले जाए जाते हैं। इन्हें भक्तोंवाली मुक्तियाँ-- सारूप्य, सार्ष्टि, सालोक्य, सायुज्य(?) व सामीप्य-- मिलती है।श्री गोपीनाथ कविराज का कथन है सकामियों को, जो पितृयान से जाते हैं, तो वापस आना पड़ता है। क्रम मुक्ति उनकी होती है जिनमें ज्ञान और कर्म का मिश्रण होता है। कर्म का अंश ज्यादा होने पर एक के बाद एक ऊँचे लोकों में जाना पड़ता है--- हर स्टेशन पर उतरना पड़ता है वहाँ के भोग भोगने के लिए। पूर्ण ज्ञानी को कहीं नहीं जाना पड़ता, वह सीधे ही परमब्रह्म में लीन हो जाता है (और ज्यादा विस्तार से ‘लोक परलोक’ लेख में बताया गया है) । जिनमें ज्ञान का अंश ज्यादा होता है वह सीधे ही ब्रह्मलोक में जाते हैं। इनमें से जो कम ज्ञानी होते हैं या कम अधिकार रखते हैं, उन्हें ब्रह्माजी के लोक में सालोक्य मुक्ति मिलती है, ज्यादा अधिकार वालों को सारूप्य और भी उच्च अधिकारियों को सार्ष्टि व सामीप्य और जो चरम अवस्था में होते हैं उन्हें सायुज्य मुक्ति मिलती है। महाप्रलय के समय ब्रह्मांड के नाश होने के साथ-साथ ब्रह्माजी भी समाप्त हो जाते हैं। श्री गोपीनाथजी के अनुसार, उनके (ब्रह्माजी) अंगीभूत जीव परमब्रह्म के साथ अभेद प्राप्त करते हैं। जीव अपने -अपने इष्ट देव को प्राप्त होते हैं। गणपति के भक्त गणपति को, विष्णु के भक्त विष्णु को और देवी के भक्त देवी को प्राप्त होते है। यह उन लोगों की बात कर रहे हैं जो सीधे अपने इष्ट के लोक में नहीं जाते वरण क्रमानुसार ऊपर उठते हैं अर्थात् एक के बाद एक उच्चत्तरलोकों में जाते हुए अंत में परमधाम, वैकुण्ठ आदि हो जाते हैं।अब अलग-अलग प्रकार की मुक्तियों का वर्णन वेदों से l मुक्ति के संबंध में हनुमानजी को समझाते हुए रामजी ने विभिन्न प्रकार की मुक्तियों का मुक्ति-उपनिषद में वर्णन किया है। “कपि! कैवल्यमुक्ति तो एक ही प्रकार की है, वह परमार्थ रूप है। इसके अलावा मेरे नाम स्मरण करते रहने से दुराचार में लगा हुआ मनुष्य भी सालोक्यमुक्ति को प्राप्त होता है। वहाँ से वह अन्य लोकों में नहीं जाता। काशी क्षेत्र में मरनेवाला मेरे तारकमंत्र को प्राप्त करता है और उसे वह मुक्ति मिलती है जिससे उसे आवागमन में नहीं आना पड़ता। काशी क्षेत्र में शंकरजी जीव के दाहिने कान में मेरे तारकमंत्र का उपदेश करते हैं जिससे उसके सारे पाप धुल जाते हैं और वह मेरे सारूप्य को, समान रूप को प्राप्त हो जाता है। वही सालोक्य-सारूप्य मुक्ति कहलाती है। जो एकमात्र मेरा ही ध्यान करता है वह मेरे सामीप्य को प्राप्त करता है, सदा मेरे समीप रहता है। निराकार स्वरूप का ध्यान करने वाला सायुज्यमुक्ति को प्राप्त होता है।’’समस्त प्रकार की मुक्तियों का सार श्री जयदयाल जी गोयनका समझाते हैं l भेद उपासना के अनुसार मुक्तिययाँ चार प्रकार की है: सालोक्य, सामीप्य, सारूप्य --- इन तीनों में साधन में भी भेद और फल में भी भेद है। चौथी सायुज्यमुक्ति में साधन में तो भेद है पर फल में भेद नहीं होता। शरीर छोड़ने के बाद भगवान के धाम में जाकर उनके लोक में निवास करने को सालोक्य मुक्ति कहते हैं। यह वात्सल्य भाव से जो भगवान की उपासना करते हैं उन्हें प्राप्त होती है। जैसे भगवान के रुप अनेक हैं ऐसे ही लोक भी अनेक हैं। भगवतधाम या यूँ कहें नित्य धामों का सामान्य नाम वैकुंठ है। यह लोक नित्य है। यह महाप्रलय में भी नष्ट नहीं होता, ज्यों का त्यों बना रहता है। यहाँ भगवान अपने पार्षदों के साथ निवास करते हैं। इस लोक में सूर्य, चंद्र, अग्नि का प्रकाश नहीं होता है, स्वयं प्रकाश है। यह पूरी तरह अप्राकृत है। यहाँ पहुँचकर जीव वापस जन्म-मृत्यु के चक्कर में नहीं पड़ता। जहाँ भगवान कृष्ण रूप से विराजते हैं वह गोलोक है, श्रीराम का साकेत, देवि का मणिद्वीप, शिवजी का कैलाश और इसी प्रकार भगवान के अन्य रूप अन्य लोकों में रहते हैं।भगवान के अलग-अलग रूप और लोक क्यों है? इसका समाधान यह है कि जैसा भक्त चाहता है सर्वशक्तिमान वैसा ही बन जाता है अपने भक्तों के लिए। यह सिद्धांत मुद्गल उपनिषद् में, गीता में व भागवत में ब्रह्माजी ने कृष्ण की स्तुति करते हुए बताया है। ०(इस लेखक का लेखक की साईट पर अंग्रेजी में इसी विषय पर एक लेख है- 'आई एम एज़ माय सर्वेंट थिंक्स / एक्सपैक्टस आई एम' ) । सामीप्य, दास भाव से या मधुर भाव से भगवान की उपासना करने वाले को प्राप्त होती है। वह भगवान के लोक में भगवान के समीप निवास करता है। ( प्रभुपादजी के अनुसार यह भगवान का साक्षात पार्षद् बनता है)। भगवान के धाम में जाकर भगवान का जैसा रूप पा लेना सारूप्य मुक्ति है। रूप तो भगवान जैसा हो जाता है परंतु थोड़ा-सा अंतर रहता है जैसे कि श्रीवत्स का चिह्न नहीं मिलता आदि । यह सखा भाव से भगवान की उपासना करनेवाले को प्राप्त होती है। भगवान के स्वरुप में अभेद रूप से लीन हो जाने को सायुज्य मुक्ति या एकत्व कहते हैं।कोई इसे कैवल्य मोक्ष भी कहते हैं, इसी को निर्वाण बताते हैं। जिनकी भक्ति में ज्ञान भी है और जो शांत भाव से भगवान की उपासना करते हैं, सायुज्य मुक्ति उन्हें प्राप्त होती है। ऐसे ही वैर, द्वेष और भय से भगवान को भजनेवालों को भी यही मुक्ति मिलती है।भागवत पर भी थोड़ा गौ़र करें: जय दयाल जी की बात भागवत से पूर्णता मेल नहीं खाती है। भगवान की दुश्मनी और डर से दंतवक्त्र, शिशुपाल वअन्य राजागण जैसे पौंड्रक और कंस आदि को मुक्ति मिली; परंतु, कृष्ण से बैर और भय करने के कारण इन्हें उन्हीं का, भगवान का, शरीर प्राप्त हुआ। π कृष्ण के शरीर में शिशुपाल व दंतवक्त्र तो ज्योति के रूप में समाए। यह दोनों भगवान के पार्षद् थे जय और विजय, तीन जन्मों तक लगातार भगवान से बैर साधा और फिर शाप मुक्त हो उन्हीं के लोक में चले गए, फिर से इन दोनों ने अपना पार्षद वाला शरीर प्राप्त कर लिया। अभेद रूप से परम पुरुष वैकुंठ अधिपति श्री नारायण में लीन नहीं हुए। लिहाज़ा इन दोनों की सायुज्य मुक्ति नहीं हुई। पौंड्रक को भगवान का रूप प्राप्त हुआ । भगवान के रूप ही की कंस को प्राप्ति हुआ। भृंगी-कीट के उदाहरण से तो कृष्ण का स्वरूप ही प्राप्त होना था। जिसका ध्यान किया जाता है तन्मयता से, उस का ही रूप, प्राप्त होता है, भाव चाहे कोई सा भी हो--- प्रेम, भय, बैर आदि। ऐसी सूरत में निष्कर्ष यही है कि पौंड्रक और कंस को सायुज्य मुक्ति प्राप्त नहीं हुई, हालांकि वह क्रमशः बैर और डर से कृष्ण का पूरी तन्मयता से सुमिरन करते थे। इन्हें सारूप्य प्राप्त हुआ। और भी ज्यादा गहनता से गौ़र किया जाए तो इन दोनों प्रकार की मुक्तियों में बहुत ज्यादा अंतर भी नहीं है। एक में भक्त भगवत स्वरुप हो जाता है, उसमें और भगवान में कोई भेद नहीं रहता।तो दूसरी में उसे भगवान का जैसा रूप मिल जाता है,परंतु भक्त व भगवान में भेद रहता है।पृथक होने पर भी रूप एक ही हैlसायुज्य मुक्ति के लिए वेद का कथन है कि जिस प्रकार नदियों का जल अपने नाम-रूप को छोड़कर समुद्र में मिलकर समुद्र ही हो जाता है उसी प्रकार साधक भगवान में लीन होकर भगवद्स्वरूप हो जाता है । ०० परंतु , आत्मा की सत्ता का अस्तित्व बना ही रहता है। आत्मा और परमात्मा में एकत्व हो जाता है। अभेद हो जाने से क्या होता है, इसकी कुछ कुछ झलक हमें बालक ध्रुव के वृतांत में भागवत में मिलती है। भगवान देवताओं को समझाते हैं - "इस समय मेरे साथ उसकी अभिन्न धारणा सिद्ध हो गई है इसीसे उसके प्राण निरोध से तुम सबका प्राण भी रुक गया है... मैं बालक को तप से मुक्त कर दूँगा, तुम लोग जाओ।’’ अगर यहाँ पर बालक ध्रुव की आत्मा परमात्मा में समा जाने से समाप्त हो गई थी तो भगवान उसको तप से निवृत्त करने की बात क्यों कहते हैं? एकत्व में, सायुज्य मोक्ष में, कैवल्य मोक्ष में आत्मा समाप्त नहीं होती, परंतु इस तरह परमतत्व के साथ एक हो जाती है कि दोनों अभिन्न हों, फिर भी दोनों का अस्तित्व हो। जैसे, चंदन का बुरादा पानी में मिलकर पानी नहीं बनता, बल्कि पानी से एकमेव हो जाता है।दास भाव वाले हनुमान जी को कल्पांत में सायुज्य मुक्ति मिलेगी, अध्यात्म रामायणानुसारl•योगी लोग प्राकृत ऐश्वर्य का वर्णन करते हैं। योग के द्वारा प्रकृति और पुरुष एक हो जाते हैं। यह अवस्था ईश्वर का स्वरुप है। शक्ति और शैव्यागमों के अनुसार पूरी तरह से अनंत सत्ता में सत्तावान होना, अनंत लीला का अभिनय करना ही पूर्णता को प्राप्त करना या मुक्ति पाना है। इसमें अभिनय करते ही नहीं बल्कि अभिनय देखते भी हैं, तटस्थ रूप से नहीं बल्कि भावरंजित दृष्टि से। लीलातीत में अखंड आनंद है और लीला में अनंत विचित्रता है। यही पूर्णता है--- इसमें एक साथ विश्व और विश्वातीत होने का अनुभव रहता है। बाकी की तीन मुक्तियों में--सारूप्य, सालोक्य व सामीप्य- शरीर, मंन, बुद्धि और इन्द्रियाँ रहते हैं। राजा जनक व्यास पुत्र शुकदेवजी को मुक्ति का स्वरुप समझाते हैं, महोपनिषद के द्वितीय अध्याय में - "मुक्ति की अवस्था में जीव की ना उन्नति होती है ना अवनति होती है और ना उसका लय ही होता है; वह अवस्था ना तो सत् है, ना तो असत् है और ना दूरस्थ है। उसमें ना अहंभाव है और ना पराया भाव है। विदेह, मुक्ति गंभीर स्तब्ध अवस्था होती है; उसमें ना तेज व्याप्त होता है और ना अंधकार। उसमें अनिर्वचनीय औरअभिव्यक्त ना होने वाला एक प्रकार का सत् अवशिष्ट रहता है। वह ना शून्य होता है ना आकारयुक्त, ना दृश्य होता है और ना दर्शन होता है..... इसमें भूत और पदार्थों के समूह नहीं होते-- केवल सत् अनंत रूप से अवस्थित होता है।यह अद्भुत तत्व है जिसके स्वरूप का निर्देश नहीं किया जा सकता … इसका आदि मध्य अंत नहीं होता, संकल्प हीनता होती है..।’’व्यासजी का मत है कि इस कैवल्य-मोक्ष में मन और इंद्रियाँ नहीं रहतीं। जैमिनी का मत इसके विपरीत है कि मुक्ति की अवस्था में भी मन और इंद्रियाँ बनी रहती है। इन दोनों मतों का समन्वय करते हुए शंकराचार्यजी ब्रह्मसूत्र के भाष्य में स्पष्ट करते हैं कि आत्मा सत्य संकल्प है; जब शरीरता का संकल्प करता है तब इसके पास शरीर हो जाता है, जब वह अशरीरता का संकल्प करता है तब शरीर नहीं रहता। कहने का तात्पर्य है कि आत्मा की सत्ता का कभी अभाव नहीं होता। पद्म पुराण में महामुनि का शरीर भगवान में लीन हो गया था और फिर से नारायण मुनि के रूप में प्रकट हुआ। इसी प्रकार नरसिंह पुराण में ब्राह्मण और वेश्या दोनों एक साथ भगवान ने लीन हो गए। उसके बाद पुन: पत्नी के साथ प्रहलाद के रूप में प्रकट हुए। यह कथा नरसिंह चतुर्दशी व्रत के प्रसंग में आती है। इन सबसे ऐसा प्रतीत होता है कि आत्मा की सत्ता कभी समाप्त नहीं होती।इसके अलावा कोई-कोई संत समर्ष्टि मुक्ति भी बताते हैं, जिसमें ऐश्वर्य भगवान जितना भक्त को प्राप्त हो जाता है। ऊपर बताई गए सभी प्रकार की मोक्ष में भक्त भगवान जैसा ही बन जाता है; परंतु उसमें जगत को बनाने की, जगत के पालन की और जगत के संहार करने की शक्ति नहीं होती है, ना ही कर्मों के अनुसार जीवों को फल देने की। यह शक्तियाँ भगवान अपने पास ही रखते हैं ! जो भगवान के वास्तविक भक्त होते हैं वह यह सब-- पाँच मुक्तियाँ- नहीं चाहते। उन्हें तो भगवान की सेवा ही चाहिए। पाठकों को स्मरण होगा कि भागवत का आरंभ ही ऐसे होता है: "इसमें अर्थ-धर्म-काम-मोक्ष के अलावा धर्म का निरूपण किया जा रहा है।” । ∆ चैतन्य महाप्रभु ने तो मोक्ष को डाकिनी बताया है। "मैं आपसे इतना ही चाहता हूँ कि जन्म-जन्मांतर आपके चरणकमलों का शुद्ध भक्त बना रहूँ.”... चैतन्य चरितामृत। यह जन्म-मृत्यु से नहीं घबराते, इन्हें तो बस भगवान का साथ चाहिए, इसके अलावा कुछ नहीं।यह सब विदेह मुक्तियाँ हैं। इसके अलावा शरीर के रहते हुए ही जीवनकाल में ही मोक्ष प्राप्त करनेवाले को जीवनमुक्त कहते हैं। जीवनमुक्त कैसा होता है? मुक्ति उपनिषद् के दूसरे अध्याय में हनुमानजी को समझाते हुए रामजी आगे बताते हैं कि जीवनमुक्ति क्या है? "हनुमन ! मैं भोक्ता हूँ, मैं कर्ता हूँ, मैं सुखी हूँ और मैं दुखी हूँ…….आदि जो ज्ञान है, वह चित् का धर्म है। यही ज्ञान क्लेश रूप होने के कारण उसके लिए बंधन का कारण हो जाता है। इस प्रकार के ज्ञान का निरोध जीवनमुक्ति है।’’ जीवनमुक्ति का वर्णन भागवत में भी है। कृष्ण उद्धव को समझाते हैं। "जीवनमुक्त पुरुष भला-बुरा कुछ काम नहीं करते, ना ही सोचते हैं, आत्मानंद में ही मग्न रहते हैं, जड़ के समान रहते हैं जैसे कोई मूर्ख हो। " कैसे मान लें कि जीवनमुक्त पुरुष कोई कार्य नहीं करते जबकि वह सब कुछ करते हुए दिखते हैं? उठते हैं, बैठते हैं, आते हैं, जाते हैं, खाते हैं, पीते हैं, सोते हैं, जागते हैं, मल त्यागते हैं, बोलते हैं…. आदि। इसका समाधान श्री जयदयाल गोयंदका ने किया है अपनी पुस्तक 'तत्व चिंतामणि' में जीव संबंधित प्रश्न- उत्तर में। उनका समझाना है कि लोकदृष्टि में जीवनमुक्त कर्म करता हुआ प्रतीत होता है। परंतु, वास्तव में उसका कर्मों से कोई संबंध नहीं होता। संबंध बिना कर्म कैसे होते हैं? उत्तर : वास्तव में वह किसी कर्म का कर्ता नहीं है। प्रारब्ध का जो भाग बचा हुआ है उसके भोग के लिए ही उसी के वेग से कुलाल के ना रहने पर भी कुला चक्र की तरह कर्ता के अभाव में भी परमेश्वर की सत्ता-स्फूर्ति से पूर्व स्वभावानुसार कर्म होते रहते हैं। परंतु, यह कर्तृत्वाभिमान से शून्य होते हैं, इसलिए किसी नए पाप या पुण्य का उत्पादन नहीं होता है। लिहाजा यह कर्म नहीं समझे जाते हैं। इसे ऐसा भी समझा जा सकता है कि धक्का देने पर पहिया घूमता है और काफी समय तक घूमता ही रहता है। धक्का समाप्त होने पर भी कुछ देर तक घूमता है और उसके बाद शांत होता है। जगतगुरुत्तम कृपालुजी ने बहुत ही सुंदर शब्दों में स्पष्ट किया है कि जीवनमुक्तों का कर्त्ता (गवर्नर(governor,)भगवान होता है। इनके द्वारा कर्म नहीं किए जाते बल्कि भगवान द्वारा ही किए जाते हैं। गीता में इन लोगों को स्थिर बुद्धिवाला, योगारूढ़, गुणातीत (ज्ञानी)और भक्त कहा गया है। ऐसे लोगों में कोई कामना नहीं होती है। यह राग, भय और क्रोध से तथा कामना से, ममता से, स्पृहा से रहित होते हैं। सुख और दुख को सम मानते हैं। जैसे कछुआ अपने अंगों को समेट लेता है ऐसे ही स्थिर बुद्धि वाला इंद्रियों के विषयों से इंद्रियों को हटा लेता है। इन लोगों के लिए मिट्टी और सोने में कोई फ़र्क़ नहीं। चांडाल, ब्राह्मण गाय, गधा, हाथी, कुत्ता, मित्र-शत्रु, साधु-दुष्ट, दुराचारी-सदाचारी--- सब में--- परमात्मा दिखता है। ऐसे लोग ब्रह्म में स्थित रहते हैं। ऐसे महापुरुष अपने को कर्ता नहीं मानते। प्रकृति के गुण सब कार्य कर रहे हैं, ऐसा यह जानते हैं। ∆∆ भक्त को तो हर जगह भगवान श्रीकृष्ण ही नजर आते हैं। इस संसार की हर परिस्थिति, व्यक्ति और पदार्थ में --- चाहे अनुकूल हों, चाहे प्रतिकूल हों-- यह लोग सम रहते हैं, एक-सा ही मानते हैं, ना हर्षित होते है ना दुखी। “हे अर्जुन! जिस पुरुष के अंतःकरण में ‘मैं कर्त्ता हूँ' ऐसा भाव नहीं है तथा जिसकी बुद्धि सांसारिक पदार्थों में और संपूर्ण कर्मों में लिपायमान नहीं होती वह पुरुष इन सब प्राणियों को मारकर भी वास्तव में ना तो मारता है और ना पाप से बंधता है।××अन्य धर्म भी ऐसी बातें बताते हैं lदीवाने शम्से तब्रीज में आर ए निकलसन समझाते हैं कि खुदा से एकता हो जाने के कारण कार्य फकीर के नहीं होते वे तो खुदाई होते हैं अर्थात कर्त्ता ईश्वर होता है l जलाल उद्दीन रूमी अपने ग्रंथ मसनबी में लिखते हैं कि फकीर जिसने भगवत्प्राप्ति कर ली है उसके लिए कयामत के दिन कारनामों की किताब नहीं देखी जाती क्योंकि ऐसे लोग कुछ करते ही नहीं l उनके कर्त्ता भगवान होते हैं l बाइबिल में इसी प्रकार बताती है कि कर्त्ता भगवान है l ÷शरीर रहते हुए मुक्त होने का सबसे सरल उपाय गीता बताती है। कृष्ण की शरण में रहना, अनन्य चित्तवाला होना और हमेशा कृष्ण का स्मरण करना। सब कर्म कृष्ण की प्रसन्नता के लिए करना, कोई भी कर्म करे तो ऐसा समझना कि कृष्ण की पूजा है, फल की कोई इच्छा ना रखना और समस्त कर्म कृष्ण को अर्पण करना।कपिल भगवान की माता देवहुति के शरीर की हालत मोक्ष के पहले क्या थी इसका वर्णन भागवत में मिलता है । “वह निरंतर समाधि में रहती थीं। वह जान गईं कि विषय अनित्य हैं, सत्य नहीं है, इनसे सुख नहीं मिल सकता। उन्हें अपने शरीर की सुध भी नहीं रहती थी, जैसे जागे हुए व्यक्ति को अपने सपनों में देखे हुए शरीर की नहीं रहती। उनके शरीर का पोषण दूसरे लोग ही करते थे। उन्हें कोई दुख नहीं था इसलिए शरीर कमजोर नहीं हुआ--- शरीर पर तेज था। शरीर की रक्षा प्रारब्ध ही करता था। उन्होंने शीघ्र ही भगवान को प्राप्त कर लिया।’’ इससे यह बात साफ है कि जो लोग जीते जी ही माया के बंधन से मुक्त हो चुके होते हैं, उनका शरीर कमजोर नहीं होता हालांकि उन्हें खाने-पीने की सुध नहीं होती है। भगवान की कृपा से दूसरे लोग ही उनको खाने-पीने की सामग्री देते हैं जुटाकर और शरीर पर एक तेज होता है, कोई दुख नहीं होता हमेशा एक आनंद में रहते हैं।ऊपर हम देख चुके हैं कि श्रीराम ने हनुमान को मुक्ति उपनिषद के पहले अध्याय में उपदेश दिया है कि पापी भी यदि भगवान का नाम ले तो मुक्त हो जाता है। भगवान के नाम की महिमा अपार है। रूप ध्यान सहित नाम जप भगवत्प्राप्ति का, मुक्तिका( चारों प्रकार की मुक्ति जो भक्तों को मिलती हैं जिसका वर्णन ऊपर किया गया है)/ व अनंत काल के लिए भगवान की सेवा की प्राप्ति का, जिसे भक्त समस्त प्रकार के मोक्ष ठुकराकर माँगते हैं, सबसे सहज साधन है। चेतन महाप्रभु ने मुक्ति को डाकिनी बताया। भक्त भगवान से एकत्व नहीं चाहते, भक्त प्रेम चाहते हैं। प्रेम में दो का होना जरूरी है-- एक प्रेम करने वाला और एक वो जिससे प्रेम किया जाए। जीव को चैतन्य महाप्रभु ने कृष्ण का नित्य दास बताया है।रामानुजाचार्य इस दास भाव को शेष-शेषी भाव कहते हैं।माधवाचार्य जीव को हरि का अनुचर कहते हैं।और, तुलसीदासजी कहते हैं सेवक और सेव्य भाव के बिना भवसागर से पार नहीं जाया जा सकता +इन्हीं कारणों से भक्त भगवान की सेवा ही माँगते हैं।इसका मनोवैज्ञानिक कारण भी है। भोगों से, विषयों से, इंद्रियों के आनंद से अलग होना दुर्गम है, इनका दमन करना मुश्किल है। इन्हें भगवान की ओर मोड़ना आसान है। भक्ति में राग रहता है, परंतु यह राग भगवान से होता है, इसलिए बंधनकारी नहीं है, भगवान की प्राप्ति कराने वाला है। भागवत में मुक्ति को भक्ति की दासी बताया है। स्वामिनी को छोड़ दासी की ओर जाना, क्या बुद्धिमानी है? ज्ञान और वैराग्य इसके पुत्र हैं। जहाँ भक्ति जाती है वहाँ उसकी दासी और पुत्र भी अपने आप जाते हैं। इस प्रकार भक्ति करने से मुक्ति, ज्ञान और वैराग्य स्वयंमेव मिल जाते हैं।मुक्ति मिलती है माया से जीव द्वारा स्थापित किए गए संबंध को तोड़ने से। इस संबंध को तोड़ने के, मुक्ति प्राप्त करने के, प्रहलादजी ने दस उपाय बताए हैं : मौन, ब्रह्मचर्य, शास्त्र-श्रवण, तपस्या, स्वाध्याय, स्वधर्म पालन, शास्त्रों की व्याख्या, एकांत सेवन जप और समाधि। बहुत से विद्वान, जैसे श्री प्रभुदत्त ब्रहमचारी ने इन पर विस्तार से टीका लिखी है, परंतु भक्ति मार्ग वाले इन दसों बातों पर विशेष ध्यान नहीं देते। चैतन्य महाप्रभु का मत है कि मनुष्य को चौबीस घंटे भगवान की महिमा का कीर्तन करते रहना चाहिए, मौन की आवश्यकता नहीं।(सत्संग पर लेख देखें)। प्रभुपाद जी के अनुसार यह दस विधियां भक्तों के लिए नहीं है।मोक्ष को माया को पार करना भी कहते हैं। माया को कैसे पार करें? श्रीकृष्ण गीता में हमें बताते हैं कि माया उनकी है। इससे पार पाना कठिन है। उनकी शरण में जाने से इसे पार किया जा सकता है। निष्कर्ष यही निकला कि मोक्ष पाने का सबसे आसान उपाय भगवान की भक्ति है और भगवान की भक्ति के सभी अधिकारी हैं राक्षस, पशु, पक्षी, स्त्री पुरुष, सभी । ÷÷ अर्थात् सभी मोक्ष पाने के और भगवत धाम जाने के अधिकरी हैं। विशेषकर मानव शरीर तो भगवत प्राप्ति के लिए ही मिला है। यह देवदुर्लभ है। अभी मिल गया है तो इससे अपना काम बना लेना चाहिए ना जाने फिर कितने सर्गों के बाद में प्राप्त हो।कुछ लोगों का मानना है कि मुक्ति तो होती है परंतु हमेशा के लिए नहीं। महाप्रलय तक ही मुक्ति रहती है। जब सृष्टि होती है तब जीव को वापस आना पड़ता है। यह बात मान ली जाए तो मुक्ति तो स्वर्ग आदि लोको में जाने जैसी ही हो गई, फिर स्वर्ग प्राप्ति और मुक्ति में क्या अंतर हुआ। ना तो दुखों का अभाव हुआ ना ही सुख का मिलना! इसलिए इन लोगों की यह बात गलत है। गीता में कृष्ण ने बताया है कि उनके धाम में जाने के बाद वापस नहीं आना पड़ता, कृष्ण का धाम प्राकृतिक लोकों जैसा नहीं है, वह सूर्य और चंद्र या अग्नि का प्रकाश नहीं होता।मुक्ति के विरुद्ध यह भी कहा जाता है कि यदि सभी जीव मुक्त हो गए तो संसार में कोई जीव ही नहीं रहेगा संसार चल ही नहीं पाएगा। यह भी बेबुनियाद है। प्रथम तो जीव अनंत हैं कितनों की ही मुक्ति हो जाए अनंत जीव बचेंगे ही, क्योंकि अनंत में से अनंत निकाला जाए तो अनंत ही शेष रहता है। दूसरे, श्रीकृष्ण ने स्वयं कहा है कि उनकी प्राप्ति करने के लिए हजारों में से कोई एक प्रयास करता है, और ऐसा प्रयास करने वालों में से कोई बिरला ही उन्हें पूर्णतः जान पाता है। इस तरह से मोक्ष पाने वाले जीवों की संख्या ना के बराबर ही है। लिहाजा मुक्ति के विपक्ष के उपरोक्त दोनों ही पक्ष सत्य प्रतीत नहीं होते। ऊपर जिन पुराणों-वेदों की चर्चा की गई है उनके अनुसार मुक्ति सत्य है।ऊपर बताई गई पाँचों मुक्तियों में थोड़ा-थोड़ा अंतर है। यह अंतर साधना भेद से है। जो निराकार ब्रह्म की साधना करता है, “ ब्रह्म ही सब कुछ है, ब्रह्म के अलावा कुछ नहीं, जो ब्रह्म है वह मैं हूँ, मैं ही ब्रह्म हूँ मेरे सिवाय कुछ नहीं, मैं और ब्रह्म एक ही हैं।’’ ऐसी साधना करने वाले साधक ब्रह्म से एकत्व प्राप्त करते हैं, परमसत्ता में लीन हो जाते हैं। इसे कैवल्य मोक्ष भी कहा है। दूसरे कई भक्त जो स्वयं को अपने इष्ट / भगवान के तद्रूप मानते हैं, वे भगवान में लीन हो जाते हैं, यह साकार भगवान में लीन होते हैं। उदाहरण के तौर पर जो स्वयं को कृष्ण मानते हैं, "मैं कृष्ण हूँ, कृष्ण और मैं एक ही हैं’’ वह लोग कृष्णरूप हो जाते हैं (कृष्ण का सारूप्य नहीं) यह सायुज्य मुक्ति है। गोपाल उत्तर तापनी उपनिषद व भागवत के छठे स्कंद में नारायण कवच के प्रसंग में, इस प्रकार की साधना का वर्णन मिलता है। जो निराकार ब्रह्म में लीन होता है उसकी मुक्ति और जो साकार भगवान में लीन होता है उसकी मुक्ति में बस इतना-सा ही अंतर होता है। परंतु, इन सभी मुक्तियों में बहुत-सी समानताएँ हैं। मुक्ति चाहे किसी भी प्रकार की हो इससे प्रकृति से संबंध विच्छेद हो जाता है। शरीर और शरीर के सारे क्लेश मिट जाते हैं अर्थात् दुख की निवृत्ति हो जाती है। आवागमन से छुटकारा मिलता है। दोबारा जन्म नहीं लेना पड़ता। हाँ, भगवान की आज्ञा से पुनः इस संसार में आ सकते हैं। भगवान की लीलाओं में भी भगवान की इच्छानुसार भाग लेने के लिए दुनिया में आ सकते हैं।दुख निवृत्ति तो समस्त दर्शन बताते हैं। कुछ दर्शन आनंद प्राप्ति भी बताते हैं। इस आनंद प्राप्ति पर विचार करना उचित होगा। यह सुख किस प्रकार का होता है यह हम गीता से जानेंगे । निश्चित तौर पर यह सुख मायिक /प्राकृतिक नहीं होता, क्योंकि माया/ प्रकृति से मुक्ति में हमारा संबंध विच्छेद हो चुका है; हमारा और उसका अब कोई लेना-देना नहीं। यह सुख प्रकृति से परे है। इस सुख को बुद्धि नहीं जान सकती। यह सुख अपनेआपसे अपनेआपमें अपनेआपको मिलता है। इसे स्वरूपबोध भी कहते हैं.. यह सुख प्राप्त होने के बाद इससे और ज्यादा मात्रा का कौन-सा सुख होगा ऐसा विचार ही नहीं आता, इसे आत्यंतिक सुख, एेकांतिक सुख, गुणातीत सुख और आत्मिक सुख भी कहते हैं। इससे मिलता-जुलता सुख सुषुप्ति में भी गाढ़ी नींद में मिलता है, परंतु तब बुद्धि नहीं होती है। आत्मिक सुख में मन और बुद्धि दोनों रहते हैं, परंतु इस सुख का अनुभव नहीं कर पाते क्योंकि यह सुख इनसे पर है इसलिए स्वरुप ही इसका अनुभव कर सकता है। रामसुखदास जी ने बहुत अच्छी तरह इसको समझाया है- “यह संपूर्ण सुखों की आखिरी हद है---इससे मनुष्य कभी चलायमान नहीं होता। समाधि से तो व्युतत्थान होता है, परंतु इस सुख से नहीं क्योंकि प्रकृति से संबंध विच्छेद हो चुका है, इसलिए प्राकृतिक दुख अब यहाँ तक नहीं पहुँच सकते, उसका स्पर्श नहीं कर सकते। इसलिए, शरीर पर कैसी ही विपत्ति क्यों ना आए ऐसा सुख पानेवाला अपनी स्थिति से विचलित नहीं किया जा सकता।" यह सुख जो मिलता है इसका आश्रय सिर्फ श्रीकृष्ण ही है क्योंकि वह ब्रह्म, अविनाशी, अमृत, शाश्वत धर्म और एक एकांतिक सुख का आश्रय हैंl इसलिए मुक्ति किसी भी प्रकार की मिले उन सबका आश्रय श्री कृष्ण ही है।मुक्ति संबंधी राजा जनक, व्यासजी और शंकराचार्यजी के मत हम ऊपर पहले ही देख चुके हैं। यह अनिर्वचनीय स्थिति है, परंतु है आनंद से भरपूर और हमेशा के लिए।यदि आप यहाँ तक पहुँच चुके हैं तो आप उन गिने-चुने लोगों में से हैं जो दोबारा जन्म लेना नहीं चाहते, जन्म लेते-लेते परेशान हो गए हैं, इस जन्म को अपना आखिरी जन्म बनाना चाहते हैं तो आप जैसों के लिए भगवत्प्राप्ति/ मुक्ति के तीन ही रास्ते हैं -भक्ति योग, कर्मयोग योग और ज्ञान योग। जो ध्यान योग भगवान ने अर्जुन को गीता में और उद्धव को भागवत में समझाया है वह वास्तव में एक तरह से भक्तियोग ही है। ++तीनों ही मार्गो में मन को हमे परम सत्ता के साथ जोड़ना होता है--- चाहे उसे साकार माने, चाहे निराकार माने और चाहे यह माने कि “मैं वह हूँ।" उसमें मन लगाने के लिए सवेरे जागने से लगाकर सोने तक लगातार उसी का चिंतन करना है।₹ इस हेतु कार्य तो हाथ पैर और इंद्रियों से करने हैं, मन उसमें रखना है । ₹₹ यदि आप गाड़ी चला रहे हैं तो ऐसा कर सकते हैं, दुश्मन पर गोली बरसा रहे हैं तो भी ऐसा कर सकते हैं; परंतु यदि गणित के सवाल हल कर रहे हैं या हिसाब-किताब लिख रहे हैं, लेखा-जोखा कर रहे हैं तो मन में भगवान को रखना संभव नहीं है। इन परिस्थितियों में संतों का कहना है कि कार्य शुरू करने से पहले भगवान को याद कर लिया और कार्य समाप्त होने पर फिर भगवान को याद कर लिया तो भगवान मान लेते हैं कि बीच में भी उन्हें ही याद किया गया है-- यह मत रामसुखदास जैसे कई संतों का है। सब कर्म भगवान को अर्पण करने से भी मन भगवान में लगता है, बंधन नहीं होताऔर भगवान की प्राप्ति होती है। ₹₹₹ भगवान की पूजा समझकर समस्त कर्म करने से भगवान की ही प्राप्ति होती है । यदि किसी से यह सब कुछ भी ना हो, तो वह कुछ भी ना करें। बिना कुछ साधन किए भी भगवत्प्राप्ति हो सकती है! वह सब कुछ छोड़ कर भगवान की शरण में चला जाए और बिल्कुल भी ना डरे। बिल्ली के बच्चे की तरह म्याऊं-म्याऊं करता रहे और कुछ भी ना करें, जो कुछ करना है वह स्वयं भगवान करेंगे। म्याऊं-म्याऊं करने का अर्थ है हमेशा भगवान को याद रखें, उन्हें रो-रोकर पुकारते रहें। यह वादा श्री कृष्ण जी ने अर्जुन से गीता में और उधव से भागवत में।“भगवान ही मेरे हैं’’ ऐसा विश्वास रखें। (शरणागति पर लेखक का लेख देखें बाल वनिता महिला आश्रमसाइट पर “कम टू मी ओनली, आए एम द वे ‘’.)यदि हम ऐसा करेंगे तो हमें हमारे अंत समय में परम तत्व याद रहेगा और उसे याद रखते हुए शरीर छोड़ने पर हमें उसकी ही प्राप्ति । श्रीमद्भागवत भी यही कहती है कि अंत समय में ज्ञान से भक्ति से या धर्म से किसी भी उपाय से उसे याद रखना है।।अंत समय में भगवान को याद रखना बहुत कठिन है, यदि जीवन भर उसे याद नहीं रखा है, इसीलिए तो भगवान ने कहा है कि सब समय में उनका स्मरण किया जाए। ₹₹संत रामसुखदास जी के अनुसार ऐसे भी अपवाद हैं जब अंत समय में भगवान याद आ सकते हाँलाकि हमने जीवन भर उन्हें याद नहीं रखा है :- यदि आखिरी समय में भगवान को प्राप्त किए हुए भक्त के दर्शन हो जाएँ या भगवान की कोई विशेष कृपा हो जाए; भय के कारण हमें भगवान याद आ जाएँ; तीर्थ स्थान के प्रभाव के कारण भी अंत समय में भगवान की स्मृति हो सकती है, जैसे काशी, वृंदावन, द्वारिका आदि; ऐसे स्थान का प्रभाव जहाँ नित्य कीर्तन होता हो या कोई भगवान को प्राप्त हुआ संत या जीवनमुक्त साधना करता हो या मरने वाले के समक्ष कोई नाम कीर्तन करें या गीता का आठवाँ अध्याय सुनाए या किसी भी तरह उसका मन भगवान में लग जाए।देवी भागवत के अनुसार यदि कोई यह भावना लेकर के शरीर त्यागे “ मैं शरीर से पृथक निर्गुण अविनाशी आत्मा हूं, शरीर भले ही नष्ट हो जाए मैं सदा रहने वाला विकार शुन्य ब्रह्म हूं, मैं इस दुख से भरे संसार और शरीर से अलग हूंl’’तो उसका पुनर्जन्म नहीं होता l इसी प्रकार का नियम वेद भी बताते हैं l तैत्तिरीय उपनिषद की शीक्षावल्ली के दशम अनु वाक्य में ऋषि त्रिशंकु का अनुभव बताया गया है जिस में भी यही कहा गया है कि ऐसी भावना लेकर शरीर छोड़ा जाए कि दोबारा जन्म नहीं होगा तो उसका पुनर्जन्म नहीं होता l ऐसे तो मुक्ति के तीन ही मार्ग है ज्ञान, कर्म और भक्ति योग l परंतु भगवान ने अपनी करुणा दिखाते हुए एक अपवाद भी बना दिया है कि जीवन भर मुझे याद नहीं किया है अंत समय में मुझे याद कर ले तो भी तू मुझे ही प्राप्त होगा lऐसा भगवत कानून होते हुए भी साधारण मनुष्य शरीर त्यागते समय शरीर से,बेटे- बेटी,पति -पत्नी, पोते-पोती ,धन ,मकान ,जायजाद, संसार के सुख दुखआदि से चिपकता है, शरीर छोड़ना नहीं चाहता, उसका मन संसार और सांसारिक विषयों में रहता हैl इसलिए वह भगवान को प्राप्त नहीं होता औरअंतिम भाव के अनुसार बार बार जन्म लेता है और मरता है lउसका देव दुर्लभ मनुष्य जीवन यूं ही समाप्त हो जाता है lशरीर त्यागते समय के कुछ उदाहरण. भीष्म पितामह तीरों की शैया पर लेटे हुए थे। मृत्यु उनके हाथ में थी, इच्छा मृत्यु का वरदान था। सूरज जब उत्तरायण में आया तब शरीर त्यागने का अवसर सही समझा। उनके सामने कृष्ण व पांडव थे। कृष्ण के लिए उन्होंने बताया कि वे साक्षात भगवान हैं, सबके आदि कारण और परम पुरुष नारायण है और इन्हें शंकर, नारद और कपिल भगवान के अलावा कोई नहीं जानता। गूढ़ रहस्य बताते हुए समझाया कि जो भगवान में मन लगाकर और वाणी से इनके नाम का कीर्तन करते हुए शरीर का त्याग करते हैं वह लोग उनकी कामनाओं से तथा कर्म के बंधन से छूट जाते हैं और भीष्म पितामह ने मन, वाणी और दृष्टि से श्रीकृष्ण में अपने आप को लीन कर दिया, उनके प्राण वही विलीन हो गए और वह शांत हो गए। इस प्रकार भगवान का ध्यान करते हुए भीष्म ने शरीर का त्याग किया और अनंत ब्रह्म में लीन हो गए । # # महाभारत में दूसरा विवरण है जिसके अनुसार कृष्ण के आदेश से भीष्म प्राण छोड़कर अपने वसुलोक को गए, उनका मोक्ष नहीं हुआ। ### ऐसा कल्प/मन्वन्तर भेद के कारण है। भागवत की घटनाएँ पद्मकल्प की हैं और महाभारत की घटनाएँ किसी अन्य कल्प की। हर कल्प व मन्वन्तर में घटनाएँ पूर्णतः एक जैसी हो ऐसा आवश्यक नहीं है। (प्रलय संबंधी लेख में यह सब बातें समझा दी गई हैं।)राजा खटवांग को जब पता चला कि उनकी आयु के केवल दो घड़ी शेष हैं, तो उन्होंने मन संसार के विषयों से हटा दिया : “मैं विषयों को छोड़ रहा हूँ और केवल भगवान की शरण ले रहा हूँ।” अपने शरीर का त्याग कर दिया और अपने वास्तविक स्वरुप में स्थित हो गए। “यह शून्य के समान है परंतु शून्य नहीं है, परम सत्य है भक्तजन इसका भगवान वासुदेव के नाम से वर्णन करते हैं..। " #कपिल भगवान की माता देवहुति का शरीर त्याग। सब सांसारिक मोह का त्याग करके उन्होंने भगवान का ध्यान किया। भगवान में बुद्धि स्थित हो जाने के कारण उनका जीव भाव निवृत्त हो गया और वह समस्त क्लेशों से छूटकर परमानंद में मग्न हो गई। वह निरंतर समाधि में रहती। उन्हें शरीर की भी सुध ना थी। शरीर का पोषण भी दूसरों द्वारा ही होता था। परंतु उन्हें कोई मानसिक दुख नहीं था। इस कारण से शरीर दुर्बल नहीं हुआ और तेजोमय बन गया। योगसाधना से उनके शरीर के सारे मल दूर हो गए और उनका शरीर एक नदी के रूप में बदल गया। उन्होंने इस प्रकार भगवान में ही मन लगाकर भगवान को प्राप्त कर लिया। और इसी प्रकार ऋषि ऋचीक की पत्नी सत्यवती कौशिकी नाम की पुण्य नदी बन गईं।।भक्त राजा ध्रुव का शरीर त्याग करना भी ऊपर बताए गए गीता के सिद्धांतों के अनुसार ही था। संसार से उनका मन भर गया, राजपाट अपने पुत्र को दिया और हिमालय में बद्रिका आश्रम में पहुँच गए। वहाँ एकांत में योग साधना की। चिंतन करते करते ध्रुवजी भगवान में इस तरह तन्मय हो गए कि भूल गए “मैं ध्रुव हूँ ”। उन्होंने एक विशाल और सुंदर विमान को आते हुए देखा। विमान में भगवान के दो पार्षद नंद-सुनंदा चार भुजाधारी श्याम वर्ण के सुंदर व्यक्तित्व वाले, इन्हें भगवान के लोक में लेने आए। मृत्यु भी आया। ध्रुवजी मृत्यु के सिर पर पैर रखकर विमान में चढ़े। मृत्यु साधारण मनुष्य को भी आती है और भगवान के भक्तों को भी आती है। साधारण मनुष्य परेशान होते हुए त्यागता है देह को। भक्त मृत्यु के सिर पर पैर रखकर जाता है। एक बंधन में फंसा हुआ जाता है, एक मुक्त होकर जाता है। हम जैसे प्राणियों को लगता है कि दोनों ही एक समान मरे हैं। ध्रुवजी के भगवत धाम जाने में एक विलक्षण बात और थी। उन्होंने अपनी भौतिक देह का त्याग नहीं किया, वही दिव्य शरीर बन गया। वह सोने की तरह चमक रहा था और इस दिव्य शरीर से माता को भी साथ लेकर भगवान के नित्य धाम में पधारे। ईसा मसीह भी इसी प्रकार सशरीर भगवान के धाम गए। इसके विपरीत मृत्यु के समय नारद जी का पंचभौतिक शरीर नष्ट हो गया और उन्हें पार्षद शरीर प्राप्त हुआ।. नष्ट होने से अभिप्राय है कि उसका अस्तित्व ही समाप्त हो गया, शरीर पीछे नहीं छूटा, जैसे साधारण लोगों का छूटता है। अन्य दूसरे ही उसको जलाते हैं या दफनाते हैं या जानवर चील कौवे खा लेते हैं। अजामिल ने पंच भौतिक शरीर को त्याग दिया और तत्काल पार्षदों का स्वरूप प्राप्त कर लिया और विमान में बैठ कर भगवान के पार्षदों के साथ भगवान लक्ष्मीपति के निवास वैकुंठ को चले गए । त्यागने से मतलब है कि आत्मा ने वह शरीर छोड़ दिया, वह शरीर इस जगत में रहा।राजा पृथु योग मार्ग द्वारा संसार के विषयों को त्यागकर अपने ब्रह्मस्वरूप में स्थित हुए और फिर उन्होंने शरीर त्यागा प्राण को ब्रह्मरंध्र में ले जाकर। कृष्ण के मामा कंस, राजा शिशुपाल और दंतवक्र तथा हाथी गजेंद्र का मन भी अंत समय में भगवान में लगा हुआ था इसलिए इन्हें भी भगवान की प्राप्ति हुई। । गजेंद्र ने भी अपना हाथी का शरीर त्यागा और चारभुजाधारी पार्षद, भगवान द्वारा बना दिया गया। अंतिम समय में यदि मन भगवान में स्थित हो, भाव चाहे जो हो, तो प्राप्ति भगवान की ही होती है--(-श्रीमद् भगवद गीता 8/5-15) ।ऊपर हमने देखा कि हम भगवान के अंश है. और भगवान आनंद है, उसे सत् -चित्-आनन्द कहते हैं, पहले दो अक्षर आनंद के विशेषण है, वास्तविक नाम है आनंद। भगवान आनंद है यह कहना ठीक है; भगवान में आनंद है, यह ठीक नहीं l ऐसा लगता है कि आनंद और भगवान दो-दो चीज हो जैसे कि रसगुल्ले में रस और गुल्ला अलग-अलग दो हैं। भगवान के अंश होने के कारण हम आनंद की खोज में हैं; परन्तु अभी तक हमें आनंद प्राप्त नहीं हुआ है। कारण हम संसार में आनंद खोज रहे हैं। जहाँ वह है ही नहीं। आनंद भगवान में है। जब हम भगवान में आनंद खोजेंगे तब हमें आनंद मिल सकता है। आनंद पाने हेतु भगवान की ओर जाना है और हमें यह भी ज्ञान होना चाहिए कि धरती के अलावा भी बहुत से लोक हैं।(लोक-परलोक लेख में विस्तार से बताया गया है) यह सब अनित्य हैं. केवल भगवत धाम ही नित्य है। इस धाम में जाने का प्रयास करेंगे तब ही हम आवागमन से मुक्त हो सकते हैं।अंत समय का भाव और शरीर छोड़ते समय का चिंतन ज्ञानी के लिए भी महत्वपूर्ण है l देवी भागवत के अनुसार,ऐसा चिंतन लेकर शरीर त्यागा जाए कि “ मैं इस संसार से अलग हूं,’’ और वेदों के अनुसार ऐसा चिंतन करते हुए शरीर त्यागा जाए कि “यह मेरा आखिरी जंम है मेरा पुनर्जन्म नहीं होने वाला क्योंकि मैं संसार रूपी वृक्ष का उच्छेद करने वाला हूं’’l 🎞 तो इस प्रकार से भाव रखकर शरीर छोड़ने वाले का आवागमन के चक्र से छुटकारा हो जाता है और वह पूर्णब्रह्म परमात्मा को प्राप्त हो जाता हैl यहां पर यह स्पष्ट करने की आवश्यकता नहीं कि यह भाव मृत्यु के समय तब ही आएगा जबकि जीवन भर इस प्रकार के भाव की साधना की है और इस भाव को स्थाई कर लिया है lतत्काल मोक्ष?"एक तो शरीर इंद्रियाँ मन बुद्धि साथ लेते हुए साधन करना और एक सीधा परमात्मा के साथ संबंध जोड़ देने।" तत्काल मोक्ष कैसे मिले यह राम सुखदासजी ने बताया है:" मेरे स्वरूप में कोई विकार नहीं है "...इसमें स्थित रहने से बहुत जल्दी सिद्धी होती है।मनन निदिध्यासन आदि की आवश्यकता भी नहीं।बात भी सही है। भगवान ने हमें कर्ता बनया ही नही, असँख्य् शरीर धारण करने पर भी हम सभी शरीरओ से और कर्मो से असंग ही हैं।"० इस ज्ञान से मुक्ति हो जाएगी।बाल वनिता महिला आश्रम"मैं भगवान का हूं" ऐसा मानते ही सिद्धि हो जाती है । मान्यता ऐसी हो जिसको कोई हटा नहीं सके पूर्ण दृढ़ता हो। स्वयं शंकर जी आकर कह दे मैं तेरे को स्वीकार नहीं करता तो भी मैं उन्हें नहीं छोडूंगी ऐसा विश्वास पार्वती जी का था । भगवत प्राप्ति हेतु हमें भी ऐसा ही दृढ़ निश्चय करना है "मैं भगवान का हूं, चाहें मुझे हजारों जन्म तक ना मिलें और खुद ही आकर क्यों ना कह दे कि मैं तेरे को स्वीकार नहीं करता।"गीता के कर्म योग में कामनाओं का त्याग होने पर स्वरूप में स्थिति हो जाती है, तत्काल।ध्यान में बहुत दूर तक जड़ता रहती है।समाधि से उतरते ही पुनः माया लग जाती है।(तत्काल सिद्धि का मार्ग,साधन -सुधा- सिन्धु ,गीता प्रेस गोरखपुर)है ना मुक्ति बहुत आसान !ठुकराओ संसार कोसमाप्त करो आने-जाने को,अपने घर की देखो राह को।सदा लो हरि का नाम,पहुँचो उनके धाम,फिर वहाँ रहो हरदम।आध्यात्मिक सिद्धांत निम्न:-भागवतसे11/2/37,3/9/11,7/20/39,7/1/13,10/7/8,10/66/24,10/44/39,12/9/22,7/1/27,2/1/15,4/8/82,3/39/30,1/1/2,11/11/7,9/9/47,9/9/42,1/6/28,8/4/12,3/5/2,सांख्यसूत्र 3/65,महाभारत।167/46-47,*गीता15/7, 13/31, जैनिसिस 1/26-27,**गीता 2/16-29, @@ गीता 13/19-21,==गीता 8/24, ∆∆ 3/27, ∆∆∆8/5, ÷÷9/30-32, ××18/17, ₹18/65, ₹₹ 8/7, ₹₹₹9/27to 28, "० ५/१४, १३/३२ सभी गीता से हैं,० भागवत 3/9/11, 4/11गईतआ, 3/3 मद. उप.=भागवत 3/7/9-11, π भागवत 7/10/39, ***भागवत 11/2/37, ००० भागवत 1/1//2, #भआगवत 9/9/42-49, ++ भागवत 11/15/24, गीता 6/47, 12/2, 5,# # भागवत 1/9/44, # # # महाभारत 167/46-47,@ सांख्य सूत्र3/65,०० कठोपनिषद 2/1/15 ,🎞 तैत्तिरीय उप. शिक्षावल्ली 10 वां अनुवाक्•६/१६/१०-१५ अध्यात्म रामायणइतिश्री अध्याय 24

आत्मा को मुक्ति कैसे मिलती है?आत्मा तो नित्य मुक्त है.मोक्ष जीव बने आत्मा की है.

पढ़े मेरा पूर्व लेख.

अध्याय 24

मुक्ति : By समाजसेवी वनिता कासनियां पंजाब

हम आत्मा हैं, परमेश्वर का अंश हैं *। परंतु हैं माया के बंधन में। इस बंधन का कारण श्रीमद्भागवत में राजा निमि को योगेश्वर कवि ने पुरुष/आत्मा का ईश्वर से विमुख होना बताया है। पुरुष/आत्मा जब ईश्वर से विमुख होता है तब ईश्वर की माया उस पर हावी हो जाती है और वह ‘मैं मनुष्य हूँ, मैं देवता हूँ ’- ऐसा मानने लग जाता है और भ्रम में पड़ जाता है।***माया से संबंध होने पर आत्मा को जीव शब्द से जाना जाता है और यह मन प्रधान होता है। जीव वह है जो शरीर धारण करता है। जीव अनादि काल से बंधन में है, भ्रम में है। ऐसा कहना कि यह पहले बंधन में नहीं था मुक्त था और एक दिन बंधन में आ गया असत्य होगा। इसका अभिप्राय तो यही निकलेगा कि मुक्त होने के पश्चात पुनः बंधन आ जाता है ,तो फिर मुक्ति का कोई अर्थ ही नहीं रहेगा !

मुक्ति क्या है? जन्म-मरण के चक्र से अवकाश को मुक्ति कहते हैं। साधारण भाषा में इसे परमसत्ता में लीन हो जाना या भगवत धाम ( ईसाई इसे हेवन, heaven कहते हैं और मुसलमान जन्नत) में हमेशा के लिए चले जाना और मृत्यु लोक में लौटकर नहीं आना समझा जाता है। सांख्य दर्शन के अनुसार पुरुष का अपने स्वरूप में स्थित हो जाना ही मोक्ष है। @ न्याय-दर्शन सुख प्राप्ति स्वीकार नहीं करता क्योंकि सुख का राग से संबंध है और राग कारण है बंधन का। दुख और सुख गुण हैं, मुक्त होने पर आत्मा सभी गुणों से मुक्ति पा जाता है। मीमांसा कहती है, दृश्य जगत के साथ आत्मा के संबंध का विनाश ही मोक्ष है। अद्वैत वेदांत के अनुसार स्वयं स्वरूप में अवस्थान को मोक्ष कहते हैं। ज्यादातर दर्शनों ने दुख-निवृत्ति पर जोर दिया है।परन्तु, भक्तगण मोक्ष को दुख-निवृत्ति व आनंद- प्राप्ति कहते हैं। आत्मा को अप्राकृत शरीर प्राप्त होता है और वह भगवान की सन्निधि का, ना समाप्त होने वाले आनंद का, सदा के लिए अनुभव करता है। भगवान के धाम में भक्तों की मुक्ति में अभेद नहीं होता, भेद रहता है। भक्त और भगवान( यानी आनंद का पर्याय) साथ-साथ अलग-अलग शरीरों में रहते हैं। भगवान का नाम ही सत्-चित्-आनंद है।

आत्मा नित्यमुक्त है, फिर मुक्ति किसकी? यह आत्मा ईश्वर का अंश है और इसमें ईश्वर के सारे गुण हैं, फिर इसका बंधन कैसे? यह स्थाई है, अचल है।** फिर, आना-जाना, जन्म-मृत्यु किसका होता है?इनका उत्तर है कि वास्तव में आत्मा मुक्त है, कभी बंधन में हो ही नहीं सकती परंतु यह माया/प्रकृति से झूठा संबंध जोड़कर अपने आप को बंधन में समझता है-- शरीर और संसार को "मैं "और "मेरा " मान लेता है। इसीलिए इसका ‘जन्म-मृत्यु’ प्रतीत होता है। आत्मा शुद्ध चेतन ब्रह्म का अंश है। वह माया से संबंध स्थापित करने के कारण जीव कहलाता है। यह सब मानने पर प्रश्न उठता है कि जब आत्मा का कहीं आना-जाना होता ही नहीं है केवल प्रतीति होता है तो फिर आवागमन से छूटने का प्रयास क्यों किया जाए? जो बंधन वास्तव में है ही नहीं, उसके लिए क्या छुटकारा ? इसका समाधान है कि आत्मा तो शुद्ध है उसका आवागमन हो ही नहीं सकता। जीवात्मा के लिए ही मोक्ष के साधन बताए जाते हैं। दुख-सुख जीवात्मा को होते हैं क्योंकि, जैसा कि ऊपर बताया जा चुका है, यह माया से संबंध जोड़े हुए हैं और अपना असली स्वरूप भूले हुए है। विद्वान लोग जीव को ही भोक्ता मानते हैं। कोई-कोई कहते हैं कि मन, बुद्धि और अहंकार ही भोग भोगते हैं। उत्तर है कि ये जड़ हैं और भोक्ता नहीं हो सकते। यह सब माया के विकार हैं और उनके रहने का स्थान है अंतः करण। इसलिए माया से संबंध जोड़ने वाला आत्मा अथवा पुरुष/जीव ही दुख और सुख को भोगता है। हम आगे जो बात कर रहे हैं वह जीव की मुक्ति की है अर्थात् मोक्ष, माया/ प्रकृति और उससे संबंध जोड़नेवाले आत्मा, जो जीवात्मा कहलाता है, का ही होता है। गीता में भी यही कहा गया है कि क्रिया प्रकृति में है और दुख-सुख का भोक्ता पुरुष है। प्रकृति में स्थित पुरुष प्रकृति के गुणों का भोक्ता बनता है, और गुणों का संग करने के कारण ऊँची-नीची योनियों में जन्म लेता है।@@

भागवत में विदुर जी का ज्ञानवर्धन करते हुए मैत्रेयजी बताते हैं कि जो आत्मा सबका स्वामी है और मुक्तस्वरूप है वही दीनता और बंधन को प्राप्त हो-- यह बात युक्ति के विरुद्ध है, और यही तो भगवान की माया है! सपने में हम अपना सिर कटना आदि देखते हैं और हमें यह सत्य प्रतीत होता है, परंतु यह सत्य नहीं है। उसी प्रकार जीव को, उसका बंधन ना होते हुए भी ऐसा लग रहा है कि वह बंधन में है। फिर प्रश्न उठता है कि आत्मा जो कि ईश्वर का अंश है उसे तो यह सब भास रहा है और वह माया के बंधन में भी है, ईश्वर इस बंधन में क्यों नहीं? इसका उत्तर भी यह है कि जैसे चंद्रमा में कोई कंपन नहीं है। जल में चंद्रमा की जो छायाँ पड़ रही है उसमें हमें कंपन नज़र आता है यदि जल में कंपन हो। चंद्रमा में यह कंपन नज़र नहीं आता। इसी तरह अपने को शरीर समझने वाले जीव को ही दुख और सुख की अनुभूति होती है, ईश्वर को नही।=

भागवत में( दूसरे स्कंध के दूसरे अध्याय)दो प्रकार की मुक्तियों का वर्णन मिलता है। एक को सद्यो मुक्ति बोलते हैं क्योंकि सीधे ही मुक्त होना होता है, दूसरी क्रम मुक्ति है: एक लोक से ऊँचे लोक में फिर उच्चतर लोक में और फिर भगवान के धाम में या परमब्रह्म में लीन होना बताया गया है। सद्यो मुक्ति में योगी मन और इंद्रियों को छोड़कर ब्रह्मरंध्र से शरीर का त्याग करता है और ब्रह्म ज्योति में लीन होता है अथवा भगवत धाम को जाता है। ऐसा वे योगी ही कर सकते हैं जिन्होंने प्राणवायु पर पूरी तरह से विजय प्राप्त करली और जिनकी कोई भौतिक इच्छाएँ नहीं है। ब्रह्मरंध्र से प्राण त्यागने हेतु योगी बाकी के छः छेद-- दो आँख, दो कान दो नासिका और एक मुँह को बंद कर देता है ताकि यहीं (ब्रह्मरंध्र) से प्राण निकले। जो योगी ब्रह्मलोक में जाने की इच्छा रखता है वह अपने मन और इंद्रियों को साथ लेकर जाता है। पहले आकाशमार्ग से अग्निलोक में जाता है, फिर श्रीहरि के शिशुमार चक्र में पहुँचता है, वहाँ से महरलोक जाता है और महरलोक से ब्रह्मलोक। यहाँ पर निर्भय होकर सूक्ष्म शरीर को पृथ्वी से मिला देता है, फिर पृथ्वी को जल से, जल को अग्नि से, अग्नि से वह वायुरूप और आकाश आवरण में जाता है। श्री श्रीधर स्वामी के अनुसार दृश्य जगत का विस्तार चार अरब मील का है। इसके पश्चात अग्नि का आवरण आता है, फिर वायु का और उसके पश्चात आकाश का। यह सब आवरण अपने से पहले वाले आवरण से दस गुना विस्तार वाले होते हैं। भूतों के सूक्ष्म और स्थूल आवर्णों को पार करके अहंकार में प्रवेश करता है। अहंकार से महतत्व में और यहाँ से प्रकृतिरूप आवरण में चला जाता है। महाप्रलय के समय जब प्रकृति रूप आवरण का भी लय हो जाता है तब योगी अपने स्वरूप में स्थित हो जाता है अर्थात् निरावरण हो जाता है। कृष्ण ने गीता में अर्जुन को लगभग ऐसा ही ज्ञान दिया है। ==

जो कैवल्य मुक्ति अथवा एकत्व मुक्ति नहीं चाहते वह क्रमशः अग्नि, ज्योति, दिन, शुक्ल-पक्ष और उत्तरायण आदि के अभिमानी देवताओं के स्वरुप को प्राप्त होते हुए अमानव पुरुष के द्वारा दिव्य अप्राकृतिक शरीर से भगवान के परमधाम को ले जाए जाते हैं। इन्हें भक्तोंवाली मुक्तियाँ-- सारूप्य, सार्ष्टि, सालोक्य, सायुज्य(?) व सामीप्य-- मिलती है।

श्री गोपीनाथ कविराज का कथन है सकामियों को, जो पितृयान से जाते हैं, तो वापस आना पड़ता है। क्रम मुक्ति उनकी होती है जिनमें ज्ञान और कर्म का मिश्रण होता है। कर्म का अंश ज्यादा होने पर एक के बाद एक ऊँचे लोकों में जाना पड़ता है--- हर स्टेशन पर उतरना पड़ता है वहाँ के भोग भोगने के लिए। पूर्ण ज्ञानी को कहीं नहीं जाना पड़ता, वह सीधे ही परमब्रह्म में लीन हो जाता है (और ज्यादा विस्तार से ‘लोक परलोक’ लेख में बताया गया है) । जिनमें ज्ञान का अंश ज्यादा होता है वह सीधे ही ब्रह्मलोक में जाते हैं। इनमें से जो कम ज्ञानी होते हैं या कम अधिकार रखते हैं, उन्हें ब्रह्माजी के लोक में सालोक्य मुक्ति मिलती है, ज्यादा अधिकार वालों को सारूप्य और भी उच्च अधिकारियों को सार्ष्टि व सामीप्य और जो चरम अवस्था में होते हैं उन्हें सायुज्य मुक्ति मिलती है। महाप्रलय के समय ब्रह्मांड के नाश होने के साथ-साथ ब्रह्माजी भी समाप्त हो जाते हैं। श्री गोपीनाथजी के अनुसार, उनके (ब्रह्माजी) अंगीभूत जीव परमब्रह्म के साथ अभेद प्राप्त करते हैं। जीव अपने -अपने इष्ट देव को प्राप्त होते हैं। गणपति के भक्त गणपति को, विष्णु के भक्त विष्णु को और देवी के भक्त देवी को प्राप्त होते है। यह उन लोगों की बात कर रहे हैं जो सीधे अपने इष्ट के लोक में नहीं जाते वरण क्रमानुसार ऊपर उठते हैं अर्थात् एक के बाद एक उच्चत्तरलोकों में जाते हुए अंत में परमधाम, वैकुण्ठ आदि हो जाते हैं।

अब अलग-अलग प्रकार की मुक्तियों का वर्णन वेदों से l मुक्ति के संबंध में हनुमानजी को समझाते हुए रामजी ने विभिन्न प्रकार की मुक्तियों का मुक्ति-उपनिषद में वर्णन किया है। “कपि! कैवल्यमुक्ति तो एक ही प्रकार की है, वह परमार्थ रूप है। इसके अलावा मेरे नाम स्मरण करते रहने से दुराचार में लगा हुआ मनुष्य भी सालोक्यमुक्ति को प्राप्त होता है। वहाँ से वह अन्य लोकों में नहीं जाता। काशी क्षेत्र में मरनेवाला मेरे तारकमंत्र को प्राप्त करता है और उसे वह मुक्ति मिलती है जिससे उसे आवागमन में नहीं आना पड़ता। काशी क्षेत्र में शंकरजी जीव के दाहिने कान में मेरे तारकमंत्र का उपदेश करते हैं जिससे उसके सारे पाप धुल जाते हैं और वह मेरे सारूप्य को, समान रूप को प्राप्त हो जाता है। वही सालोक्य-सारूप्य मुक्ति कहलाती है। जो एकमात्र मेरा ही ध्यान करता है वह मेरे सामीप्य को प्राप्त करता है, सदा मेरे समीप रहता है। निराकार स्वरूप का ध्यान करने वाला सायुज्यमुक्ति को प्राप्त होता है।’’

समस्त प्रकार की मुक्तियों का सार श्री जयदयाल जी गोयनका समझाते हैं l भेद उपासना के अनुसार मुक्तिययाँ चार प्रकार की है: सालोक्य, सामीप्य, सारूप्य --- इन तीनों में साधन में भी भेद और फल में भी भेद है। चौथी सायुज्यमुक्ति में साधन में तो भेद है पर फल में भेद नहीं होता। शरीर छोड़ने के बाद भगवान के धाम में जाकर उनके लोक में निवास करने को सालोक्य मुक्ति कहते हैं। यह वात्सल्य भाव से जो भगवान की उपासना करते हैं उन्हें प्राप्त होती है। जैसे भगवान के रुप अनेक हैं ऐसे ही लोक भी अनेक हैं। भगवतधाम या यूँ कहें नित्य धामों का सामान्य नाम वैकुंठ है। यह लोक नित्य है। यह महाप्रलय में भी नष्ट नहीं होता, ज्यों का त्यों बना रहता है। यहाँ भगवान अपने पार्षदों के साथ निवास करते हैं। इस लोक में सूर्य, चंद्र, अग्नि का प्रकाश नहीं होता है, स्वयं प्रकाश है। यह पूरी तरह अप्राकृत है। यहाँ पहुँचकर जीव वापस जन्म-मृत्यु के चक्कर में नहीं पड़ता। जहाँ भगवान कृष्ण रूप से विराजते हैं वह गोलोक है, श्रीराम का साकेत, देवि का मणिद्वीप, शिवजी का कैलाश और इसी प्रकार भगवान के अन्य रूप अन्य लोकों में रहते हैं।

भगवान के अलग-अलग रूप और लोक क्यों है? इसका समाधान यह है कि जैसा भक्त चाहता है सर्वशक्तिमान वैसा ही बन जाता है अपने भक्तों के लिए। यह सिद्धांत मुद्गल उपनिषद् में, गीता में व भागवत में ब्रह्माजी ने कृष्ण की स्तुति करते हुए बताया है। ०(इस लेखक का लेखक की साईट पर अंग्रेजी में इसी विषय पर एक लेख है- 'आई एम एज़ माय सर्वेंट थिंक्स / एक्सपैक्टस आई एम' ) । सामीप्य, दास भाव से या मधुर भाव से भगवान की उपासना करने वाले को प्राप्त होती है। वह भगवान के लोक में भगवान के समीप निवास करता है। ( प्रभुपादजी के अनुसार यह भगवान का साक्षात पार्षद् बनता है)। भगवान के धाम में जाकर भगवान का जैसा रूप पा लेना सारूप्य मुक्ति है। रूप तो भगवान जैसा हो जाता है परंतु थोड़ा-सा अंतर रहता है जैसे कि श्रीवत्स का चिह्न नहीं मिलता आदि । यह सखा भाव से भगवान की उपासना करनेवाले को प्राप्त होती है। भगवान के स्वरुप में अभेद रूप से लीन हो जाने को सायुज्य मुक्ति या एकत्व कहते हैं।कोई इसे कैवल्य मोक्ष भी कहते हैं, इसी को निर्वाण बताते हैं। जिनकी भक्ति में ज्ञान भी है और जो शांत भाव से भगवान की उपासना करते हैं, सायुज्य मुक्ति उन्हें प्राप्त होती है। ऐसे ही वैर, द्वेष और भय से भगवान को भजनेवालों को भी यही मुक्ति मिलती है।

भागवत पर भी थोड़ा गौ़र करें: जय दयाल जी की बात भागवत से पूर्णता मेल नहीं खाती है। भगवान की दुश्मनी और डर से दंतवक्त्र, शिशुपाल वअन्य राजागण जैसे पौंड्रक और कंस आदि को मुक्ति मिली; परंतु, कृष्ण से बैर और भय करने के कारण इन्हें उन्हीं का, भगवान का, शरीर प्राप्त हुआ। π कृष्ण के शरीर में शिशुपाल व दंतवक्त्र तो ज्योति के रूप में समाए। यह दोनों भगवान के पार्षद् थे जय और विजय, तीन जन्मों तक लगातार भगवान से बैर साधा और फिर शाप मुक्त हो उन्हीं के लोक में चले गए, फिर से इन दोनों ने अपना पार्षद वाला शरीर प्राप्त कर लिया। अभेद रूप से परम पुरुष वैकुंठ अधिपति श्री नारायण में लीन नहीं हुए। लिहाज़ा इन दोनों की सायुज्य मुक्ति नहीं हुई। पौंड्रक को भगवान का रूप प्राप्त हुआ । भगवान के रूप ही की कंस को प्राप्ति हुआ। भृंगी-कीट के उदाहरण से तो कृष्ण का स्वरूप ही प्राप्त होना था। जिसका ध्यान किया जाता है तन्मयता से, उस का ही रूप, प्राप्त होता है, भाव चाहे कोई सा भी हो--- प्रेम, भय, बैर आदि। ऐसी सूरत में निष्कर्ष यही है कि पौंड्रक और कंस को सायुज्य मुक्ति प्राप्त नहीं हुई, हालांकि वह क्रमशः बैर और डर से कृष्ण का पूरी तन्मयता से सुमिरन करते थे। इन्हें सारूप्य प्राप्त हुआ। और भी ज्यादा गहनता से गौ़र किया जाए तो इन दोनों प्रकार की मुक्तियों में बहुत ज्यादा अंतर भी नहीं है। एक में भक्त भगवत स्वरुप हो जाता है, उसमें और भगवान में कोई भेद नहीं रहता।तो दूसरी में उसे भगवान का जैसा रूप मिल जाता है,परंतु भक्त व भगवान में भेद रहता है।पृथक होने पर भी रूप एक ही हैl

सायुज्य मुक्ति के लिए वेद का कथन है कि जिस प्रकार नदियों का जल अपने नाम-रूप को छोड़कर समुद्र में मिलकर समुद्र ही हो जाता है उसी प्रकार साधक भगवान में लीन होकर भगवद्स्वरूप हो जाता है । ०० परंतु , आत्मा की सत्ता का अस्तित्व बना ही रहता है। आत्मा और परमात्मा में एकत्व हो जाता है। अभेद हो जाने से क्या होता है, इसकी कुछ कुछ झलक हमें बालक ध्रुव के वृतांत में भागवत में मिलती है। भगवान देवताओं को समझाते हैं - "इस समय मेरे साथ उसकी अभिन्न धारणा सिद्ध हो गई है इसीसे उसके प्राण निरोध से तुम सबका प्राण भी रुक गया है... मैं बालक को तप से मुक्त कर दूँगा, तुम लोग जाओ।’’ अगर यहाँ पर बालक ध्रुव की आत्मा परमात्मा में समा जाने से समाप्त हो गई थी तो भगवान उसको तप से निवृत्त करने की बात क्यों कहते हैं? एकत्व में, सायुज्य मोक्ष में, कैवल्य मोक्ष में आत्मा समाप्त नहीं होती, परंतु इस तरह परमतत्व के साथ एक हो जाती है कि दोनों अभिन्न हों, फिर भी दोनों का अस्तित्व हो। जैसे, चंदन का बुरादा पानी में मिलकर पानी नहीं बनता, बल्कि पानी से एकमेव हो जाता है।

दास भाव वाले हनुमान जी को कल्पांत में सायुज्य मुक्ति मिलेगी, अध्यात्म रामायणानुसारl•

योगी लोग प्राकृत ऐश्वर्य का वर्णन करते हैं। योग के द्वारा प्रकृति और पुरुष एक हो जाते हैं। यह अवस्था ईश्वर का स्वरुप है। शक्ति और शैव्यागमों के अनुसार पूरी तरह से अनंत सत्ता में सत्तावान होना, अनंत लीला का अभिनय करना ही पूर्णता को प्राप्त करना या मुक्ति पाना है। इसमें अभिनय करते ही नहीं बल्कि अभिनय देखते भी हैं, तटस्थ रूप से नहीं बल्कि भावरंजित दृष्टि से। लीलातीत में अखंड आनंद है और लीला में अनंत विचित्रता है। यही पूर्णता है--- इसमें एक साथ विश्व और विश्वातीत होने का अनुभव रहता है। बाकी की तीन मुक्तियों में--सारूप्य, सालोक्य व सामीप्य- शरीर, मंन, बुद्धि और इन्द्रियाँ रहते हैं। राजा जनक व्यास पुत्र शुकदेवजी को मुक्ति का स्वरुप समझाते हैं, महोपनिषद के द्वितीय अध्याय में - "मुक्ति की अवस्था में जीव की ना उन्नति होती है ना अवनति होती है और ना उसका लय ही होता है; वह अवस्था ना तो सत् है, ना तो असत् है और ना दूरस्थ है। उसमें ना अहंभाव है और ना पराया भाव है। विदेह, मुक्ति गंभीर स्तब्ध अवस्था होती है; उसमें ना तेज व्याप्त होता है और ना अंधकार। उसमें अनिर्वचनीय औरअभिव्यक्त ना होने वाला एक प्रकार का सत् अवशिष्ट रहता है। वह ना शून्य होता है ना आकारयुक्त, ना दृश्य होता है और ना दर्शन होता है..... इसमें भूत और पदार्थों के समूह नहीं होते-- केवल सत् अनंत रूप से अवस्थित होता है।यह अद्भुत तत्व है जिसके स्वरूप का निर्देश नहीं किया जा सकता … इसका आदि मध्य अंत नहीं होता, संकल्प हीनता होती है..।’’

व्यासजी का मत है कि इस कैवल्य-मोक्ष में मन और इंद्रियाँ नहीं रहतीं। जैमिनी का मत इसके विपरीत है कि मुक्ति की अवस्था में भी मन और इंद्रियाँ बनी रहती है। इन दोनों मतों का समन्वय करते हुए शंकराचार्यजी ब्रह्मसूत्र के भाष्य में स्पष्ट करते हैं कि आत्मा सत्य संकल्प है; जब शरीरता का संकल्प करता है तब इसके पास शरीर हो जाता है, जब वह अशरीरता का संकल्प करता है तब शरीर नहीं रहता। कहने का तात्पर्य है कि आत्मा की सत्ता का कभी अभाव नहीं होता। पद्म पुराण में महामुनि का शरीर भगवान में लीन हो गया था और फिर से नारायण मुनि के रूप में प्रकट हुआ। इसी प्रकार नरसिंह पुराण में ब्राह्मण और वेश्या दोनों एक साथ भगवान ने लीन हो गए। उसके बाद पुन: पत्नी के साथ प्रहलाद के रूप में प्रकट हुए। यह कथा नरसिंह चतुर्दशी व्रत के प्रसंग में आती है। इन सबसे ऐसा प्रतीत होता है कि आत्मा की सत्ता कभी समाप्त नहीं होती।

इसके अलावा कोई-कोई संत समर्ष्टि मुक्ति भी बताते हैं, जिसमें ऐश्वर्य भगवान जितना भक्त को प्राप्त हो जाता है। ऊपर बताई गए सभी प्रकार की मोक्ष में भक्त भगवान जैसा ही बन जाता है; परंतु उसमें जगत को बनाने की, जगत के पालन की और जगत के संहार करने की शक्ति नहीं होती है, ना ही कर्मों के अनुसार जीवों को फल देने की। यह शक्तियाँ भगवान अपने पास ही रखते हैं ! जो भगवान के वास्तविक भक्त होते हैं वह यह सब-- पाँच मुक्तियाँ- नहीं चाहते। उन्हें तो भगवान की सेवा ही चाहिए। पाठकों को स्मरण होगा कि भागवत का आरंभ ही ऐसे होता है: "इसमें अर्थ-धर्म-काम-मोक्ष के अलावा धर्म का निरूपण किया जा रहा है।” । ∆ चैतन्य महाप्रभु ने तो मोक्ष को डाकिनी बताया है। "मैं आपसे इतना ही चाहता हूँ कि जन्म-जन्मांतर आपके चरणकमलों का शुद्ध भक्त बना रहूँ.”... चैतन्य चरितामृत। यह जन्म-मृत्यु से नहीं घबराते, इन्हें तो बस भगवान का साथ चाहिए, इसके अलावा कुछ नहीं।

यह सब विदेह मुक्तियाँ हैं। इसके अलावा शरीर के रहते हुए ही जीवनकाल में ही मोक्ष प्राप्त करनेवाले को जीवनमुक्त कहते हैं। जीवनमुक्त कैसा होता है? मुक्ति उपनिषद् के दूसरे अध्याय में हनुमानजी को समझाते हुए रामजी आगे बताते हैं कि जीवनमुक्ति क्या है? "हनुमन ! मैं भोक्ता हूँ, मैं कर्ता हूँ, मैं सुखी हूँ और मैं दुखी हूँ…….आदि जो ज्ञान है, वह चित् का धर्म है। यही ज्ञान क्लेश रूप होने के कारण उसके लिए बंधन का कारण हो जाता है। इस प्रकार के ज्ञान का निरोध जीवनमुक्ति है।’’ जीवनमुक्ति का वर्णन भागवत में भी है। कृष्ण उद्धव को समझाते हैं। "जीवनमुक्त पुरुष भला-बुरा कुछ काम नहीं करते, ना ही सोचते हैं, आत्मानंद में ही मग्न रहते हैं, जड़ के समान रहते हैं जैसे कोई मूर्ख हो। " कैसे मान लें कि जीवनमुक्त पुरुष कोई कार्य नहीं करते जबकि वह सब कुछ करते हुए दिखते हैं? उठते हैं, बैठते हैं, आते हैं, जाते हैं, खाते हैं, पीते हैं, सोते हैं, जागते हैं, मल त्यागते हैं, बोलते हैं…. आदि। इसका समाधान श्री जयदयाल गोयंदका ने किया है अपनी पुस्तक 'तत्व चिंतामणि' में जीव संबंधित प्रश्न- उत्तर में। उनका समझाना है कि लोकदृष्टि में जीवनमुक्त कर्म करता हुआ प्रतीत होता है। परंतु, वास्तव में उसका कर्मों से कोई संबंध नहीं होता। संबंध बिना कर्म कैसे होते हैं? उत्तर : वास्तव में वह किसी कर्म का कर्ता नहीं है। प्रारब्ध का जो भाग बचा हुआ है उसके भोग के लिए ही उसी के वेग से कुलाल के ना रहने पर भी कुला चक्र की तरह कर्ता के अभाव में भी परमेश्वर की सत्ता-स्फूर्ति से पूर्व स्वभावानुसार कर्म होते रहते हैं। परंतु, यह कर्तृत्वाभिमान से शून्य होते हैं, इसलिए किसी नए पाप या पुण्य का उत्पादन नहीं होता है। लिहाजा यह कर्म नहीं समझे जाते हैं। इसे ऐसा भी समझा जा सकता है कि धक्का देने पर पहिया घूमता है और काफी समय तक घूमता ही रहता है। धक्का समाप्त होने पर भी कुछ देर तक घूमता है और उसके बाद शांत होता है। जगतगुरुत्तम कृपालुजी ने बहुत ही सुंदर शब्दों में स्पष्ट किया है कि जीवनमुक्तों का कर्त्ता (गवर्नर(governor,)भगवान होता है। इनके द्वारा कर्म नहीं किए जाते बल्कि भगवान द्वारा ही किए जाते हैं। गीता में इन लोगों को स्थिर बुद्धिवाला, योगारूढ़, गुणातीत (ज्ञानी)और भक्त कहा गया है। ऐसे लोगों में कोई कामना नहीं होती है। यह राग, भय और क्रोध से तथा कामना से, ममता से, स्पृहा से रहित होते हैं। सुख और दुख को सम मानते हैं। जैसे कछुआ अपने अंगों को समेट लेता है ऐसे ही स्थिर बुद्धि वाला इंद्रियों के विषयों से इंद्रियों को हटा लेता है। इन लोगों के लिए मिट्टी और सोने में कोई फ़र्क़ नहीं। चांडाल, ब्राह्मण गाय, गधा, हाथी, कुत्ता, मित्र-शत्रु, साधु-दुष्ट, दुराचारी-सदाचारी--- सब में--- परमात्मा दिखता है। ऐसे लोग ब्रह्म में स्थित रहते हैं। ऐसे महापुरुष अपने को कर्ता नहीं मानते। प्रकृति के गुण सब कार्य कर रहे हैं, ऐसा यह जानते हैं। ∆∆ भक्त को तो हर जगह भगवान श्रीकृष्ण ही नजर आते हैं। इस संसार की हर परिस्थिति, व्यक्ति और पदार्थ में --- चाहे अनुकूल हों, चाहे प्रतिकूल हों-- यह लोग सम रहते हैं, एक-सा ही मानते हैं, ना हर्षित होते है ना दुखी। “हे अर्जुन! जिस पुरुष के अंतःकरण में ‘मैं कर्त्ता हूँ' ऐसा भाव नहीं है तथा जिसकी बुद्धि सांसारिक पदार्थों में और संपूर्ण कर्मों में लिपायमान नहीं होती वह पुरुष इन सब प्राणियों को मारकर भी वास्तव में ना तो मारता है और ना पाप से बंधता है।××

अन्य धर्म भी ऐसी बातें बताते हैं lदीवाने शम्से तब्रीज में आर ए निकलसन समझाते हैं कि खुदा से एकता हो जाने के कारण कार्य फकीर के नहीं होते वे तो खुदाई होते हैं अर्थात कर्त्ता ईश्वर होता है l जलाल उद्दीन रूमी अपने ग्रंथ मसनबी में लिखते हैं कि फकीर जिसने भगवत्प्राप्ति कर ली है उसके लिए कयामत के दिन कारनामों की किताब नहीं देखी जाती क्योंकि ऐसे लोग कुछ करते ही नहीं l उनके कर्त्ता भगवान होते हैं l बाइबिल में इसी प्रकार बताती है कि कर्त्ता भगवान है l ÷

शरीर रहते हुए मुक्त होने का सबसे सरल उपाय गीता बताती है। कृष्ण की शरण में रहना, अनन्य चित्तवाला होना और हमेशा कृष्ण का स्मरण करना। सब कर्म कृष्ण की प्रसन्नता के लिए करना, कोई भी कर्म करे तो ऐसा समझना कि कृष्ण की पूजा है, फल की कोई इच्छा ना रखना और समस्त कर्म कृष्ण को अर्पण करना।

कपिल भगवान की माता देवहुति के शरीर की हालत मोक्ष के पहले क्या थी इसका वर्णन भागवत में मिलता है । “वह निरंतर समाधि में रहती थीं। वह जान गईं कि विषय अनित्य हैं, सत्य नहीं है, इनसे सुख नहीं मिल सकता। उन्हें अपने शरीर की सुध भी नहीं रहती थी, जैसे जागे हुए व्यक्ति को अपने सपनों में देखे हुए शरीर की नहीं रहती। उनके शरीर का पोषण दूसरे लोग ही करते थे। उन्हें कोई दुख नहीं था इसलिए शरीर कमजोर नहीं हुआ--- शरीर पर तेज था। शरीर की रक्षा प्रारब्ध ही करता था। उन्होंने शीघ्र ही भगवान को प्राप्त कर लिया।’’ इससे यह बात साफ है कि जो लोग जीते जी ही माया के बंधन से मुक्त हो चुके होते हैं, उनका शरीर कमजोर नहीं होता हालांकि उन्हें खाने-पीने की सुध नहीं होती है। भगवान की कृपा से दूसरे लोग ही उनको खाने-पीने की सामग्री देते हैं जुटाकर और शरीर पर एक तेज होता है, कोई दुख नहीं होता हमेशा एक आनंद में रहते हैं।

ऊपर हम देख चुके हैं कि श्रीराम ने हनुमान को मुक्ति उपनिषद के पहले अध्याय में उपदेश दिया है कि पापी भी यदि भगवान का नाम ले तो मुक्त हो जाता है। भगवान के नाम की महिमा अपार है। रूप ध्यान सहित नाम जप भगवत्प्राप्ति का, मुक्तिका( चारों प्रकार की मुक्ति जो भक्तों को मिलती हैं जिसका वर्णन ऊपर किया गया है)/ व अनंत काल के लिए भगवान की सेवा की प्राप्ति का, जिसे भक्त समस्त प्रकार के मोक्ष ठुकराकर माँगते हैं, सबसे सहज साधन है। चेतन महाप्रभु ने मुक्ति को डाकिनी बताया। भक्त भगवान से एकत्व नहीं चाहते, भक्त प्रेम चाहते हैं। प्रेम में दो का होना जरूरी है-- एक प्रेम करने वाला और एक वो जिससे प्रेम किया जाए। जीव को चैतन्य महाप्रभु ने कृष्ण का नित्य दास बताया है।

रामानुजाचार्य इस दास भाव को शेष-शेषी भाव कहते हैं।

माधवाचार्य जीव को हरि का अनुचर कहते हैं।

और, तुलसीदासजी कहते हैं सेवक और सेव्य भाव के बिना भवसागर से पार नहीं जाया जा सकता +

इन्हीं कारणों से भक्त भगवान की सेवा ही माँगते हैं।इसका मनोवैज्ञानिक कारण भी है। भोगों से, विषयों से, इंद्रियों के आनंद से अलग होना दुर्गम है, इनका दमन करना मुश्किल है। इन्हें भगवान की ओर मोड़ना आसान है। भक्ति में राग रहता है, परंतु यह राग भगवान से होता है, इसलिए बंधनकारी नहीं है, भगवान की प्राप्ति कराने वाला है। भागवत में मुक्ति को भक्ति की दासी बताया है। स्वामिनी को छोड़ दासी की ओर जाना, क्या बुद्धिमानी है? ज्ञान और वैराग्य इसके पुत्र हैं। जहाँ भक्ति जाती है वहाँ उसकी दासी और पुत्र भी अपने आप जाते हैं। इस प्रकार भक्ति करने से मुक्ति, ज्ञान और वैराग्य स्वयंमेव मिल जाते हैं।

मुक्ति मिलती है माया से जीव द्वारा स्थापित किए गए संबंध को तोड़ने से। इस संबंध को तोड़ने के, मुक्ति प्राप्त करने के, प्रहलादजी ने दस उपाय बताए हैं : मौन, ब्रह्मचर्य, शास्त्र-श्रवण, तपस्या, स्वाध्याय, स्वधर्म पालन, शास्त्रों की व्याख्या, एकांत सेवन जप और समाधि। बहुत से विद्वान, जैसे श्री प्रभुदत्त ब्रहमचारी ने इन पर विस्तार से टीका लिखी है, परंतु भक्ति मार्ग वाले इन दसों बातों पर विशेष ध्यान नहीं देते। चैतन्य महाप्रभु का मत है कि मनुष्य को चौबीस घंटे भगवान की महिमा का कीर्तन करते रहना चाहिए, मौन की आवश्यकता नहीं।(सत्संग पर लेख देखें)। प्रभुपाद जी के अनुसार यह दस विधियां भक्तों के लिए नहीं है।

मोक्ष को माया को पार करना भी कहते हैं। माया को कैसे पार करें? श्रीकृष्ण गीता में हमें बताते हैं कि माया उनकी है। इससे पार पाना कठिन है। उनकी शरण में जाने से इसे पार किया जा सकता है। निष्कर्ष यही निकला कि मोक्ष पाने का सबसे आसान उपाय भगवान की भक्ति है और भगवान की भक्ति के सभी अधिकारी हैं राक्षस, पशु, पक्षी, स्त्री पुरुष, सभी । ÷÷ अर्थात् सभी मोक्ष पाने के और भगवत धाम जाने के अधिकरी हैं। विशेषकर मानव शरीर तो भगवत प्राप्ति के लिए ही मिला है। यह देवदुर्लभ है। अभी मिल गया है तो इससे अपना काम बना लेना चाहिए ना जाने फिर कितने सर्गों के बाद में प्राप्त हो।

कुछ लोगों का मानना है कि मुक्ति तो होती है परंतु हमेशा के लिए नहीं। महाप्रलय तक ही मुक्ति रहती है। जब सृष्टि होती है तब जीव को वापस आना पड़ता है। यह बात मान ली जाए तो मुक्ति तो स्वर्ग आदि लोको में जाने जैसी ही हो गई, फिर स्वर्ग प्राप्ति और मुक्ति में क्या अंतर हुआ। ना तो दुखों का अभाव हुआ ना ही सुख का मिलना! इसलिए इन लोगों की यह बात गलत है। गीता में कृष्ण ने बताया है कि उनके धाम में जाने के बाद वापस नहीं आना पड़ता, कृष्ण का धाम प्राकृतिक लोकों जैसा नहीं है, वह सूर्य और चंद्र या अग्नि का प्रकाश नहीं होता।

मुक्ति के विरुद्ध यह भी कहा जाता है कि यदि सभी जीव मुक्त हो गए तो संसार में कोई जीव ही नहीं रहेगा संसार चल ही नहीं पाएगा। यह भी बेबुनियाद है। प्रथम तो जीव अनंत हैं कितनों की ही मुक्ति हो जाए अनंत जीव बचेंगे ही, क्योंकि अनंत में से अनंत निकाला जाए तो अनंत ही शेष रहता है। दूसरे, श्रीकृष्ण ने स्वयं कहा है कि उनकी प्राप्ति करने के लिए हजारों में से कोई एक प्रयास करता है, और ऐसा प्रयास करने वालों में से कोई बिरला ही उन्हें पूर्णतः जान पाता है। इस तरह से मोक्ष पाने वाले जीवों की संख्या ना के बराबर ही है। लिहाजा मुक्ति के विपक्ष के उपरोक्त दोनों ही पक्ष सत्य प्रतीत नहीं होते। ऊपर जिन पुराणों-वेदों की चर्चा की गई है उनके अनुसार मुक्ति सत्य है।

ऊपर बताई गई पाँचों मुक्तियों में थोड़ा-थोड़ा अंतर है। यह अंतर साधना भेद से है। जो निराकार ब्रह्म की साधना करता है, “ ब्रह्म ही सब कुछ है, ब्रह्म के अलावा कुछ नहीं, जो ब्रह्म है वह मैं हूँ, मैं ही ब्रह्म हूँ मेरे सिवाय कुछ नहीं, मैं और ब्रह्म एक ही हैं।’’ ऐसी साधना करने वाले साधक ब्रह्म से एकत्व प्राप्त करते हैं, परमसत्ता में लीन हो जाते हैं। इसे कैवल्य मोक्ष भी कहा है। दूसरे कई भक्त जो स्वयं को अपने इष्ट / भगवान के तद्रूप मानते हैं, वे भगवान में लीन हो जाते हैं, यह साकार भगवान में लीन होते हैं। उदाहरण के तौर पर जो स्वयं को कृष्ण मानते हैं, "मैं कृष्ण हूँ, कृष्ण और मैं एक ही हैं’’ वह लोग कृष्णरूप हो जाते हैं (कृष्ण का सारूप्य नहीं) यह सायुज्य मुक्ति है। गोपाल उत्तर तापनी उपनिषद व भागवत के छठे स्कंद में नारायण कवच के प्रसंग में, इस प्रकार की साधना का वर्णन मिलता है। जो निराकार ब्रह्म में लीन होता है उसकी मुक्ति और जो साकार भगवान में लीन होता है उसकी मुक्ति में बस इतना-सा ही अंतर होता है। परंतु, इन सभी मुक्तियों में बहुत-सी समानताएँ हैं। मुक्ति चाहे किसी भी प्रकार की हो इससे प्रकृति से संबंध विच्छेद हो जाता है। शरीर और शरीर के सारे क्लेश मिट जाते हैं अर्थात् दुख की निवृत्ति हो जाती है। आवागमन से छुटकारा मिलता है। दोबारा जन्म नहीं लेना पड़ता। हाँ, भगवान की आज्ञा से पुनः इस संसार में आ सकते हैं। भगवान की लीलाओं में भी भगवान की इच्छानुसार भाग लेने के लिए दुनिया में आ सकते हैं।

दुख निवृत्ति तो समस्त दर्शन बताते हैं। कुछ दर्शन आनंद प्राप्ति भी बताते हैं। इस आनंद प्राप्ति पर विचार करना उचित होगा। यह सुख किस प्रकार का होता है यह हम गीता से जानेंगे । निश्चित तौर पर यह सुख मायिक /प्राकृतिक नहीं होता, क्योंकि माया/ प्रकृति से मुक्ति में हमारा संबंध विच्छेद हो चुका है; हमारा और उसका अब कोई लेना-देना नहीं। यह सुख प्रकृति से परे है। इस सुख को बुद्धि नहीं जान सकती। यह सुख अपनेआपसे अपनेआपमें अपनेआपको मिलता है। इसे स्वरूपबोध भी कहते हैं.. यह सुख प्राप्त होने के बाद इससे और ज्यादा मात्रा का कौन-सा सुख होगा ऐसा विचार ही नहीं आता, इसे आत्यंतिक सुख, एेकांतिक सुख, गुणातीत सुख और आत्मिक सुख भी कहते हैं। इससे मिलता-जुलता सुख सुषुप्ति में भी गाढ़ी नींद में मिलता है, परंतु तब बुद्धि नहीं होती है। आत्मिक सुख में मन और बुद्धि दोनों रहते हैं, परंतु इस सुख का अनुभव नहीं कर पाते क्योंकि यह सुख इनसे पर है इसलिए स्वरुप ही इसका अनुभव कर सकता है। रामसुखदास जी ने बहुत अच्छी तरह इसको समझाया है- “यह संपूर्ण सुखों की आखिरी हद है---इससे मनुष्य कभी चलायमान नहीं होता। समाधि से तो व्युतत्थान होता है, परंतु इस सुख से नहीं क्योंकि प्रकृति से संबंध विच्छेद हो चुका है, इसलिए प्राकृतिक दुख अब यहाँ तक नहीं पहुँच सकते, उसका स्पर्श नहीं कर सकते। इसलिए, शरीर पर कैसी ही विपत्ति क्यों ना आए ऐसा सुख पानेवाला अपनी स्थिति से विचलित नहीं किया जा सकता।" यह सुख जो मिलता है इसका आश्रय सिर्फ श्रीकृष्ण ही है क्योंकि वह ब्रह्म, अविनाशी, अमृत, शाश्वत धर्म और एक एकांतिक सुख का आश्रय हैंl इसलिए मुक्ति किसी भी प्रकार की मिले उन सबका आश्रय श्री कृष्ण ही है।

मुक्ति संबंधी राजा जनक, व्यासजी और शंकराचार्यजी के मत हम ऊपर पहले ही देख चुके हैं। यह अनिर्वचनीय स्थिति है, परंतु है आनंद से भरपूर और हमेशा के लिए।

यदि आप यहाँ तक पहुँच चुके हैं तो आप उन गिने-चुने लोगों में से हैं जो दोबारा जन्म लेना नहीं चाहते, जन्म लेते-लेते परेशान हो गए हैं, इस जन्म को अपना आखिरी जन्म बनाना चाहते हैं तो आप जैसों के लिए भगवत्प्राप्ति/ मुक्ति के तीन ही रास्ते हैं -भक्ति योग, कर्मयोग योग और ज्ञान योग। जो ध्यान योग भगवान ने अर्जुन को गीता में और उद्धव को भागवत में समझाया है वह वास्तव में एक तरह से भक्तियोग ही है। ++तीनों ही मार्गो में मन को हमे परम सत्ता के साथ जोड़ना होता है--- चाहे उसे साकार माने, चाहे निराकार माने और चाहे यह माने कि “मैं वह हूँ।" उसमें मन लगाने के लिए सवेरे जागने से लगाकर सोने तक लगातार उसी का चिंतन करना है।₹ इस हेतु कार्य तो हाथ पैर और इंद्रियों से करने हैं, मन उसमें रखना है । ₹₹ यदि आप गाड़ी चला रहे हैं तो ऐसा कर सकते हैं, दुश्मन पर गोली बरसा रहे हैं तो भी ऐसा कर सकते हैं; परंतु यदि गणित के सवाल हल कर रहे हैं या हिसाब-किताब लिख रहे हैं, लेखा-जोखा कर रहे हैं तो मन में भगवान को रखना संभव नहीं है। इन परिस्थितियों में संतों का कहना है कि कार्य शुरू करने से पहले भगवान को याद कर लिया और कार्य समाप्त होने पर फिर भगवान को याद कर लिया तो भगवान मान लेते हैं कि बीच में भी उन्हें ही याद किया गया है-- यह मत रामसुखदास जैसे कई संतों का है। सब कर्म भगवान को अर्पण करने से भी मन भगवान में लगता है, बंधन नहीं होताऔर भगवान की प्राप्ति होती है। ₹₹₹ भगवान की पूजा समझकर समस्त कर्म करने से भगवान की ही प्राप्ति होती है । यदि किसी से यह सब कुछ भी ना हो, तो वह कुछ भी ना करें। बिना कुछ साधन किए भी भगवत्प्राप्ति हो सकती है! वह सब कुछ छोड़ कर भगवान की शरण में चला जाए और बिल्कुल भी ना डरे। बिल्ली के बच्चे की तरह म्याऊं-म्याऊं करता रहे और कुछ भी ना करें, जो कुछ करना है वह स्वयं भगवान करेंगे। म्याऊं-म्याऊं करने का अर्थ है हमेशा भगवान को याद रखें, उन्हें रो-रोकर पुकारते रहें। यह वादा श्री कृष्ण जी ने अर्जुन से गीता में और उधव से भागवत में।

“भगवान ही मेरे हैं’’ ऐसा विश्वास रखें। (शरणागति पर लेखक का लेख देखें बाल वनिता महिला आश्रमसाइट पर “कम टू मी ओनली, आए एम द वे ‘’.)

यदि हम ऐसा करेंगे तो हमें हमारे अंत समय में परम तत्व याद रहेगा और उसे याद रखते हुए शरीर छोड़ने पर हमें उसकी ही प्राप्ति । श्रीमद्भागवत भी यही कहती है कि अंत समय में ज्ञान से भक्ति से या धर्म से किसी भी उपाय से उसे याद रखना है।।अंत समय में भगवान को याद रखना बहुत कठिन है, यदि जीवन भर उसे याद नहीं रखा है, इसीलिए तो भगवान ने कहा है कि सब समय में उनका स्मरण किया जाए। ₹₹

संत रामसुखदास जी के अनुसार ऐसे भी अपवाद हैं जब अंत समय में भगवान याद आ सकते हाँलाकि हमने जीवन भर उन्हें याद नहीं रखा है :- यदि आखिरी समय में भगवान को प्राप्त किए हुए भक्त के दर्शन हो जाएँ या भगवान की कोई विशेष कृपा हो जाए; भय के कारण हमें भगवान याद आ जाएँ; तीर्थ स्थान के प्रभाव के कारण भी अंत समय में भगवान की स्मृति हो सकती है, जैसे काशी, वृंदावन, द्वारिका आदि; ऐसे स्थान का प्रभाव जहाँ नित्य कीर्तन होता हो या कोई भगवान को प्राप्त हुआ संत या जीवनमुक्त साधना करता हो या मरने वाले के समक्ष कोई नाम कीर्तन करें या गीता का आठवाँ अध्याय सुनाए या किसी भी तरह उसका मन भगवान में लग जाए।

देवी भागवत के अनुसार यदि कोई यह भावना लेकर के शरीर त्यागे “ मैं शरीर से पृथक निर्गुण अविनाशी आत्मा हूं, शरीर भले ही नष्ट हो जाए मैं सदा रहने वाला विकार शुन्य ब्रह्म हूं, मैं इस दुख से भरे संसार और शरीर से अलग हूंl’’तो उसका पुनर्जन्म नहीं होता l इसी प्रकार का नियम वेद भी बताते हैं l तैत्तिरीय उपनिषद की शीक्षावल्ली के दशम अनु वाक्य में ऋषि त्रिशंकु का अनुभव बताया गया है जिस में भी यही कहा गया है कि ऐसी भावना लेकर शरीर छोड़ा जाए कि दोबारा जन्म नहीं होगा तो उसका पुनर्जन्म नहीं होता l ऐसे तो मुक्ति के तीन ही मार्ग है ज्ञान, कर्म और भक्ति योग l परंतु भगवान ने अपनी करुणा दिखाते हुए एक अपवाद भी बना दिया है कि जीवन भर मुझे याद नहीं किया है अंत समय में मुझे याद कर ले तो भी तू मुझे ही प्राप्त होगा lऐसा भगवत कानून होते हुए भी साधारण मनुष्य शरीर त्यागते समय शरीर से,बेटे- बेटी,पति -पत्नी, पोते-पोती ,धन ,मकान ,जायजाद, संसार के सुख दुखआदि से चिपकता है, शरीर छोड़ना नहीं चाहता, उसका मन संसार और सांसारिक विषयों में रहता हैl इसलिए वह भगवान को प्राप्त नहीं होता औरअंतिम भाव के अनुसार बार बार जन्म लेता है और मरता है lउसका देव दुर्लभ मनुष्य जीवन यूं ही समाप्त हो जाता है l

शरीर त्यागते समय के कुछ उदाहरण. भीष्म पितामह तीरों की शैया पर लेटे हुए थे। मृत्यु उनके हाथ में थी, इच्छा मृत्यु का वरदान था। सूरज जब उत्तरायण में आया तब शरीर त्यागने का अवसर सही समझा। उनके सामने कृष्ण व पांडव थे। कृष्ण के लिए उन्होंने बताया कि वे साक्षात भगवान हैं, सबके आदि कारण और परम पुरुष नारायण है और इन्हें शंकर, नारद और कपिल भगवान के अलावा कोई नहीं जानता। गूढ़ रहस्य बताते हुए समझाया कि जो भगवान में मन लगाकर और वाणी से इनके नाम का कीर्तन करते हुए शरीर का त्याग करते हैं वह लोग उनकी कामनाओं से तथा कर्म के बंधन से छूट जाते हैं और भीष्म पितामह ने मन, वाणी और दृष्टि से श्रीकृष्ण में अपने आप को लीन कर दिया, उनके प्राण वही विलीन हो गए और वह शांत हो गए। इस प्रकार भगवान का ध्यान करते हुए भीष्म ने शरीर का त्याग किया और अनंत ब्रह्म में लीन हो गए । # # महाभारत में दूसरा विवरण है जिसके अनुसार कृष्ण के आदेश से भीष्म प्राण छोड़कर अपने वसुलोक को गए, उनका मोक्ष नहीं हुआ। ### ऐसा कल्प/मन्वन्तर भेद के कारण है। भागवत की घटनाएँ पद्मकल्प की हैं और महाभारत की घटनाएँ किसी अन्य कल्प की। हर कल्प व मन्वन्तर में घटनाएँ पूर्णतः एक जैसी हो ऐसा आवश्यक नहीं है। (प्रलय संबंधी लेख में यह सब बातें समझा दी गई हैं।)

राजा खटवांग को जब पता चला कि उनकी आयु के केवल दो घड़ी शेष हैं, तो उन्होंने मन संसार के विषयों से हटा दिया : “मैं विषयों को छोड़ रहा हूँ और केवल भगवान की शरण ले रहा हूँ।” अपने शरीर का त्याग कर दिया और अपने वास्तविक स्वरुप में स्थित हो गए। “यह शून्य के समान है परंतु शून्य नहीं है, परम सत्य है भक्तजन इसका भगवान वासुदेव के नाम से वर्णन करते हैं..। " #

कपिल भगवान की माता देवहुति का शरीर त्याग। सब सांसारिक मोह का त्याग करके उन्होंने भगवान का ध्यान किया। भगवान में बुद्धि स्थित हो जाने के कारण उनका जीव भाव निवृत्त हो गया और वह समस्त क्लेशों से छूटकर परमानंद में मग्न हो गई। वह निरंतर समाधि में रहती। उन्हें शरीर की भी सुध ना थी। शरीर का पोषण भी दूसरों द्वारा ही होता था। परंतु उन्हें कोई मानसिक दुख नहीं था। इस कारण से शरीर दुर्बल नहीं हुआ और तेजोमय बन गया। योगसाधना से उनके शरीर के सारे मल दूर हो गए और उनका शरीर एक नदी के रूप में बदल गया। उन्होंने इस प्रकार भगवान में ही मन लगाकर भगवान को प्राप्त कर लिया। और इसी प्रकार ऋषि ऋचीक की पत्नी सत्यवती कौशिकी नाम की पुण्य नदी बन गईं।।

भक्त राजा ध्रुव का शरीर त्याग करना भी ऊपर बताए गए गीता के सिद्धांतों के अनुसार ही था। संसार से उनका मन भर गया, राजपाट अपने पुत्र को दिया और हिमालय में बद्रिका आश्रम में पहुँच गए। वहाँ एकांत में योग साधना की। चिंतन करते करते ध्रुवजी भगवान में इस तरह तन्मय हो गए कि भूल गए “मैं ध्रुव हूँ ”। उन्होंने एक विशाल और सुंदर विमान को आते हुए देखा। विमान में भगवान के दो पार्षद नंद-सुनंदा चार भुजाधारी श्याम वर्ण के सुंदर व्यक्तित्व वाले, इन्हें भगवान के लोक में लेने आए। मृत्यु भी आया। ध्रुवजी मृत्यु के सिर पर पैर रखकर विमान में चढ़े। मृत्यु साधारण मनुष्य को भी आती है और भगवान के भक्तों को भी आती है। साधारण मनुष्य परेशान होते हुए त्यागता है देह को। भक्त मृत्यु के सिर पर पैर रखकर जाता है। एक बंधन में फंसा हुआ जाता है, एक मुक्त होकर जाता है। हम जैसे प्राणियों को लगता है कि दोनों ही एक समान मरे हैं। ध्रुवजी के भगवत धाम जाने में एक विलक्षण बात और थी। उन्होंने अपनी भौतिक देह का त्याग नहीं किया, वही दिव्य शरीर बन गया। वह सोने की तरह चमक रहा था और इस दिव्य शरीर से माता को भी साथ लेकर भगवान के नित्य धाम में पधारे। ईसा मसीह भी इसी प्रकार सशरीर भगवान के धाम गए। इसके विपरीत मृत्यु के समय नारद जी का पंचभौतिक शरीर नष्ट हो गया और उन्हें पार्षद शरीर प्राप्त हुआ।. नष्ट होने से अभिप्राय है कि उसका अस्तित्व ही समाप्त हो गया, शरीर पीछे नहीं छूटा, जैसे साधारण लोगों का छूटता है। अन्य दूसरे ही उसको जलाते हैं या दफनाते हैं या जानवर चील कौवे खा लेते हैं। अजामिल ने पंच भौतिक शरीर को त्याग दिया और तत्काल पार्षदों का स्वरूप प्राप्त कर लिया और विमान में बैठ कर भगवान के पार्षदों के साथ भगवान लक्ष्मीपति के निवास वैकुंठ को चले गए । त्यागने से मतलब है कि आत्मा ने वह शरीर छोड़ दिया, वह शरीर इस जगत में रहा।

राजा पृथु योग मार्ग द्वारा संसार के विषयों को त्यागकर अपने ब्रह्मस्वरूप में स्थित हुए और फिर उन्होंने शरीर त्यागा प्राण को ब्रह्मरंध्र में ले जाकर। कृष्ण के मामा कंस, राजा शिशुपाल और दंतवक्र तथा हाथी गजेंद्र का मन भी अंत समय में भगवान में लगा हुआ था इसलिए इन्हें भी भगवान की प्राप्ति हुई। । गजेंद्र ने भी अपना हाथी का शरीर त्यागा और चारभुजाधारी पार्षद, भगवान द्वारा बना दिया गया। अंतिम समय में यदि मन भगवान में स्थित हो, भाव चाहे जो हो, तो प्राप्ति भगवान की ही होती है--(-श्रीमद् भगवद गीता 8/5-15) ।

ऊपर हमने देखा कि हम भगवान के अंश है. और भगवान आनंद है, उसे सत् -चित्-आनन्द कहते हैं, पहले दो अक्षर आनंद के विशेषण है, वास्तविक नाम है आनंद। भगवान आनंद है यह कहना ठीक है; भगवान में आनंद है, यह ठीक नहीं l ऐसा लगता है कि आनंद और भगवान दो-दो चीज हो जैसे कि रसगुल्ले में रस और गुल्ला अलग-अलग दो हैं। भगवान के अंश होने के कारण हम आनंद की खोज में हैं; परन्तु अभी तक हमें आनंद प्राप्त नहीं हुआ है। कारण हम संसार में आनंद खोज रहे हैं। जहाँ वह है ही नहीं। आनंद भगवान में है। जब हम भगवान में आनंद खोजेंगे तब हमें आनंद मिल सकता है। आनंद पाने हेतु भगवान की ओर जाना है और हमें यह भी ज्ञान होना चाहिए कि धरती के अलावा भी बहुत से लोक हैं।(लोक-परलोक लेख में विस्तार से बताया गया है) यह सब अनित्य हैं. केवल भगवत धाम ही नित्य है। इस धाम में जाने का प्रयास करेंगे तब ही हम आवागमन से मुक्त हो सकते हैं।

अंत समय का भाव और शरीर छोड़ते समय का चिंतन ज्ञानी के लिए भी महत्वपूर्ण है l देवी भागवत के अनुसार,ऐसा चिंतन लेकर शरीर त्यागा जाए कि “ मैं इस संसार से अलग हूं,’’ और वेदों के अनुसार ऐसा चिंतन करते हुए शरीर त्यागा जाए कि “यह मेरा आखिरी जंम है मेरा पुनर्जन्म नहीं होने वाला क्योंकि मैं संसार रूपी वृक्ष का उच्छेद करने वाला हूं’’l 🎞 तो इस प्रकार से भाव रखकर शरीर छोड़ने वाले का आवागमन के चक्र से छुटकारा हो जाता है और वह पूर्णब्रह्म परमात्मा को प्राप्त हो जाता हैl यहां पर यह स्पष्ट करने की आवश्यकता नहीं कि यह भाव मृत्यु के समय तब ही आएगा जबकि जीवन भर इस प्रकार के भाव की साधना की है और इस भाव को स्थाई कर लिया है l

तत्काल मोक्ष?

"एक तो शरीर इंद्रियाँ मन बुद्धि साथ लेते हुए साधन करना और एक सीधा परमात्मा के साथ संबंध जोड़ देने।" तत्काल मोक्ष कैसे मिले यह राम सुखदासजी ने बताया है:" मेरे स्वरूप में कोई विकार नहीं है "...इसमें स्थित रहने से बहुत जल्दी सिद्धी होती है।मनन निदिध्यासन आदि की आवश्यकता भी नहीं।बात भी सही है। भगवान ने हमें कर्ता बनया ही नही, असँख्य् शरीर धारण करने पर भी हम सभी शरीरओ से और कर्मो से असंग ही हैं।"० इस ज्ञान से मुक्ति हो जाएगी।
बाल वनिता महिला आश्रम
"मैं भगवान का हूं" ऐसा मानते ही सिद्धि हो जाती है । मान्यता ऐसी हो जिसको कोई हटा नहीं सके पूर्ण दृढ़ता हो। स्वयं शंकर जी आकर कह दे मैं तेरे को स्वीकार नहीं करता तो भी मैं उन्हें नहीं छोडूंगी ऐसा विश्वास पार्वती जी का था । भगवत प्राप्ति हेतु हमें भी ऐसा ही दृढ़ निश्चय करना है "मैं भगवान का हूं, चाहें मुझे हजारों जन्म तक ना मिलें और खुद ही आकर क्यों ना कह दे कि मैं तेरे को स्वीकार नहीं करता।"

गीता के कर्म योग में कामनाओं का त्याग होने पर स्वरूप में स्थिति हो जाती है, तत्काल।

ध्यान में बहुत दूर तक जड़ता रहती है।समाधि से उतरते ही पुनः माया लग जाती है।(तत्काल सिद्धि का मार्ग,साधन -सुधा- सिन्धु ,गीता प्रेस गोरखपुर)

है ना मुक्ति बहुत आसान !

ठुकराओ संसार को

समाप्त करो आने-जाने को,

अपने घर की देखो राह को।

सदा लो हरि का नाम,

पहुँचो उनके धाम,

फिर वहाँ रहो हरदम।

आध्यात्मिक सिद्धांत निम्न:-

भागवतसे11/2/37,3/9/11,7/20/39,7/1/13,10/7/8,10/66/24,10/44/39,12/9/22,7/1/27,2/1/15,4/8/82,3/39/30,1/1/2,11/11/7,9/9/47,9/9/42,1/6/28,8/4/12,3/5/2,

सांख्यसूत्र 3/65,

महाभारत।167/46-47,

*गीता15/7, 13/31, जैनिसिस 1/26-27,

**गीता 2/16-29, @@ गीता 13/19-21,

==गीता 8/24, ∆∆ 3/27, ∆∆∆8/5, ÷÷9/30-32, ××18/17, ₹18/65, ₹₹ 8/7, ₹₹₹9/27to 28, "० ५/१४, १३/३२ सभी गीता से हैं,

० भागवत 3/9/11, 4/11गईतआ, 3/3 मद. उप.

=भागवत 3/7/9-11, π भागवत 7/10/39, ***भागवत 11/2/37, ००० भागवत 1/1//2, #भआगवत 9/9/42-49, ++ भागवत 11/15/24, गीता 6/47, 12/2, 5,

# # भागवत 1/9/44, # # # महाभारत 167/46-47,

@ सांख्य सूत्र3/65,

०० कठोपनिषद 2/1/15 ,

🎞 तैत्तिरीय उप. शिक्षावल्ली 10 वां अनुवाक्

•६/१६/१०-१५ अध्यात्म रामायण

इतिश्री अध्याय 24

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🌹🌳जय श्री राधे कृष्णा जी 🌹by समाजसेवी वनिता कासनियां पंजाब🌳शुभ संध्या वंदना जी🌹🌳🥀🌲🥀🌲🥀#🌲🥀🙏_बिहारी_जी_का_आसन_"🙏🏻🌹.बहुत समय पहले कि बात है बिहारी जी का एक परम प्रिय भक्त था। वह नित्य प्रति बिहारी जी का भजन-कीर्तन करता था।🌳🌲🥀.उसके ह्रदय का ऐसा भाव था कि बिहारी जी नित्य उसके भजन-कीर्तन को सुनने आते थे।.एक दिन स्वप्न में बिहारी जी ने उससे शिकायत करते हुए कहा, तुम नित्य प्रति भजन-कीर्तन करते हो और मैं नित्य उसे सुनने आता भी हूं... 🌹🌳🌲.लेकिन आसन ना होने के कारण मुझे कीर्तन में खड़े रहना पड़ता है, जिस कारण मेरे पांव दुख जाते है, .अब तू ही मुझे मेरे योग्य कोई आसन दे जिस पर बैठ मैं तेरा भजन-कीर्तन सुन सकू।🌲🥀.तब भक्त ने कहा, प्रभु ! स्वर्ण सिंहासन पर मैं आपको बैठा सकूं इतना मुझमें सार्मथ्य नहीं और भूमि पर आपको बैठने के लिए कह नहीं सकता। .यदि कोई ऐसा आसन है जो आपके योग्य है तो वो है मेरे ह्रदय का आसन आप वहीं बैठा किजिये प्रभु।.बिहारी जी ने हंसते हुए कहा, वाह ! मान गया तेरी बुद्धिमत्ता को... 🌲🥀.मैं तुझे ये वचन देता हूं जो भी प्रेम भाव से मेरा भजन-कीर्तन करेगा मैं उसके ह्रदय में विराजित हो जाऊंगा।🌳🌲🥀.ये सत्य भी है और बिहारी जी का कथन भी। .वह ना बैकुंठ में रहते है ना योगियों के योग में और ना ध्यानियों के ध्यान में, वह तो प्रेम भाव से भजन-कीर्तन करने वाले के ह्रदय में रहते है।।🌳.बोलिए श्री बांके बिहारी लाल की जय....🙌🌺

*कालिदास बोले 😗 माते पानी पिला दीजिए बङा पुण्य होगा.*स्त्री बोली 😗 बेटा मैं तुम्हें जानती नहीं. अपना परिचय दो। मैं अवश्य पानी पिला दूंगी।*कालीदास ने कहा 😗 मैं पथिक हूँ, कृपया पानी पिला दें।*स्त्री बोली 😗 तुम पथिक कैसे हो सकते हो, पथिक तो केवल दो ही हैं सूर्य व चन्द्रमा, जो कभी रुकते नहीं हमेशा चलते रहते। तुम इनमें से कौन हो सत्य बताओ।*कालिदास ने कहा 😗 मैं मेहमान हूँ, कृपया पानी पिला दें।*स्त्री बोली 😗 तुम मेहमान कैसे हो सकते हो ? संसार में दो ही मेहमान हैं।पहला धन और दूसरा यौवन। इन्हें जाने में समय नहीं लगता। सत्य बताओ कौन हो तुम ?.(अब तक के सारे तर्क से पराजित हताश तो हो ही चुके थे)*कालिदास बोले 😗 मैं सहनशील हूं। अब आप पानी पिला दें।*स्त्री ने कहा 😗 नहीं, सहनशील तो दो ही हैं। पहली, धरती जो पापी-पुण्यात्मा सबका बोझ सहती है। उसकी छाती चीरकर बीज बो देने से भी अनाज के भंडार देती है, दूसरे पेड़ जिनको पत्थर मारो फिर भी मीठे फल देते हैं। तुम सहनशील नहीं। सच बताओ तुम कौन हो ? (कालिदास लगभग मूर्च्छा की स्थिति में आ गए और तर्क-वितर्क से झल्लाकर बोले)*कालिदास बोले 😗 मैं हठी हूँ ।.*स्त्री बोली 😗 फिर असत्य. हठी तो दो ही हैं- पहला नख और दूसरे केश, कितना भी काटो बार-बार निकल आते हैं। सत्य कहें ब्राह्मण कौन हैं आप ? (पूरी तरह अपमानित और पराजित हो चुके थे)*कालिदास ने कहा 😗 फिर तो मैं मूर्ख ही हूँ ।.*स्त्री ने कहा 😗 नहीं तुम मूर्ख कैसे हो सकते हो। मूर्ख दो ही हैं। पहला राजा जो बिना योग्यता के भी सब पर शासन करता है, और दूसरा दरबारी पंडित जो राजा को प्रसन्न करने के लिए ग़लत बात पर भी तर्क करके उसको सही सिद्ध करने की चेष्टा करता है।(कुछ बोल न सकने की स्थिति में कालिदास वृद्धा के पैर पर गिर पड़े और पानी की याचना में गिड़गिड़ाने लगे)*वृद्धा ने कहा 😗 उठो वत्स ! (आवाज़ सुनकर कालिदास ने ऊपर देखा तो साक्षात माता सरस्वती वहां खड़ी थी, कालिदास पुनः नतमस्तक हो गए)*माता ने कहा 😗 शिक्षा से ज्ञान आता है न कि अहंकार । तूने शिक्षा के बल पर प्राप्त मान और प्रतिष्ठा को ही अपनी उपलब्धि मान लिया और अहंकार कर बैठे इसलिए मुझे तुम्हारे चक्षु खोलने के लिए ये स्वांग करना पड़ा।.कालिदास को अपनी गलती समझ में आ गई और भरपेट पानी पीकर वे आगे चल पड़े।शिक्षा :-विद्वत्ता पर कभी घमण्ड न करें, यही घमण्ड विद्वत्ता को नष्ट कर देता है। दो चीजों को कभी *व्यर्थ* नहीं जाने देना चाहिए.... By समाजसेवी वनिता कासनियां पंजाब. *अन्न के कण को* "और"*आनंद के क्षण को* 🙏Jai Mata Di🙏

जन्माष्टमी श्री कृष्ण जी मुख्य मेनू जन्माष्टमी By वनिता कासनियां पंजाबवार्षिक हिंदू त्योहार जो भगवान कृष्ण के जन्म का जश्न मनाता है भाषा PDF डाउनलोड करेंध्यान रखेंसंपादित करेंकृष्ण जन्माष्टमी, जिसे जन्माष्टमी वा गोकुलाष्टमी के रूप में भी जाना जाता है, एक वार्षिक हिंदू त्योहार है जो विष्णुजी के दशावतारों में से आठवें और चौबीस अवतारों में से बाईसवें अवतार श्रीकृष्ण के जन्म के आनन्दोत्सव के लिये मनाया जाता है।[1] यह हिंदू चंद्रमण वर्षपद के अनुसार, कृष्ण पक्ष (अंधेरे पखवाड़े) के आठवें दिन (अष्टमी) को भाद्रपद में मनाया जाता है । [2] जो ग्रेगोरियन कैलेंडर के अगस्त व सितंबर के साथ अधिव्यापित होता है।[3]जन्माष्टमीभगवान कृष्णआधिकारिक नामश्रीकृष्ण जन्माष्टमीअनुयायीहिन्दू,नेपाली, भारतीय, नेपाली और भारतीय प्रवासीप्रकारहिन्दू धार्मिकउद्देश्यभगवान कृष्ण के आदर्शों को स्मरण करना और ध्यान में लानाउत्सवप्रसाद बाँटना, भजन गाना इत्यादिअनुष्ठानश्रीकृष्ण की झाँकी सजाना व्रत व पूजनआरम्भअति प्राचीनतिथिश्रावण, Krishna, अष्टमीविशेषतासंपादित करेंयह एक महत्वपूर्ण त्योहार है, विशेषकर हिन्दू धर्म की वैष्णव परम्परा में। भागवत पुराण (जैसे रास लीला वा कृष्ण लीला) के अनुसार कृष्ण के जीवन के नृत्य-नाटक की परम्परा, कृष्ण के जन्म के समय मध्यरात्रि में भक्ति गायन, उपवास (व्रत), रात्रि जागरण (रात्रि जागरण), और एक त्योहार (महोत्सव) अगले दिन जन्माष्टमी समारोह का एक भाग हैं। [4]यह मणिपुर, असम, बिहार, पश्चिम बंगाल, ओडिशा, मध्य प्रदेश, राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र, कर्नाटक, केरल, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश तथा भारत के अन्य सभी राज्यों में पाए जाने वाले प्रमुख वैष्णव और निर्सांप्रदायिक समुदायों के साथ विशेष रूप से मथुरा और वृंदावन में मनाया जाता है[4]। कृष्ण जन्माष्टमी के उपरान्त त्योहार नंदोत्सव होता है, जो उस अवसर को मनाता है जब नंद बाबा ने जन्म के सम्मान में समुदाय को उपहार वितरित किए।कृष्ण देवकी और वासुदेव आनकदुंदुभी के पुत्र हैं और उनके जन्मदिन को हिंदुओं द्वारा जन्माष्टमी के रूप में मनाया जाता है, विशेष रूप से गौड़ीय वैष्णववाद परम्परा के रूप में उन्हें भगवान का सर्वोच्च व्यक्तित्व माना जाता है। जन्माष्टमी हिंदू परंपरा के अनुसार तब मनाई जाती है जब माना जाता है कि कृष्ण का जन्म मथुरा में भाद्रपद महीने के आठवें दिन (ग्रेगोरियन कैलेंडर में अगस्त और सितंबर के साथ अधिव्यपित) की आधी रात को हुआ था।[5]कृष्ण का जन्म अराजकता के क्षेत्र में हुआ था। यह एक ऐसा समय था जब उत्पीड़न बड़े पैमाने पर था, स्वतंत्रता से वंचित किया गया था, बुराई सब ओर थी, और जब उनके मामा राजा कंस द्वारा उनके जीवन के लिए संकट था।भगवान कृष्ण की महानतासंपादित करेंकृष्ण जी भगवान विष्णु जी के अवतार हैं, जो तीन लोक के तीन गुणों सतगुण, रजगुण तथा तमोगुण में से सतगुण विभाग के प्रभारी हैं।[6] भगवान का अवतार होने की वजह से कृष्ण जी में जन्म से ही सिद्धियां मौजूद थीं। उनके माता पिता वसुदेव और देवकी जी के विवाह के समय मामा कंस जब अपनी बहन देवकी को ससुराल पहुँचाने जा रहा था तभी आकाशवाणी हुई थी जिसमें बताया गया था कि देवकी का आठवां पुत्र कंस को मारेगा। अर्थात् यह होना पहले से ही निश्चित था अतः वसुदेव और देवकी को जेल में रखने के बावजूद कंस कृष्ण जी को नहीं मार पाया।[6]मथुरा की जेल में जन्म के तुरंत बाद, उनके पिता वसुदेव अानकदुन्दुबी कृष्ण को यमुना पार ले जाते हैं, ताकि माता-पिता का गोकुल में नंद और यशोदा नाम दिया जा सके। जन्माष्टमी पर्व लोगों द्वारा उपवास रखकर, कृष्ण प्रेम के भक्ति गीत गाकर और रात में जागरण करके मनाई जाती है। हालांकि श्रीमद्भगवद्गीता के अनुसार व्रत-उपवास तथा जागरण को शास्त्र विरुद्ध साधना कहा है ।अध्याय 6 का श्लोक 16(भगवान उवाच )न, अति, अश्नतः, तु, योगः, अस्ति, न, च, एकान्तम्, अनश्नतःन, च, अति, स्वप्नशीलस्य, जाग्रतः, न, एव, च, अर्जुन।हे अर्जुन! यह योग न तो बहुत खाने वाले का, न बिलकुल न खाने वाले का, न बहुत शयन करने के स्वभाव वाले का और न सदा जागने वाले का ही सिद्ध होता है || 16 ||[6]मध्यरात्रि के जन्म के बाद, शिशु कृष्ण की मूर्तियों को धोया और पहनाया जाता है, फिर एक पालने में रखा जाता है। इसके बाद भक्त भोजन और मिठाई बांटकर अपना उपवास तोड़ते हैं। महिलाएं अपने घर के दरवाजे और रसोई के बाहर छोटे-छोटे पैरों के निशान बनाती हैं जो अपने घर की ओर चलते हुए, अपने घरों में कृष्ण के आने का प्रतीक माना जाता है।समारोहसंपादित करेंजन्माष्टमी उत्सवकुछ समुदाय कृष्ण की किंवदंतियों को मक्कन चोर (मक्खन चोर) के रूप में मनाते हैं।हिंदू जन्माष्टमी को उपवास, गायन, एक साथ प्रार्थना करने, विशेष भोजन तैयार करने और साझा करने, रात्रि जागरण और कृष्ण या विष्णु मंदिरों में जाकर मनाते हैं। प्रमुख कृष्ण मंदिर 'भागवत पुराण' और 'भगवद गीता' के पाठ का आयोजन करते हैं। कई समुदाय नृत्य-नाटक कार्यक्रम आयोजित करते हैं जिन्हें रास लीला या कृष्ण लीला कहा जाता है। रास लीला की परंपरा विशेष रूप से मथुरा क्षेत्र में, भारत के पूर्वोत्तर राज्यों जैसे मणिपुर और असम में और राजस्थान और गुजरात के कुछ हिस्सों में लोकप्रिय है। यह शौकिया कलाकारों की कई टीमों द्वारा अभिनय किया जाता है, उनके स्थानीय समुदायों द्वारा उत्साहित किया जाता है, और ये नाटक-नृत्य नाटक प्रत्येक जन्माष्टमी से कुछ दिन पहले शुरू होते हैं।[7]महाराष्ट्रसंपादित करेंदही हंडीजन्माष्टमी (महाराष्ट्र में "गोकुलाष्टमी" के रूप में लोकप्रिय) मुंबई, लातूर, नागपुर और पुणे जैसे शहरों में मनाई जाती है। दही हांडी कृष्ण जन्माष्टमी के अगले दिन हर अगस्त/सितंबर में मनाई जाती है। यहां लोग दही हांडी को तोड़ते हैं जो इस त्योहार का एक हिस्सा है। दही हांडी शब्द का शाब्दिक अर्थ है "दही का मिट्टी का बर्तन"। त्योहार को यह लोकप्रिय क्षेत्रीय नाम शिशु कृष्ण की कथा से मिलता है। इसके अनुसार, वह दही और मक्खन जैसे दुग्ध उत्पादों की तलाश और चोरी करते थे और लोग अपनी आपूर्ति को बच्चे की पहुंच से बाहर छिपा देते थे। कृष्ण अपनी खोज में हर तरह के रचनात्मक विचारों को आजमाते थे, जैसे कि अपने दोस्तों के साथ इन ऊँचे लटकते बर्तनों को तोड़ने के लिए मानव पिरामिड बनाना। यह कहानी भारत भर में हिंदू मंदिरों के साथ-साथ साहित्य और नृत्य-नाटक प्रदर्शनों की कई राहतों का विषय है, जो बच्चों की आनंदमय मासूमियत का प्रतीक है, कि प्रेम और जीवन का खेल ईश्वर की अभिव्यक्ति है।[8]महाराष्ट्र और भारत के अन्य पश्चिमी राज्यों में, इस कृष्ण कथा को जन्माष्टमी पर एक सामुदायिक परंपरा के रूप में निभाया जाता है, जहां दही के बर्तनों को ऊंचे डंडे से या किसी इमारत के दूसरे या तीसरे स्तर से लटकी हुई रस्सियों से ऊपर लटका दिया जाता है। वार्षिक परंपरा के अनुसार, "गोविंदा" कहे जाने वाले युवाओं और लड़कों की टीमें इन लटकते हुए बर्तनों के चारों ओर नृत्य और गायन करते हुए जाती हैं, एक दूसरे के ऊपर चढ़ती हैं और एक मानव पिरामिड बनाती हैं, फिर बर्तन को तोड़ती हैं। गिराई गई सामग्री को प्रसाद (उत्सव प्रसाद) के रूप में माना जाता है। यह एक सार्वजनिक तमाशा है, एक सामुदायिक कार्यक्रम के रूप में उत्साहित और स्वागत किया जाता है।समकालीन समय में, कई भारतीय शहर इस वार्षिक हिंदू अनुष्ठान को मनाते हैं। युवा समूह गोविंदा पाठक बनाते हैं, जो विशेष रूप से जन्माष्टमी पर पुरस्कार राशि के लिए एक-दूसरे के साथ प्रतिस्पर्धा करते हैं। इन समूहों को मंडल या हांडी कहा जाता है और वे स्थानीय क्षेत्रों में घूमते हैं, हर अगस्त में अधिक से अधिक बर्तन तोड़ने का प्रयास करते हैं। सामाजिक हस्तियां और मीडिया उत्सव में भाग लेते हैं, जबकि निगम कार्यक्रम के कुछ हिस्सों को प्रायोजित करते हैं। गोविंदा टीमों के लिए नकद और उपहार की पेशकश की जाती है, और टाइम्स ऑफ इंडिया के अनुसार, 2014 में अकेले मुंबई में 4,000 से अधिक हांडी पुरस्कारों से लबरेज थे, और गोविंदा की कई टीमों ने भाग लिया था।[9]गुजरात और राजस्थानसंपादित करेंगुजरात के द्वारका में लोग - जहां माना जाता है कि कृष्ण ने अपना राज्य स्थापित किया था - दही हांडी के समान एक परंपरा के साथ त्योहार मनाते हैं, जिसे माखन हांडी (ताजा मथने वाले मक्खन के साथ बर्तन) कहा जाता है। अन्य लोग मंदिरों में लोक नृत्य करते हैं, भजन गाते हैं, कृष्ण मंदिरों जैसे द्वारकाधीश मंदिर या नाथद्वारा जाते हैं। कच्छ जिले के क्षेत्र में, किसान अपनी बैलगाड़ियों को सजाते हैं और सामूहिक गायन और नृत्य के साथ कृष्ण जुलूस निकालते हैं।वैष्णववाद के पुष्टिमार्ग के विद्वान दयाराम की कार्निवल-शैली और चंचल कविता और रचनाएँ, गुजरात और राजस्थान में जन्माष्टमी के दौरान विशेष रूप से लोकप्रिय हैं।[10]उत्तरी भारतसंपादित करेंजनमाष्टमी उत्सव के अवसर पर रूप धारण किया हुआ बालकजन्माष्टमी उत्तर भारत के ब्रज क्षेत्र में सबसे बड़ा त्योहार है, मथुरा जैसे शहरों में जहां हिंदू परंपरा कहती है कि कृष्ण का जन्म हुआ था, और वृंदावन में जहां वे बड़े हुए थे। उत्तर प्रदेश के इन शहरों में वैष्णव समुदाय, साथ ही अन्य राज्य राजस्थान, दिल्ली, हरियाणा, उत्तराखंड और हिमालयी उत्तर के स्थानों में जन्माष्टमी मनाते हैं। कृष्ण मंदिरों को सजाया जाता है और रोशनी की जाती है, वे दिन में कई आगंतुकों को आकर्षित करते हैं, जबकि कृष्ण भक्त भक्ति कार्यक्रम आयोजित करते हैं और रात्रि जागरण करते हैं।[11]भक्तजन मिठाई बांटते हैं।[12]त्योहार आम तौर पर वर्षा ऋतु में पड़ता है। फसलों से लदे खेतों और ग्रामीण समुदायों के पास खेलने का समय है। उत्तरी राज्यों में, जन्माष्टमी को रासलीला परंपरा के साथ मनाया जाता है, जिसका शाब्दिक अर्थ है "खुशी का खेल (लीला), सार (रस)"। इसे जन्माष्टमी पर एकल या समूह नृत्य और नाटक कार्यक्रमों के रूप में व्यक्त किया जाता है, जिसमें कृष्ण से संबंधित रचनाएं गाई जाती हैं। कृष्ण के बचपन की शरारतें और राधा-कृष्ण के प्रेम प्रसंग विशेष रूप से लोकप्रिय हैं। क्रिश्चियन रॉय और अन्य विद्वानों के अनुसार, ये राधा-कृष्ण प्रेम कहानियां दैवीय सिद्धांत और वास्तविकता के लिए मानव आत्मा की लालसा और प्रेम के लिए हिंदू प्रतीक हैं।[11]जम्मू में, छतों से पतंग उड़ाना कृष्ण जन्माष्टमी पर उत्सव का एक हिस्सा है।पूर्वी और पूर्वोत्तर भारतसंपादित करेंजन्माष्टमी व्यापक रूप से पूर्वी और पूर्वोत्तर भारत के हिंदू वैष्णव समुदायों द्वारा मनाई जाती है। इन क्षेत्रों में कृष्ण जन्माष्टमी को मनाने की व्यापक परंपरा का श्रेय १५वीं और १६वीं शताब्दी के शंकरदेव और चैतन्य महाप्रभु के प्रयासों और शिक्षाओं को जाता है। उन्होंने दार्शनिक विचारों के साथ-साथ हिंदू भगवान कृष्ण को मनाने के लिए प्रदर्शन कला के नए रूप विकसित किए जैसे कि बोर्गेट, अंकिया नाट, सत्त्रिया और भक्ति योग अब पश्चिम बंगाल और असम में लोकप्रिय हैं। आगे पूर्व में, मणिपुर के लोगों ने मणिपुरी नृत्य रूप विकसित किया, एक शास्त्रीय नृत्य रूप जो अपने हिंदू वैष्णववाद विषयों के लिए जाना जाता है, और जिसमें सत्त्रिया की तरह रासलीला नामक राधा-कृष्ण की प्रेम-प्रेरित नृत्य नाटक कला शामिल है। ये नृत्य नाट्य कलाएं इन क्षेत्रों में जन्माष्टमी परंपरा का एक हिस्सा हैं, और सभी शास्त्रीय भारतीय नृत्यों के साथ, प्राचीन हिंदू संस्कृत पाठ नाट्य शास्त्र में प्रासंगिक जड़ें हैं, लेकिन भारत और दक्षिण पूर्व एशिया के बीच संस्कृति संलयन से प्रभावित हैं।[13]जन्माष्टमी पर, माता-पिता अपने बच्चों को कृष्ण की किंवदंतियों, जैसे कि गोपियों और कृष्ण के पात्रों के रूप में तैयार करते हैं। मंदिरों और सामुदायिक केंद्रों को क्षेत्रीय फूलों और पत्तियों से सजाया जाता है, जबकि समूह भागवत पुराण और भगवत गीता के दसवें अध्याय का पाठ करते या सुनते हैं।जन्माष्टमी मणिपुर में उपवास, सतर्कता, शास्त्रों के पाठ और कृष्ण प्रार्थना के साथ मनाया जाने वाला एक प्रमुख त्योहार है। मथुरा और वृंदावन में जन्माष्टमी के दौरान रासलीला करने वाले नर्तक एक उल्लेखनीय वार्षिक परंपरा है। मीतेई वैष्णव समुदाय में बच्चे लिकोल सन्नाबागेम खेलते हैं।[13]ओड़िशा और पश्चिम बंगालसंपादित करेंपूर्वी राज्य ओड़िशा में, विशेष रूप से पुरी के आसपास के क्षेत्र और पश्चिम बंगाल के नबद्वीप में, त्योहार को श्री कृष्ण जयंती या बस श्री जयंती के रूप में भी जाना जाता है। लोग आधी रात तक उपवास और पूजा कर जन्माष्टमी मनाते हैं। भागवत पुराण कृष्ण के जीवन को समर्पित एक खंड, १०वें अध्याय से पढ़ा जाता है। अगले दिन को "नंदा उत्सव" या कृष्ण के पालक माता-पिता नंदा और यशोदा का खुशी का उत्सव कहा जाता है। जन्माष्टमी के पूरे दिन भक्त उपवास रखते हैं। वे अपने अभिषेक समारोह के दौरान गंगा स्नान राधा माधव से पानी लाते हैं। आधी रात को छोटे राधा माधव देवताओं के लिए एक भव्य अभिषेक किया जाता है, जबकि 400 से अधिक वस्तुओं का भोजन (भोग) भक्ति के साथ उनके प्रभु को अर्पित किया जाता है।[14]दक्षिण भारतसंपादित करेंगोकुला अष्टमी (जन्माष्टमी या श्री कृष्ण जयंती) कृष्ण का जन्मदिन मनाती है। गोकुलाष्टमी दक्षिण भारत में बहुत उत्साह के साथ मनाई जाती है। [३९] केरल में, लोग मलयालम कैलेंडर के अनुसार सितंबर को मनाते हैं। तमिलनाडु में, लोग फर्श को कोलम (चावल के घोल से तैयार सजावटी पैटर्न) से सजाते हैं। गीता गोविंदम और ऐसे ही अन्य भक्ति गीत कृष्ण की स्तुति में गाए जाते हैं। फिर वे घर की दहलीज से पूजा कक्ष तक कृष्ण के पैरों के निशान खींचते हैं, जो घर में कृष्ण के आगमन को दर्शाता है। भगवद्गीता का पाठ भी एक लोकप्रिय प्रथा है। कृष्ण को चढ़ाए जाने वाले प्रसाद में फल, पान और मक्खन शामिल हैं। कृष्ण की पसंदीदा मानी जाने वाली सेवइयां बड़ी सावधानी से तैयार की जाती हैं। उनमें से सबसे महत्वपूर्ण हैं सीदाई, मीठी सीदाई, वेरकादलाई उरुंडई। यह त्योहार शाम को मनाया जाता है क्योंकि कृष्ण का जन्म मध्यरात्रि में हुआ था। ज्यादातर लोग इस दिन सख्त उपवास रखते हैं और आधी रात की पूजा के बाद ही भोजन करते हैं।आंध्र प्रदेश में, श्लोकों और भक्ति गीतों का पाठ इस त्योहार की विशेषता है। इस त्यौहार की एक और अनूठी विशेषता यह है कि युवा लड़के कृष्ण के रूप में तैयार होते हैं और वे पड़ोसियों और दोस्तों से मिलते हैं। विभिन्न प्रकार के फल और मिठाइयाँ सबसे पहले कृष्ण को अर्पित की जाती हैं और पूजा के बाद इन मिठाइयों को आगंतुकों के बीच वितरित किया जाता है। आंध्र प्रदेश के लोग भी उपवास रखते हैं। इस दिन गोकुलनंदन चढ़ाने के लिए तरह-तरह की मिठाइयां बनाई जाती हैं। कृष्ण को प्रसाद बनाने के लिए दूध और दही के साथ खाने की चीजें तैयार की जाती हैं। राज्य के कुछ मंदिरों में कृष्ण के नाम का आनंदपूर्वक जप होता है। कृष्ण को समर्पित मंदिरों की संख्या कम है। इसका कारण यह है कि लोगों ने मूर्तियों के बजाय चित्रों के माध्यम से उनकी पूजा की जाती है।कृष्ण को समर्पित लोकप्रिय दक्षिण भारतीय मंदिर हैं, तिरुवरुर जिले के मन्नारगुडी में राजगोपालस्वामी मंदिर, कांचीपुरम में पांडवधूथर मंदिर, उडुपी में श्री कृष्ण मंदिर और गुरुवायुर में कृष्ण मंदिर विष्णु के कृष्ण अवतार की स्मृति को समर्पित हैं। किंवदंती कहती है कि गुरुवायुर में स्थापित श्री कृष्ण की मूर्ति द्वारका की है, जिसके बारे में माना जाता है कि यह समुद्र में डूबी हुई थी।[14]भारत के बाहरसंपादित करेंनेपालसंपादित करेंनेपाल की लगभग अस्सी प्रतिशत आबादी खुद को हिंदू के रूप में पहचानती है और कृष्ण जन्माष्टमी मनाती है। वे आधी रात तक उपवास करके जन्माष्टमी मनाते हैं। भक्त भगवद गीता का पाठ करते हैं और भजन और कीर्तन करते हैं। कृष्ण के मंदिरों को सजाया जाता है। दुकानों, पोस्टरों और घरों में कृष्ण के रूपांकन हैं।[15]बांग्लादेशसंपादित करेंजन्माष्टमी बांग्लादेश में एक राष्ट्रीय अवकाश है। जन्माष्टमी पर, बांग्लादेश के राष्ट्रीय मंदिर, ढाकेश्वरी मंदिर ढाका से एक जुलूस शुरू होता है, और फिर पुराने ढाका की सड़कों से आगे बढ़ता है। जुलूस 1902 का है, लेकिन 1948 में रोक दिया गया था। जुलूस 1989 में फिर से शुरू किया गया था।[16]फ़िजीसंपादित करेंफिजी में कम से कम एक चौथाई आबादी हिंदू धर्म का पालन करती है, और यह अवकाश फिजी में तब से मनाया जाता है जब से पहले भारतीय गिरमिटिया मजदूर वहां पहुंचे थे। फिजी में जन्माष्टमी को "कृष्णा अष्टमी" के रूप में जाना जाता है। फ़िजी में अधिकांश हिंदुओं के पूर्वज उत्तर प्रदेश, बिहार और तमिलनाडु से उत्पन्न हुए हैं, जिससे यह उनके लिए विशेष रूप से महत्वपूर्ण त्योहार है। फिजी का जन्माष्टमी उत्सव इस मायने में अनोखा है कि वे आठ दिनों तक चलते हैं, जो आठवें दिन तक चलता है, जिस दिन कृष्ण का जन्म हुआ था। इन आठ दिनों के दौरान, हिंदू घरों और मंदिरों में अपनी 'मंडलियों' या भक्ति समूहों के साथ शाम और रात में इकट्ठा होते हैं, और भागवत पुराण का पाठ करते हैं, कृष्ण के लिए भक्ति गीत गाते हैं, और प्रसाद वितरित करते हैं।[17]रीयूनियनफ्रांसीसी द्वीप रीयूनियन के मालबारों में, कैथोलिक और हिंदू धर्म का एक समन्वय विकसित हो सकता है। जन्माष्टमी को ईसा मसीह की जन्म तिथि माना जाता है।[17]अन्यएरिज़ोना, संयुक्त राज्य अमेरिका में, गवर्नर जेनेट नेपोलिटानो इस्कॉन को स्वीकार करते हुए जन्माष्टमी पर संदेश देने वाले पहले अमेरिकी नेता थे। यह त्योहार कैरिबियन में गुयाना, त्रिनिदाद और टोबैगो, जमैका और पूर्व ब्रिटिश उपनिवेश फिजी के साथ-साथ सूरीनाम के पूर्व डच उपनिवेश में हिंदुओं द्वारा व्यापक रूप से मनाया जाता है। इन देशों में बहुत से हिंदू तमिलनाडु, उत्तर प्रदेश और बिहार से आते हैं; तमिलनाडु, उत्तर प्रदेश, बिहार, बंगाल और उड़ीसा के गिरमिटिया प्रवासियों

जन्माष्टमी जन्माष्टमी जय श्री कृष्ण जी jaमुख्य मेनू खोलें खोजें जन्माष्टमी By वनिता कासनियां पंजाब वार्षिक हिंदू त्योहार जो भगवान कृष्ण के जन्म का जश्न मनाता है भाषा PDF डाउनलोड करें ध्यान रखें संपादित करें कृष्ण जन्माष्टमी ,  जिसे  जन्माष्टमी  वा  गोकुलाष्टमी  के रूप में भी जाना जाता है, एक वार्षिक हिंदू त्योहार है जो  विष्णुजी  के दशावतारों में से आठवें और चौबीस अवतारों में से बाईसवें अवतार श्रीकृष्ण के जन्म के आनन्दोत्सव के लिये मनाया जाता है। [1]  यह हिंदू चंद्रमण वर्षपद के अनुसार, कृष्ण पक्ष (अंधेरे पखवाड़े) के आठवें दिन (अष्टमी) को  भाद्रपद  में मनाया जाता है ।  [2]  जो  ग्रेगोरियन कैलेंडर  के अगस्त व सितंबर के साथ अधिव्यापित होता है। [3] जन्माष्टमी भगवान कृष्ण आधिकारिक नाम श्रीकृष्ण जन्माष्टमी अनुयायी हिन्दू , नेपाली ,  भारतीय , नेपाली और भारतीय प्रवासी प्रकार हिन्दू धार्मिक उद्देश्य भगवान कृष्ण के आदर्शों को स्मरण करना और ध्यान में लाना उत्सव प्रसाद बाँटना, भजन गाना इत्यादि अनुष्ठान श्रीकृष्ण ...